भारत में डिजिटल क्रांति एक अलग मकाम तक पहुंच चुकी है. लेकिन दुनिया में ऐसे कई देश हैं जहां आज भी कई बच्चों ने कंप्यूटर को देखा तक नहीं है. बेनिन भी इन्हीं में से एक है.
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पश्चिम अफ्रीकी के बेनिन में 11 साल का एम्ब्रोस पेड़ के निचे बनी पार्किंग की तरफ भागते हुए जा रहा है. आज स्कूल बंद है और उसकी दिनभर की पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है. एम्ब्रोस जिस पेड़ की तरफ भाग रहा है वहां पर एक ट्रक खड़ा है जिसमें काफी सारे कंप्यूटर रखे हुऐ हैं.
पश्चिम अफ्रीका के कई बच्चों ने ना तो कभी कंप्यूटर देखा है और ना ही उसे हाथ लगाया है. इस ट्रक को बनाया है ब्लोलैब नाम की संस्था ने जो कि बेनिन के सबसे बड़े शहर कोटोनोउ का एक गैर लाभकारी संगठन है. 13 मीटर लंबा ये ट्रक 12 सोलर पेनल्स से चलता है. इसमें बच्चों के लिए कई लैपटॉप रखे गए हैं.
ये बच्चे गरीब परिवारों के हैं. यहां आ कर वे कंप्यूटर चलाना सीख सकते हैं. पूर्वी बेनिन के अवरनकोउ जिले में रहने वाले एम्ब्रोज का कहना है, "टीचर ने हमें बताया की हमारी कंप्यूटर क्लास फिर से शुरु होगी. तो मैनें जल्दी से आपना काम खत्म किया क्योंकि मैं बहुत खुश था."
एम्ब्रोज की क्लास में 48 बच्चे हैं जिनमें से सिर्फ चार बच्चों ने ही आज तक लैपटॉप को हाथ लगाया था. एम्ब्रोज ने एक लैपटॉप को फोटोकॉपी की दुकान पर इस्तेमाल किया था और बाकी तीन बच्चों के भाई बहनों के पास लैपटॉप था.
ब्लोलैब के संस्थापक मेडार्ड एगबैजेन ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "शहरों में तो लोगों के पास तकनीक है, उनके पास साइबर कैफे भी हैं. लेकिन गांव में लोगों के पास ना तो कंप्यूटर है और ना ही स्मार्टफोन." उनका कहना है कि बेनिन के लिए "डिजिटल डिवाइड" एक हकीकत है.
एक रिपोर्ट के अनुसार 2018 में बेनिन में केवल 42.2 प्रतिशत लोगों के पास ही इंटरनेट पहुंचा. इनमें से लगभग 96 प्रतिशत मोबाइल फोन के जरिए इंटरनेट से जुड़े. इन परिस्थितियों से ही संस्था को कंप्यूटर वाले ट्रक का विचार आया. इस मोबाइल कक्षा में मेज और गर्मी से बचने के लिए पंखे भी लगे हैं. ट्रक किसी एक जगह पर जाता है और हर हफ्ते दो घंटे की पांच निःशुल्क क्लास दी जाती हैं. संस्था इसे समुद्र में एक बूंद के समान बताती है.
मेडार्ड एगबैजेन ने बताया, "हम बच्चों को कंप्यूटर वैज्ञानिक नहीं बना रहे है. हम चाहते हैं कि बच्चे डिजिटल तकनीक का उपयोग करें. इससे रोजमर्रा की कुछ चुनौतियां भी हल की जा सकती हैं." एक तरफ कुछ बच्चे वर्ड प्रोसेसर पर काम करना सीख रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ बच्चे खराब मशीनों के पुर्जों से कंप्यूटर बनाना सीख रहे हैं. ये पुर्जे कुछ व्यवसायों और दानी संस्थानों ने दिए हैं. छात्रों को पहले की क्लासों से "मदरबोर्ड" और "हार्ड ड्राइव" जैसे शब्दों के बारे में बताया जाता है.
प्रशिक्षक राउल लेटेडे बताते हैं, "बच्चे ये भी सीखते हैं कि बिना पैसे लगाए वे कैसे अपना कंप्यूटर खुद बना सकते हैं." इस मोबाइल क्लास में केवल मुफ्त में उपलब्ध सॉफ्टवेयर का ही इस्तेमाल किया जाता है. "हमारे पास सॉफ्टवेयर खरीदने के पैसे नहीं हैं, इसलिए हम ऐसा करते हैं. हम बच्चों को हैकिंग करना नहीं सिखाना चाहते."
एनआर/आईबी (एएफपी)
दुनिया भर की कक्षाएं
दुनिया भर की कक्षाएं
बच्चे राष्ट्र का भविष्य होते हैं, यह एक सर्वमान्य तथ्य है. बेहतर प्राथमिक शिक्षा तय करती है कि देश की प्रगति कैसी होगी. एक नजर दुनिया भर के प्राथमिक स्कूलों की कक्षाओं पर.
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स्कूल का अर्थ
दुनिया भर में छात्र कैसे सीखते हैं? हर जगज टीचर ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखते हैं, लेकिन इसके बावजूद कक्षाओं में अंतर दिखता है. कुछ जगह नन्हे छात्र बाहर कामचलाऊ बेंचों पर बैठते हैं, तो कहीं जमीन पर पद्मासन की मुद्रा में और कहीं लैपटॉप के सामने.
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डिजिटल टेक्स्टबुक
दक्षिण कोरिया की शिक्षा प्रणाली में डिजिटल मीडिया का अत्यधिक चलन है. हर कक्षा में कंप्यूटर और इंटरनेट मौजूद होता है. सरकार किताबों की जगह ई-बुक्स इस्तेमाल करना चाहती है. इसे बढ़ावा देने के लिए गरीब से गरीब परिवार को भी टेबलेट पर्सनल कंप्यूटर मुफ्त दिये जा रहे हैं.
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देहाती इलाकों को नुकसान
किताबों और चार्टों को डिजिटलाइज किया जा सकता है लेकिन सीखने का तरीका मानव स्वभाव का हिस्सा है और इसे डिजिटलाइज नहीं किया जा सकता. छह साल तक स्कूली पढ़ाई मुफ्त करने के बाद घाना में अब सारक्षता का स्तर काफी ऊंचा हो चुका है. वैसे तो वहां स्कूल की पढ़ाई नौ साल की है, लेकिन देहाती इलाकों के स्कूली बच्चे पढ़ाई के बावजूद आधिकारिक भाषा अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं.
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मुश्किल शुरूआत
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर प्राथमिक शिक्षा की अनदेखी के आरोप लगते हैं, लेकिन आरोप लगाने वाले भी जानते हैं कि हालात आज भी बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं. ग्रामीण इलाकों में प्राइमरी स्कूलों की दशा दयनीय है, ज्यादातर स्कूलों में शौचालय तक नहीं हैं. कई इलाकों में एक से पांचवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए सिर्फ एक या दो शिक्षक मौजूद रहते हैं.
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टचपैड पर लिखने की सीख
जर्मनी के इस स्कूल में नन्हे बच्चे पेंसिल से कॉपी पर लिखना नहीं सीखते. यहां लिखने के लिए स्मार्टबोर्ड का इस्तेमाल किया जाता है. कोशिश है कि बच्चे तकनीक के साथ घुलें मिलें.
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औद्योगिक देशों में प्राथमिक शिक्षा
औद्योगिक देशों में स्कूल का मतलब प्राथमिक शिक्षा से कहीं ज्यादा है. अमेरिका के आयोवा में ये चार साल के बच्चे अपने टीचर को ध्यान से सुन रहे हैं. औद्योगिक देशों में 70 फीसदी बच्चे प्राथमिक स्कूल से पहले किंडरगार्डेन में कुछ कुछ सीखना शुरू कर देते हैं. कम आय वाले देशों में 20 में से सिर्फ तीन ही बच्चों को ऐसी सुविधा मिल पाती है.
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पैसे की कमी का असर
केन्या में सभी बच्चों के लिए आठ साल की स्कूली शिक्षा नि:शुल्क है. लेकिन इसके बावजूद सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. कई अभिभावकों के लिए स्कूल की पोशाक, जूते, किताबें, कॉपिया और पेन जुटाना मुश्किल होता है. सरकारी स्कूलों में भारी भीड़ के बावजूद पढ़ाई लिखाई के लिए अच्छा माहौल नहीं है. ठीक ठाक कमाई वाले लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं.
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पढ़ाई स्कूल की यूनिफॉर्म में
इंग्लैंड में ज्यादातर बच्चे यूनिफॉर्म में स्कूल जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि यूनिफॉर्म के जरिए बच्चे खुद को स्कूल की पहचान से जोड़ पाते हैं और बेहतर ढंग से सीखते हैं. लेकिन विकास करते देशों में जो लोग अपने बच्चों के लिए यूनिफॉर्म नहीं खरीद सकते, वो सरकारी मदद की आस में रहते हैं.
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खुले में कक्षा
स्कूल तो बच्चे तब जाएंगे जब स्कूल होगा. पाकिस्तान के कुछ इलाकों में बच्चों को सार्वजनिक पार्कों में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तान ने शिक्षा पर खर्च घटाया है. देश शिक्षा के बजाए सेना पर ज्यादा खर्च करता है.
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आधारभूत शिक्षा के लिए संघर्ष
अफगानिस्तान की आबादी का अच्छा खासा हिस्सा बिना किसी शिक्षा के बड़ा हुआ है. देश में तालिबान के शासन के दौरान छिड़े गृह युद्ध के चलते ऐसा हुआ. अफगानिस्तान की सिर्फ 25 फीसदी महिलाएं ही साक्षर हैं. पुरुषों में सारक्षता 52 फीसदी है. देश में अब भी पर्याप्त स्कूल, शिक्षक और सामग्री का अभाव है.
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पिछड़ती बेटियां
ऐसे ही हालात दक्षिण सूडान में भी हैं, जहां सिर्फ 16 फीसदी महिलाएं साक्षर हैं. विदेशी मदद संगठन यहां लड़कियों को शिक्षित करने पर जोर दे रहे हैं. लंबे गृह युद्ध का असर यहां के स्कूलों पर पड़ा है. कुछ ही स्कूल सुरक्षित बचे हैं और उनमें भी फर्नीचर का अभाव है. किताबें भी आधे स्कूलों के पास हैं.
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विशाल अंतर
ब्राजील के दूर दराज के इलाकों के स्कूल भी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. ब्राजील को तेजी से औद्योगिक होता देश कहा जाता है लेकिन इसके बावजूद वहां अमीर और गरीब का फासला फैलता जा रहा है. पूर्वोत्तर ब्राजील में खेती करने वाले आज भी बेहद गरीबी में जी रहे हैं.