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टोल न देने वालों से परेशान सड़कें

९ नवम्बर २०१३

गाड़ियों की छत पर चमकती लाइट, नेताओं के आगे पीछे चलता काफिला, टोल बूथ में तोड़फोड़ और मार खाते टोल कर्मचारी. भारत के हाइवे की कुछ ऐसी ही तस्वीर उभर रही है.

तस्वीर: DW

भारत की हजारों करोड़ों गाड़ियां और उबड़ खाबड़ सड़कों के बीच अगर कहीं राहत मिलती है, तो निजी हाथों में चल रही टोल सड़कों पर. लेकिन यहां टैक्स से बचने वालों की भी कमी नहीं. इस तरह की घटनाओं से देश के सड़क संचालकों को तो नुकसान हो ही रहा है, निवेश में भी अडंगा लग रहा है. अनुमान है कि खराब बुनियादी ढांचे की वजह से निजी निवेश नहीं हो पा रहा है, जिससे देश का आर्थिक विकास दो फीसदी पीछे चल रहा है.

एंबुलेंस, दमकल और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों को टोल से छूट है लेकिन अकसर दूसरे लोग भी बिना पैसे दिए पार लगने की कोशिश करते हैं, वो भी पूरे अधिकार के साथ. हाइवे संचालक जीवीके पावर एंड इन्फ्रांस्ट्रक्चर के मुख्य वित्तीय अधिकारी आइजक जॉर्ज का कहना है, "अगर किसी सांसद को छूट दी जाती है तो सिर्फ उसकी कार नहीं बल्कि पूरा काफिला छूट का दावा करने लगता है. सरकार को कुछ करना होगा क्योंकि इससे राजस्व घट रहा है."

आर्थिक दिक्कतों से जूझ रही भारत सरकार चाहती है कि निजी कंपनियां सड़क और पुलों के निर्माण पर खर्च 2017 तक दोगुनी कर दें. पिछले पांच सालों में यह हिस्सेदारी कुल खर्च का करीब 20 फीसदी रही है. 2012 में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी फिश के सर्वे के मुताबिक भारत की 10 में से आठ सड़क परियोजना, पहले साल में राजस्व की उम्मीदों को पूरा करने मे नाकाम रहती है. राजस्व में कमी कई बार 45 फीसदी तक रहती है. फिश के भारत विश्लेषक एस नंदकुमार का कहना है कि इसके पीछे मंद पड़ती अर्थव्यवस्था और कई बार बढ़े हुए पूर्वानुमान भी कारण हैं लेकिन टोल से बचना भी बड़ी वजह है, "निश्चित रूप से टोल को लेकर एक प्रतिरोध है, खास तौर से उन सड़कों पर जहां पहली बार टोल लगाया गया है."

तस्वीर: picture-alliance/dpa

चोरी और मारपीट

ड्राइवर धमकियों से, मारपीट करके विरोध करते हैं और ऊंची पहुंच का डर दिखा कर टोल से छूट मांगते हैं. इन लोगों के कारण सड़क बनाने वालों की टोल से कमाई कम से कम 10 फीसदी घट जाती है. विरोध प्रदर्शन के कारण महाराष्ट्र में आईआरबी इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपर्स दो साल से एक सड़क पर टोल नहीं लगा पाई. आखिरकार कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया और पुलिस की मदद से इस साल 17 अक्टूबर को यहां टोल शुरू हुआ.

पिछले महीने एक सिक्योरिटी कैमरे के फुटेज से दिखा कि दिल्ली से बाहर की एक टोल बूथ पर लोहे की छड़ लेकर आए छह लोगों ने स्टाफ को मारा और पैसे चुरा कर भाग गए. दो साल पहले गुड़गांव में एक टोल बूथ पर मौजूद एक कर्मचारी को गोली मार दी गई. कार के लिए 27 रुपये की टोल के लेकर कोई विवाद हो गया था. इस तरह की अराजक स्थिति का आर्थिक नुकसान हो रहा है.

पिछले साल सरकार अपने लक्ष्य के पांचवें हिस्से से भी कम सड़क परियोजनाएं के ठेके निजी कंपनियों को दे पाई. जीवीके और जीएमआर जैसी कंपनियां नौकरशाही की बाधाओं के कारण सड़क परियोजनाओं से हाथ खींच रही हैं. टोल से बचने की कोशिशें और वहां लगने वाले जाम को रोकने के लिए सरकार इलेक्ट्रॉनिक टोल का इस्तेमाल करने की योजना पर काम कर रही है. सड़क परिवहन मंत्री सीपी जोशी का कहना है कि 2014 के आखिर तक हर जगह इलेक्ट्रॉनिक टोल लगाने की योजना है.

माफिया और चापलूस

भारत के टोल रोड बेहतर हालत में हैं और सरकारी सड़कों की तुलना में कम भीड़भाड़ वाले भी लेकिन यूरोप से अलग यहां टोल सड़कें ही शहरों के बीच मुख्य सड़क बन गई हैं. ऐसे में ड्राइवरों के पास ज्यादा विकल्प नहीं. इसकी वजह से लोगों को गुस्सा आता है, खास तौर से जब सड़कें गड्ढों से भरी हों और और ऊपर से दिमाग सुन्न करने देने वाली भीड़. ऐसे में लोग तरह तरह से बचने के तरकीब लगाते हैं. कुछ लोगों ने तो बकायदा लाल बत्ती खरीद रखी है और ऐसे टोल ब्रिज से गुजरते समय कार पर लगा लेते हैं.

आईएल एंड एफएस ट्रांसपोर्टेशन नेटवर्क के एमडी के रामचंद कहते हैं कि एक तरीका यह था कि शुरुआती दिनों में उन्हें उनके तरीके से जाने दिया जाए. वो बताते हैं, "टोल न देने वाले ज्यादातर स्थानीय माफिया, मंत्री या उनके चमचे होते हैं, ऐसे लोगों को मुफ्त पास देकर आप उन्हें अपनी ओर कर सकते हैं. नहीं तो होता यह है कि उनके 30-40 समर्थक हंगामा करते हैं और फिर भीड़ के नाम पर यह बड़ा मुद्दा बन जाता है."

एनआर/एजेए (रॉयटर्स)

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