पश्चिमी देशों का सैन्य संगठन नाटो नई उम्मीदों के साथ नए साल में प्रवेश कर रहा है. अमेरिका में सत्ता बदलने वाली है. डॉनल्ड ट्रंप की जगह जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने से क्या कुछ बदलेगा?
विज्ञापन
दिसंबर 2019 में नाटो के 70 साल पूरे हुए तो इस मौके पर कोई बड़ा आयोजन नहीं किया गया, बल्कि लंदन में सादा सा समारोह किया गया, जिसे 'नेताओं की बैठक' का नाम दिया गया. इसकी एक वजह अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भी रहे जो ऐसे मौकों को अपनी बातों से अकसर हाइजैक करने में माहिर हैं और अपने सहयोगियों के साथ एकजुटता दिखाने की बजाय उन्हें निशाना बनाने लगते हैं.
हालिया अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम आने के बाद आम तौर पर तटस्थ माने जाने वाले नाटो के महासचिव येंस स्टोल्टेनबर्ग अपनी उत्सुकता को छिपा नहीं पा रहे हैं. उन्होंने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन को "नाटो और ट्रांस अटलांटिक (यूरोप-अमेरिका) संबंधों का मजबूत समर्थक बताया है." उन्होंने बाइडेन को प्रशासन की बागडोर संभालने के बाद ब्रसेल्स आने का न्यौता दिया है.
व्हाइट हाउस में ट्रंप के स्थान पर बाइडेन का होना नाटो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. फ्रेंड्स ऑफ यूरोप संस्था में सीनियर फेलो पॉल टेलर कहते हैं, "वाकई बहुत मुश्किल समय रहा. लेकिन बड़ी बात यह है कि नाटो ने डॉनल्ड ट्रंप को झेल लिया, बिना टूटे फूटे और बिना बदले हुए."
पहले से बेहतर या बुरा
वैसे ट्रंप के रहते कुछ बातें अच्छी भी हुई. मिसाल के तौर पर सदस्यों देशों की तरफ से नाटो के लिए दिए जाने वाले योगदान में गिरावट नहीं आई. नाटो का लक्ष्य है कि सदस्य देश अपनी जीडीपी का दो प्रतिशत सैन्य गठबंधन के लिए दें. इस दो प्रतिशत की मांग को देखते हुए सभी सदस्य देशों ने अपने रक्षा खर्च में इजाफा किया है ताकि ट्रंप की किसी भी सार्वजनिक फटकार से बचा जा सके.
टेलर कहते हैं, "उन्होंने सहयोगियों के बीच चीन के मुद्दे को भी लगातार गर्म रखा जबकि यह कभी नाटो के एजेंडे पर नहीं रहा. क्या कभी ना कभी इसे एजेंडे पर आना ही था? पता नहीं, लेकिन यह उनके रहते हुआ, उनकी जिद पर हुआ."
हालांकि इराक और अफगानिस्तान से एकतरफा तौर पर अमेरिकी सेनाओं को हटाने के उनके फैसले का अच्छा पहलू ढूंढना मुश्किल है. वहां नाटो सैनिक स्थानीय बलों को प्रशिक्षण दे रहे हैं ताकि वे अपने देश की सुरक्षा जिम्मेदारी अपने हाथों में ले सकें. अपने सैनिकों को हटाने का फैसला करते वक्त ट्रंप ने ना तो नाटो से सलाह मशविरा किया और ना ही उन सरकारों से जिनके सैनिक वहां तैनात हैं. अमेरिकी सैनिकों के ना होने के चलते अब इन देशों के सैनिकों को लिए वहां हालात पहले से मुश्किल होंगे.
ये भी पढ़िए: जर्मनी का नाटो मिशन
जर्मनी का नाटो मिशन
नाटो से जुड़ने के समय से ही जर्मनी ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन के कई ऑपरेशनों में हिस्सा लेती रही है. 1990 में जर्मन एकीकरण के बाद से तो जर्मन सेना बुंडेसवेयर को कई बार नाटो की सीमा के बाहर तैनात मिशनों में भी लगाया गया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Hanschke
नाटो में जर्मनी की भूमिका
आधिकारिक तौर पर पश्चिमी जर्मनी 1955 में ट्रांस-अटलांटिक सैनिक संधि में शामिल हुआ. लेकिन 1990 में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण के बाद से ही जर्मन सेना को नाटो के नेतृत्व में "आउट ऑफ एरिया" मिशनों के लिए भेजा गया. नाटो के कई साथी देशों की मदद के लिए जर्मन सेना ने शांति स्थापना से लेकर शक्ति संतुलन बनाने तक के मिशन पूरे किए हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Hanschke
बोसनिया: जर्मनी का पहला नाटो मिशन
सन 1995 में जर्मनी ने नाटो के पहले "आउट ऑफ एरिया" मिशन में हिस्सा लिया. दक्षिण पूर्वी यूरोप के बोसनिया हेर्त्सेगोविना में यूएन शांति मिशन में. बोसनिया युद्ध के इस मिशन में जर्मन सैनिकों को पहली बार नाटो की सीमा के बाहर तैनात किया गया. इस पीस कीपिंग मिशन में नाटो देशों और सहयोगियों के करीब 60,000 सैनिक तैनात थे.
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/H. Delic
कोसोवो में शांति स्थापना
कोसोवो में नाटो की अगुआई वाले पीस कीपिंग मिशन के शुरु होने के साथ ही करीब 8,500 जर्मन सैनिकों को नये नवेले देश में तैनात किया गया. सन 1999 में नाटो ने यहां सर्बियाई सेना के खिलाफ हवाई हमले करने शुरु किये. सर्बिया की सेना पर यहां के अल्बेनियाई अलगाववादियों और उनके सहयोगियों के साथ बड़े स्तर पर हिंसा करने का आरोप था. आज भी कोसोवो में कुछ 550 जर्मन सैनिक तैनात हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/V.Xhemaj
एजियन सी में गश्त
2016 से एजियन सी में जर्मन सेना का एक जहाज यूरोप की ओर से नाटो मिशन की अगुआई कर रहा है. शरणार्थी संकट के चरम पर इस जहाज ने ग्रीस और तुर्की की सीमा वाले जलक्षेत्र में "टोही, निगरानी और अवैध क्रॉसिंग की निगरानी" करना शुरु किया. जर्मनी, ग्रीस और तुर्की ने शरणार्थियों के बड़ी संख्या में आवाजाही को लेकर ट्रांस-अटलांटिक अलायंस से मदद ली है.
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/M.Schreiber
लिथुआनिया में जर्मन टैंक
बॉल्टिक देशों में अपनी उपस्थिति बढ़ाते हुए नाटो ने 2017 में अब तक करीब 450 जर्मन सैनिकों को तैनात किया है. जर्मनी, कनाडा, यूके और अमेरिका जैसे कई देशों के बटालियन वहां तैनात हैं. नाटो ने कहा है कि सैनिक सहबंध के पूर्वी छोर पर संयुक्त रक्षा दीवार को मजबूत करने का यह मिशन "अलायंस के सामूहिक रक्षा के सुदृढ़ीकरण का सबसे बड़ा मिशन" होगा.
तस्वीर: picture alliance/dpa/M. Kul
अफगानिस्तान में एक दशक से भी लंबा
सन 2003 में जर्मन संसद ने नाटो की अगुआई वाली अंतरराष्ट्रीय सेना (ISAF) की मदद के लिए जर्मन सेना को अफगानिस्तान भेजने का निर्णय लिया. जर्मनी ने तीसरी सबसे बड़ी टुकड़ी भेजी और उत्तर में क्षेत्रीय कमांड का नेतृत्व किया. इस मिशन में 50 जर्मन सैनिकों की जान भी चली गयी. करीब एक हजार सैनिक अब भी वहां तैनात हैं. (लुई सैंडर्स IV/आरपी)
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/A.Niedringhaus
6 तस्वीरें1 | 6
तो अब क्या?
ऐसे हालात में सत्ता संभाल रहे बाइडेन से नाटो को उम्मीद है कि वे मौजूदा और निकट भविष्य की सुरक्षा चिंताओं से निपटने में सामूहिक प्रयासों को मजबूत करेंगे. अब स्टोल्टेनबर्ग ऐसी चुनौतियों की प्राथमिकता सूची बना रहे हैं. नाटो के लिए मौजूद खतरों और क्षमताओं से जुड़ी "सामरिक अवधारणा" को 2010 से अपडेट नहीं किया गया है. नाटो में नई जान फूंकना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों कह चुके हैं कि इसकी "दिमागी मौत" हो चुकी है.
"नाटो रिफ्लेक्शन ग्रुप" की नई रिपोर्ट "नाटो 2030: नए युग के लिए एकजुट" कहती है कि लगातार आक्रामक बना हुआ रूस अगले दशक में भी सैन्य गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती रहेगा, लेकिन निश्चित रूप से चीन से भी निटपना होगा. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के पूर्व अधिकारी और पूर्व जर्मन विदेश मंत्री थॉमस दे मेजिएरे के साथ मिलकर नाटो के रिफ्लेशन समूह की साझा तौर पर अध्यक्षता करने वाले वेस मिचेल कहते हैं, "चीन का उदय नाटो के रणनीतिक परिदृश्य में अकेला और सबसे बड़ा बदलाव है और इस बदलाव को समझना होगा."
फिलहाल तो अफगानिस्तान में नाटो की सबसे बड़ी परीक्षा है. वहां अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता कछुए की चाल से चल रही है. नाटो महासचिव का कहना है कि फरवरी में इस बात का फैसला होगा कि अफगान बलों को ट्रेनिंग देने का काम जारी रखा जाए या फिर वहां दो दशक से जारी नाटो के अभियान को अब समेट लिया जाए.
ये भी पढ़िए: कैसे अमेरिका को चुनौती देने वाली महाशक्ति बन गया चीन
कैसे अमेरिका को चुनौती देने वाली महाशक्ति बन गया चीन
सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमेरिका अब तक दुनिया की अकेली महाशक्ति बना रहा. लेकिन अब चीन इस दबदबे को चुनौती दे रहा है. एक नजर बीते 20 साल में चीन के इस सफर पर.
तस्वीर: Colourbox
मील का पत्थर, 2008
2008 में जब दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी से खस्ताहाल हो रही थी, तभी चीन अपने यहां भव्य तरीके ओलंपिक खेलों का आयोजन कर रहा था. ओलंपिक के जरिए बीजिंग ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अपने बलबूते क्या क्या कर सकता है.
तस्वीर: AP
मंदी के बाद की दुनिया
आर्थिक मंदी के बाद चीन और भारत जैसे देशों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की उम्मीद की जाने लगी. चीन ने इस मौके को बखूबी भुनाया. उसके आर्थिक विकास और सरकारी बैंकों ने मंदी को संभाल लिया.
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee
ग्लोबल ब्रांड “मेड इन चाइना”
लोकतांत्रिक अधिकारों से चिढ़ने वाले चीन ने कई दशकों तक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में खूब संसाधन झोंके. इन योजनाओं की बदौलत बीजिंग ने खुद को दुनिया का प्रोडक्शन हाउस साबित कर दिया. प्रोडक्शन स्टैंडर्ड के नाम पर वह पश्चिमी उत्पादों को टक्कर देने लगा.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
मध्य वर्ग की ताकत
बीते दशकों में जहां, दुनिया के समृद्ध देशों में अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती गई, वहीं चीन अपने मध्य वर्ग को लगातार बढ़ाता गया. अमीर होते नागरिकों ने चीन को ऐसा बाजार बना दिया जिसकी जरूरत दुनिया के हर देश को पड़ने लगी.
चीन के आर्थिक विकास का फायदा उठाने के लिए सारे देशों में होड़ सी छिड़ गई. अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और ब्रिटेन समेत तमाम अमीर देशों को चीन में अपने लिए संभावनाएं दिखने लगीं. वहीं चीन के लिए यह अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को विश्वव्यापी बनाने का अच्छा मौका था.
तस्वीर: picture-alliance/ZUMAPRESS.com/Tang Ke
पश्चिम के दोहरे मापदंड
एक अरसे तक पश्चिमी देश मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चीन की आलोचना करते रहे. लेकिन चीनी बाजार में उनकी कंपनियों के निवेश, चीन से आने वाली मांग और बीजिंग के दबाव ने इन आलोचनाओं को दबा दिया.
तस्वीर: picture-alliance/Imagechina
शी का चाइनीज ड्रीम
आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर हो चुके चीन से बाकी दुनिया को कोई परेशानी नहीं थी. लेकिन 2013 में शी जिनपिंग के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद नजारा बिल्कुल बदल गया. शी जिनपिंग ने पहली बार चीनी स्वप्न को साकार करने का आह्वान किया.
तस्वीर: Getty Images/Feng Li
शुरू हुई चीन से चुभन
आर्थिक विकास के कारण बेहद मजबूत हुई चीनी सेना अब तक अपनी सीमा के बाहर विवादों में उलझने से बचती थी. लेकिन शी के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन ने सेना के जरिए अपने पड़ोसी देशों को आँखें दिखाना शुरू कर दिया. इसकी शुरुआत दक्षिण चीन सागर विवाद से हुई.
तस्वीर: picture alliance/Photoshot/L. Xiao
लुक्का छिप्पी की रणनीति
एक तरफ शी और दूसरी तरफ अमेरिका में बराक ओबामा. इस दौरान प्रभुत्व को लेकर दोनों के विवाद खुलकर सामने नहीं आए. दक्षिण चीन सागर में सैन्य अड्डे को लेकर अमेरिकी नौसेना और चीन एक दूसरे चेतावनी देते रहे. लेकिन व्यापारिक सहयोग के कारण विवाद ज्यादा नहीं भड़के.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/H. Guan
कमजोर पड़ता अमेरिका
इराक और अफगानिस्तान युद्ध और फिर आर्थिक मंदी, अमेरिका आर्थिक रूप से कमजोर पड़ चुका था. चीन पर आर्थिक निर्भरता ने ओबामा प्रशासन के पैरों में बेड़ियों का काम किया. चीन के बढ़ते आक्रामक रुख के बावजूद वॉशिंगटन कई बार पैर पीछे खींचता दिखा.
तस्वीर: AFP/Getty Images/S. Marai
संघर्ष में पश्चिम और एकाग्र चीन
एक तरफ जहां चीन दक्षिण चीन सागर में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा था, वहीं यूरोप में रूस और यूरोपीय संघ बार बार टकरा रहे थे. 2014 में रूस ने क्रीमिया को अलग कर दिया. इसके बाद अमेरिका और उसके यूरोपीय साझेदार रूस के साथ उलझ गए. चीन इस दौरान अफ्रीका में अपना विस्तार करता गया.
तस्वीर: imago stock&people
इस्लामिक स्टेट का उदय
2011-12 के अरब वसंत के कुछ साल बाद अरब देशों में इस्लामिक स्टेट नाम के नए आतंकवादी गुट का उदय हुआ. अरब जगत के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने पश्चिम को सैन्य और मानवीय मोर्चे पर उलझा दिया. पश्चिम को आईएस और रिफ्यूजी संकट से दो चार होना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/
वन बेल्ट, वन रोड
2016 चीन ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना शुरू की. जिन गरीब देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कड़ी शर्तों के साथ कर्ज लेना पड़ता था, चीन ने उन्हें रिझाया. चीन ने लीज के बदले उन्हें अरबों डॉलर दिए और अपने विशेषज्ञ भी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/T. Chhin Sothy
हर जगह चीन ही चीन
चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट सहारे अफ्रीका, दक्षिण अमेरका, पूर्वी एशिया और खाड़ी के देशों तक पहुचना चाहता है. इससे उसकी सीधी पहुंच पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक भी होगी और अफ्रीका में हिंद और अटलांटिक महासागर के तटों पर भी.
तस्वीर: Reuters/T. Mukoya
सीन में ट्रंप की एंट्री
जनवरी 2017 में अरबपति कारोबारी डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका के नए राष्ट्रपति का पद संभाला. दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाले ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट का नारा दिया. ट्रंप ने लुक्का छिप्पी की रणनीति छोड़ते हुए सीधे चीन टकराने की नीति अपनाई. ट्रंप ने आते ही चीन के साथ कारोबारी युद्ध छेड़ दिया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Young-joon
पड़ोसी मुश्किल में
जिन जिन पड़ोसी देशों या स्वायत्त इलाकों से चीन का विवाद है, चीन ने वहाँ तक तेजी से सेना पहुंचाने के लिए पूरा ढांचा बैठा दिया. विएतनाम, ताइवान और जापान देशों के लिए वह दक्षिण चीन सागर में है. और भारत के लिए नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
सहयोगियों में खट पट
चीन की बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए ट्रंप को अपने यूरोपीय सहयोगियों से मदद की उम्मीद थी, लेकिन रक्षा के नाम पर अमेरिका पर निर्भर यूरोप से ट्रंप को निराशा हाथ लगी. नाटो के फंड और कारोबारियों नीतियों को लेकर मतभेद बढ़ने लगे.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Nicholls
दूर बसे साझेदार
अब वॉशिंगटन के पास चीन के खिलाफ भारत, ब्रेक्जिट के बाद का ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे साझेदार हैं. अब अमेरिका और चीन इन देशों को लेकर एक दूसरे से टकराव की राह पर हैं.
तस्वीर: Colourbox
कोरोना का असर
चीन के वुहान शहर ने निकले कोरोना वायरस ने दुनिया भर में जान माल को भारी नुकसान पहुंचाया. कोरोना ने अर्थव्यवस्थाओं को भी चौपट कर दिया है. अब इसकी जिम्मेदारी को लेकर विवाद हो रहा है. यह विवाद जल्द थमने वाला नहीं है.
तस्वीर: picture-alliance/Ritzau Scanpix/I. M. Odgaard
चीन पर निर्भरता कम करने की शुरुआत
अमेरिका समेत कई देश यह जान चुके हैं कि चीन को शक्ति अपनी अर्थव्यवस्था से मिल रही है. इसके साथ ही कोरोना वायरस ने दिखा दिया है कि चीन ऐसी निर्भरता के क्या परिणाम हो सकते हैं. अब कई देश प्रोडक्शन के मामले में दूसरे पर निर्भरता कम करने की राह पर हैं.
बीते चार साल में नाटो के लिए बजट योगदान को लेकर सबसे ज्यादा विवाद रहा है. "दो प्रतिशत" की कुख्यात मांग को लेकर अब भी तनाव होगा. थॉमस दे मेजिएरे ने सेंटर फॉर पॉलिसी एनालिसिस में कहा, "बाइडेन प्रशासन हमारे लिए कहीं ज्यादा सख्त होगा क्योंकि उनका अंदाज ज्यादा दोस्ताना हैं." वह कहते हैं कि ट्रंप के अक्खड़ रवैये के कारण चर्चा कभी इतनी गंभीरता से हुई ही नहीं. उन्होंने कहा, "इससे हमारे लिए यहां यूरोप में, जर्मनी में स्थिति ज्याादा मुश्किल होगी.. लेकिन मैं इसका स्वागत करता हूं."
पॉल टेलर भी कहते हैं कि यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि बाइडेन के प्रशासन में सब कुछ बहुत सहज होगा, लेकिन सहयोगी इतना तो उम्मीद कर ही सकते हैं कि मुश्किल वार्ताओं का मतलब लड़ाई करना नहीं होगा. वह कहते हैं, "इसका आधार कुछ तथ्य होंगे. इसका आधार कुछ बुनियादी अवधारणाएं होंगी कि हम मिलकर हालात का सामना कर रहे हैं, कि हम एक साथ ज्यादा मजबूत हैं, कि अमेरिका सिर्फ अकेला नहीं बल्कि अपने सहयोगियों के साथ मिलकर कहीं ज्यादा मजबूत है, और सहयोगी भी अकेले अकेले नहीं बल्कि अमेरिका के साथ मिलकर ज्यादा मजबूत हैं."