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ट्यूनीशिया के भविष्य की जंग

ऊटे शेफर/एनआर३१ मई २०१३

अरब वसंत की शुरुआत में जब प्रदर्शनकारी ट्यूनीशिया में सड़कों पर उतरे तब वो रोटी, सम्मान और न्याय की मांग कर रहे थे. तानाशाही तो खत्म हुई लेकिन सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता ही उनके हिस्से आई.

तस्वीर: DW/Guizani Tarek

इसी साल 13 मार्च की बात है, 27 साल के आदेल खेदरी ने ट्यूनीशिया की राजधानी ट्यूनिश के बीचोबीच खुद को आग लगा ली. इस दौरान वह चिल्लाता रहा, ''देखो इधर, यह युवा सिगरेट बेचता है क्योंकि उसके पास नौकरी नहीं है.''

उसकी बात और हरकत गरीब और दिशाहीन देश में मदद के लिए पुकार थी और इस बात का संकेत भी कि दो साल पहले क्रांति के रथ पर सवार हुए ट्यूनीशिया में क्या कुछ गलत हुआ है. दुखद यह है कि ट्यूनीशिया की क्रांति भी एक सब्जी बेचने वाले के आत्मदाह से शुरू हुई थी. दोनों शख्स ट्यूनीशिया के गांवों से आए थे.

क्रांति की चोरी

आदेल के गांव सौक जेमा में संविधान सभा के रूप में बनी नई सरकार के फैसलों से लोगों के जीवन में कोई सुधार नहीं हुआ है. ट्यूनीशिया के 30 लाख निवासियों की तरह पीड़ित परिवार के दो जून की रोटी के जुगाड़ में लगे पांच सदस्य भी अंधेरे और ढंडे घर में रहते हैं. सरकारी नीतियों का उनपर असर नहीं डाल पा रही हैं.

आदेल की मौत का विरोधतस्वीर: picture-alliance/dpa

आदेल की मौत थोड़ी सी अलग है. उसका अंतिम संस्कार विरोध प्रदर्शन बन गया जिसमें गरीबों ने सरकार से सत्ता छोड़ने को कहा. देश के पूर्व नेता बेन अली की सालों तक अनदेखी झेलने के बाद वो अब और सहन करने की स्थिति में नहीं हैं. क्रांति के बाद अब तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिससे कि उनकी स्थिति में कोई सुधार हो.

आदेल के चचेरे भाई अहमद खाजरी का कहना है यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि ट्यूनीशिया की राजनीति के केंद्र में यहां के लोग नहीं हैं. उनका कहना है, ''राजनेता बहस और सत्ता के लिए लड़ने के अलावा और कुछ नहीं करते.'' यह दुखद है कि जिन लोगों ने बदलाव की उम्मीद में प्रदर्शन किया था उनमें से बहुत लोग ''क्रांति की चोरी'' की बात करने लगे हैं.

ट्यूनीशिया में सत्ता की लड़ाई जोरों पर है और देश दो दिशाओं में से किसी एक तरफ जा सकता है. या तो यहां लोकतंत्र होगा जहां धर्म और राजनीति के बीच विभाजन रेखा साफ होगी, या फिर यह शरिया कानून के मुताबिक चलने वाला धार्मिक देश होगा. ब्लॉगर से पत्रकार बनीं सोफियाने चौराबी मानती हैं कि ज्यादातर ट्यूनीशियावासी पारंपरिक इस्लामी राजनीतिक तंत्र के पक्ष में हैं जिसे सऊदी अरब और कतर जैसे अमीर, रुढ़िवादी सुन्नी पड़ोसियों का आर्थिक और वैचारिक समर्थन हासिल है. चौराबी के मुताबिक इस तंत्र में ''निरंकुशों की नई पीढ़ी'' भी है जिन्होंने तानाशाही से देश को मुक्त कराया है. चौराबी का इशारा युवाओं के उन गुटों की तरफ है जो महिलाओं को गैर इस्लामी लिबास पहननने या युवाओं के शराब पीने पर उन्हें प्रताड़ित करते हैं.

विपक्षी राजनीतिज्ञ की हत्यातस्वीर: AFP/Getty Images

सलाफियों की बुलंद होती आवाज

ट्यूनिस में इक्वलिटी एंड इंटरकल्चरल स्टडीज की प्रोफेसर आमेल गरामी जानती हैं कि निरंकुशता कैसी होती है. इस्लाम की आधुनिक समझ और एक उदार समाज की उनकी इच्छा ने उन्हें फोन पर मौत की धमकियां और सोशल मीडिया में निंदा दिलाई. वो बताती हैं, ''दाढ़ी वाले पुरूष नाराज हो गए. वो मुझे यहूदी समर्थक और ईसाई उपदेशक कहते हैं.'' अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित गरामी राजधानी के कुछ हिस्सों से दूर ही रहती हैं.

इन धमकियों के लिए जिम्मेदार सलाफी गुट बेन अली के सत्ता से हटने के बाद ही दिखने शुरू हुए हैं. सोफियाने का अनुमान है कि ट्यूनीशिया में 10 से 20 हजार के बीच सलाफी हैं हालांकि वो अलग अलग गुटों में बंटे हुए हैं. इनमें से कुछ बेहद हिंसक हैं और अल कायदा के भी करीब हैं, लेकिन इन सब में एक बात सामान्य है कि यह सभी नास्तिकों के प्रबल विरोध हैं और ऐसा दिखने वालों को बदनाम करते हैं.

क्रांति के दौरान सुरक्षा और व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाले ''लीग फॉर प्रोटेक्शन ऑफ द रिवॉल्यूशन'' से भी कुछ गुट निकले हैं. ट्यूनीशिया में अब सबसे मजबूत राजनीतिक पार्टी एन्नाहदा मूवनेंट हिंसा का इस्तेमाल करने वाले गुटों पर भरोसा करती है. यह गुट अलग अलग राज्यों से युवाओं को भर्ती करते हैं. इन्हें रुतबा और पैसा दिया जाता है और साथ ही युद्धक मिशन. इन सबके साथ इन लोगों को अपना भविष्य बड़ा उज्जवल दिखने लगता है. इन लड़ाकों को आधिकारिक रूप से दर्ज तो कर लिया गया है लेकिन इन्हें पूरी तरह से सरकारी तंत्र का हिस्सा नहीं बनाया गया है.

सलाफियों और पुलिस की टक्करतस्वीर: picture alliance/AP Photo

मस्जिद और पीछे के कमरों का संवाद

आमेल गरामी एन्नाहदा की आंतरिक नीतियों को ''मस्जिद और पीछे के कमरों का संवाद'' कहती हैं, जिसके बारे में दुनिया को कुछ भी नहीं पता. पारदर्शिता की इसी कमी को सोफियाने चौराबी चिंता का कारण मानती हैं. उनका मानना है कि हालात इतने विस्फोटक हैं कि और कुछ नहीं तो बड़ी आसानी से गृहयुद्ध छिड़ सकता है, क्योंकि इन्नाहदा और सरकार ने हिंसा की ओर से आंखें बिल्कुल मूंद रखी है. यह सच है कि विरोध प्रदर्शन के शुरूआती दिनों में इसमें शामिल नहीं रहने वाली एन्नाहदा आज लोगों की अकेली ऐसी पार्टी है जिसकी मौजूदगी पूरे देश में है.

बेन अली के शासन वाले दौर से अब तक इस पार्टी ने एक लंबा सफर तय किया है. उस वक्त पार्टी समर्थकों को प्रताड़ित किया जा रहा था, उन्हें जेल में डाला गया और उनकी हत्या तक हुई. पार्टी के नेता राशिद घनौची धीमे सामाजिक बदलाव में यकीन रखते हैं उनका कहना है, ''कानून समाज को तब तक नहीं बदल सकता जब तक कि समाज खुद बदलना ना चाहे.''

हालांकि आमेल गरामी और सोफियाने चौराबी देश की मस्जिदों से पनपते इस्लामी रूढ़िवाद की तरफ जाने से खुश नहीं हैं, ना ही इस बात से कि जीवन के दूसरे विकल्पों को ''गैरइस्लामी'' करार दे दिया जाए. मिस्र पिछले दो दशकों से इन सब का सामना कर रहा है लेकिन ट्यूनीशिया इनके लिए नई जमीन है. चौराबी इसे तानाशाही का हल्का उभार मानती हैं और कहती हैं कि सरकार में शामिल धर्मनिरपेक्ष साझेदार इतने कमजोर हैं कि वो संतुलन नहीं बना सकते.

तानाशाह परिवार के गहनों की बिक्रीतस्वीर: DW/S.Mersch

लोकतंत्र ''गैरइस्लामी'' है

डॉक्टर और सामाजिक कार्यकर्ता एमना मेनिफ धर्मनिरपेक्षता के लिए काफी सक्रिय रहती हैं. एमना अपना काफी वक्त अपने देशवासियों को उदार और सहनशील ट्यूनीशिया बनाने के लिए समझाने में बिताती रहीं. पर जब बहुत से लोगों ने लोकतंत्र को गैर इस्लामी बताया और धर्मनिरपेक्ष तंत्र को तानाशाह बेन अली से जोड़ा तो उन्होंने अपना काम समेट लिया. मेनिफ कहती हैं कि ट्यूनीशिया बिना यह सोचे ही क्रांति के रास्ते पर बढ़ गया कि तनाशाही के बाद क्या होगा और अब देश उन जरूरी सवालों से जूझ रहा है. मेनिफ ने कहा, ''हमारे राजनेता लोगों की तकलीफों ओर चिंताओं को गंभीरता से नहीं लेते.'' उनके मुताबिक इसका नतीजा यह हुआ है कि बहुत से लोगों का लोकतंत्र से मोह भंग हो गया है.

इनमें वो पढ़े लिखे लोग शामिल हैं जिन्हें नए ट्यूनीशिया में काम नहीं मिल रहा है. हमजा इन्हीं युवाओं में एक हैं. उन्होंने फ्रेंच पढ़ा लेकिन जब पर्यटन का धंधा चौपट हो गया तो उनका काम छिन गया. वह अगले चुनाव में वोट नहीं डालना चाहते और कहते हैं कि बेन अली को वापस देखना उन्हें ज्यादा भाएगा. उनका कहना है, ''वह राजनीतिक तानाशाही हो सकती है लेकिन इसने आम लोगों को आम जिंदगी जीने दी.'' ऐसी सोच रखने वाले वो अकेले शख्स नहीं हैं.

सोफियाने चौराबी की माने तो समस्या यह है कि ट्यूनीशियाई समाज अब भी तानाशाही के सदमे में जी रहा है और क्रांति सांस्कृतिक न हो कर राजनीतिक थी. संस्कृति को बदलना इतना आसान नहीं होता क्योंकि इसके लिए लोगों की बुनियादी सोच बदलनी होती है. उनका कहना है, ''हमारा समाज तानाशाही के लिए उपजाऊ जमीन है, यहां के लोगों का मानसिक झुकाव ही ऐसा है.'' चौराबी के मुताबिक इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है.

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