टीबी की एक नई दवा बनाई गई है जो 80 फीसदी मरीजों को ठीक करने में कामयाब रही है. ट्रायल के बाद दुनिया भर में टीबी के खिलाफ चल रही जंग में इसे "गेमचेंजर" कहा जा रहा है.
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बेलारूस के डॉक्टरों ने टीबी के मरीजों पर कई महीनों तक बेडाक्विलिन नाम की इस दवा का दूसरे एंटीबायटिकों के साथ इस्तेमाल किया. नतीजे चौंकाने वाले हैं. जिन 181 मरीजों को नई दवा दी जा रही थी, उनमें 168 लोगों ने इसका कोर्स पूरा किया और उनमें से 144 मरीज पूरी तरह ठीक हो गए. यह सभी मल्टीड्रग रेसिस्टेंट टीबी के शिकार थे, यानी जिन पर टीबी की दो प्रमुख दवाएं बेअसर हो गई थीं.
इस तरह के टीबी का पूरी दुनिया में बहुत तेजी से फैलाव हो रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है फिलहाल टीबी के महज 55 फीसदी मरीजों का ही सफल इलाज हो पाता है, जबकि इस शोध में 80 फीसदी लोग ठीक हो सके.
बेलारूस में टीबी का शिकार होने वाले लोगों की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है. बेलारूस के ट्रायल को पूर्वी यूरोप, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया में भी आजमाया गया और यहां भी नतीजे वही रहे. इस हफ्ते के आखिर में हेग में ट्यूबरक्लोसिस कांफ्रेंस में ट्रायल के इन नतीजों को जारी किया जाएगा. इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट ट्यूबरक्लोसिस एंड लंग डिजीज की वैज्ञानिक निदेशक पाउला फुजीवारा का कहना है, "इस रिसर्च से यह पक्का हो गया है कि बेडाक्विलिन जैसी नई दवाएं टीबी के साथ जी रहे लोगों के लिए गेमचेंजर हैं."
ताकतवर होता टीबी
भारत में हर तीन मिनट में दो मरीज टीबी यानि तपेदिक के कारण मारे जाते हैं. अच्छे इलाज की कमी के कारण ये बीमारी ड्रग रेसिस्टेंट होती जा रही है, यानी सामान्य दवाएं इस पर असर ही नहीं कर पा रही हैं.
तस्वीर: DW/B. Das
सबसे ज्यादा
भारत में टीबी के सबसे ज्यादा मरीज हैं, कुल मरीजों के 26 फीसदी भारत में रहते हैं. यह जानलेवा संक्रामक बीमारी है.
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लाखों बीमार
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2012 में दुनिया भर में 86 लाख लाख लोग तपेदिक का शिकार हुए और 13 लाख मौत हुई. नये मामले पिछले दशकों के दौरान हर साल दो फीसदी की दर से कम हो रहे हैं.
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डीआर-टीबी
दवा प्रतिरोधी टीबी मुश्किलें बढ़ा रहा है. 2012 में 4.5 लाख लोग डीआर-टीबी के मरीज बने. इनमें से आधे भारत, चीन और रूस में रहते हैं. कई मामले अभी भी पता नहीं चलते हैं.
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मुश्किल में भारत
दवा प्रतिरोधी तपेदिक के मामले या तो पहले संक्रमण में सामने आते हैं या फिर इलाज के दौरान टीबी पर दवाएं बेअसर होने लगती हैं. भारत में इसके मामले तेजी से बढ़े हैं. 2012 में ऐसे 64,000 केस सामने आए.
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खुद बनाई मुसीबत
मणिपुर में एमडीआर टीबी का रोगी. विशेषज्ञों का कहना है कि दवाई प्रतिरोधक टीबी इंसानी गलती के कारण होती है. इसका एक कारण है, टीबी का ढंग से इलाज नहीं कर पाना.
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खराब इलाज
मैकग्रिल इंटरनेशनल टीबी सेंटर के मुताबिक दवा प्रतिरोधी टीबी गलत दवा, खराब गुणवत्ता वाली दवा या फिर बीच में इलाज छोड़ने के कारण होता है. ये दवाएं बदलने या फिर दवा के असर का टेस्ट न करने के कारण भी हो सकता है.
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इलाज
भारत में टीबी का इलाज रिवाइज्ड नेशनल ट्यूबरकुलोसिस कंट्रोल प्रोग्राम के तहत होता है. इसमें 15 लाख लोगों का इलाज किया जा रहा है. लेकिन बीमार आधे मरीज निजी डॉक्टरों के पास इलाज के लिए जाते हैं, जो टीबी कंट्रोल में शामिल नहीं है.
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मिंस्क के रिपब्लिकन रिसर्च एंड प्रैक्टिकल सेंटर फॉर पल्मोनोलॉजी की प्रमुख रिसर्चर एलेना स्क्राहिना ने भी बेडाक्विलिन के नतीजों को "भरोसा देने वाला" बताया है. उन्होंने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "हमारी स्टडी आमतौर पर क्लिनिकल ट्रायल्स में बेडाक्विलिन के असर की पुष्टि करती है और इससे जुड़ी सुरक्षा की चिंताओं की पुष्टि नहीं करती."
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक टीबी की वजह से 2017 में 17 लाख लोगों की जान गई. यह दुनिया की उन सबसे घातक बीमारियों में हैं जो वायु में संक्रमण के जरिए फैलती हैं. यह संख्या मलेरिया से हर साल होने वाली मौतों से करीब तीन गुना ज्यादा है. इसके साथ ही एचआईवी के पीड़ितों की होने वाली मौत की सबसे बड़ी वजह भी टीबी ही है. विशेषज्ञ बताते हैं कि टीबी के मरीजों की ठीक ढंग से देखभाल नहीं होने के कारण यह तेजी से फैल रहा है.
एचआईवी और इस तरह की दूसरी बीमारियों से अलग टीबी का अलाज अलग हो सकता है लेकिन इसके लिए छह महीने तक सख्ती के साथ इलाज कराना होता है, जिसमें कई दवाइयां रोज लेनी पड़ती हैं. दुनिया के कई हिस्से में दवाइयां ठीक से नहीं रखी जाती या फिर इलाज पूरा होने से पहले ही खत्म हो जाती हैं. इसके कारण दवा प्रतिरोध बढ़ जाता है. खासतौर से ऐसी जगहें जहां ज्यादा लोग हों जैसे कि अस्पताल या जेल. डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मल्टीड्रग रेसिस्टेंट टीबी दुनिया के 117 देशों में है.
चूहे करेंगे टीबी का मुकाबला
टीबी दुनिया की कुछ सबसे ज्यादा खतरनाक बीमारियों में शामिल है. पूर्वी अफ्रीका और एशिया के लिए तो टीबी एक बहुत बड़ा अभिशाप बन गया है. 'अपोपो' नाम का एक एनजीओ तंजानिया में टीबी का पता लगाने के लिए चूहों की मदद ले रहा है.
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मिलिए 'हीरो चूहे' से
बेल्जियम का 'अपोपो' नाम का एनजीओ अफ्रीका में इन हीरो माने जाने वाले चूहों को टीबी का सूंघ कर पता लगाने के लिए ट्रेन करता है. गिलबर्ट नामका अफ्रीका का यह बड़े पाउच वाला चूहा किसी इंसान की थूक को सूंघ कर बीमारी का पता लगा रहा है. तंजानिया के सेंटर पर गिलबर्ट के जैसे करीब 40 चूहे हैं.
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ट्रेनिंग के तरीके
हर बार जब गिलबर्ट किसी सैंपल को टीबी के लिए पॉजिटिव पाता है तो वह अपने अगले पंजों से तेजी से उसे खुरचने लगता है. ट्रेनिंग के दौरान उसे सिर्फ पॉजिटिव सैंपलों के साथ ऐसा करना सिखाया जाता है. इसके लिए हर बार उसे केले और मूंगफलियां इनाम के तौर पर मिलती हैं और वो सूंघना जारी रहता है.
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सिर्फ टीबी के लिए ही नहीं
अपोपो कई सालों से चूहों को मोजांबिक, अंगोला और कंबोडिया जैसे देशों में बारुदी सुरंगों का सूंघ कर पता लगाने में इस्तेमाल करता रहा है. केवल मोजांबिक में ही इन्होंने 13,000 से भी ज्यादा छोटे मोटे हथियारों और ढाई हजार से ज्यादा विस्फोटक सुरंगों का पता लगाया है, जिन्हें समय रहते नष्ट किया जा सका.
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निवेश के लिए आदर्श
इन चूहों में सूंघने की विलक्षण क्षमता होती है और ये बहुत शांत प्रवृत्ति के भी होते हैं. ऐसे हर एक चूहे को ट्रेन करने में नौ महीने और करीब 6,000 यूरो का खर्च आता है. अच्छी बात यह है कि ये आठ साल तक जीते हैं और आगे चलकर अपने ट्रेनर पर निर्भर नहीं करते.
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जन्म से ही ट्रेनिंग शुरू
अपोपो अपनी साइट पर ही इन चूहों की ब्रीडिंग करता है. इससे उन्हें शुरू से ही चूहों को सिखाने का मौका मिलता है. कभी कभी ब्रीडिंग की प्रक्रिया में यह संगठन बाहर के जंगली चूहों की भी मदद लेता है.
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ऐसे होती है टीबी टेस्टिंग
जब मरीज अपनी थूक या बलगम का सैंपल जमा करता है तभी से जांच शुरू हो जाती है. तपेदिक या टीबी एक ऐसी संक्रामक बीमारी है जिससे फेफड़े प्रभावित होते हैं. डब्ल्यूएचओ के अनुसार साल 2012 में 13 लाख से भी ज्यादा लोगों की इस बीमारी ने जान ले ली.
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जानलेवा है टीबी
भारत जैसे विकासशील देश में हर तीन मिनट में दो मरीज टीबी के कारण अपनी जान गंवाते हैं. टीबी के मरीजों को खांसी की शिकायत होती है, हमेशा थका हुआ महसूस करते हैं और बहुत वजन कम हो जाता है.
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प्रमाणित नहीं है तरीका
गिलबर्ट और उसके ट्रेंड साथी अब तक 1,700 से भी ज्यादा टीबी के मरीजों को पहचान चुके हैं. लेकिन टीबी का पता लगाने के लिए चूहों के इस्तेमाल के इस तरीके को अभी विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्यता नहीं मिली है.
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'स्पीड मशीन' हैं ये चूहे
एक लैब तकनीशियन एक दिन में करीब 25 नमूनों की जांच कर सकता है. वहीं एक चूहा इतने नमूने महज सात मिनट में सूंघ कर बीमारी का पता लगा सकता है. पिछले पांच साल से लगातार इस ट्रेनिंग तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है और रोगी की पहचान करने में चूहे इंसानों से तेज साबित हुए है.
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दूसरे एंटीबायोटिक की तरह बेडेक्विलीन सीधे बैक्टीरिया पर हमला नहीं करती है, बल्कि इसकी बजाय वह उन एंजाइमों को निशाना बनाती है, जिन पर यह बैक्टीरिया अपनी ऊर्जा के लिए निर्भर है. सभी मरीजों में कुछ ना कुछ साइड इफेक्ट भी देखा गया लेकिन यह उतना गंभीर नहीं था जितना पहले सोचा गया था. पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश टीबी के खिलाफ पूरी दुनिया के लिए एक योजना बनाने पर सहमत हुए. इसके साथ ही जरूरी दवाओं को सस्ता बनाने पर भी काम होगा.
एचआईवी जैसी बीमारियों के खिलाफ कोशिशों को हाईप्रोफाइल और मशहूर लोगों का समर्थन मिला है लेकिन टीबी को अब भी दुनिया के दूर दराज के अविकसित हिस्सों की बीमारी समझा जाता है.
अकेले भारत में ही दुनिया के एक चौथाई टीबी मरीज रहते हैं. नई दवा भारत जैसे देशों के लिए उम्मीद की बड़ी रोशनी लेकर आई है. सस्ती दवा दुनिया में इस बीमारी के फैलाव को रोक सकती है.