ट्रांसजेंडरों के लिए दुधारी तलवार बना एनआरसी
१३ नवम्बर २०१९जिन लोगों के नाम एनआरसी में शामिल हुए भी हैं वह या तो पुरुष के तौर पर हैं या फिर महिला के तौर पर. ऐसे तमाम लोगों की उम्मीदें अब सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं. असम ट्रांसजेंडर एसोसिएशन (एएटीए) ने सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की एक याचिका दायर की थी जो अब तक लंबित है. राज्य में 20 हजार ट्रांसजेंडर हैं.
ट्रांसजेंडरों की समस्याएं
आम लोगों की मानसिकता और समाज के रवैये की वजह से ट्रांसजेंडरों को अमूमन कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. अब असम में बनी एनआरसी की अंतिम सूची ने इस समुदाय के लोगों की समस्याओं को और जटिल बना दिया है. बीते दिनों प्रकाशित इस सूची में 19.06 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं थे. ऐसे में सूची से बाहर रहने वाले तमाम लोग अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे हैं. लेकिन समाज में पहले से ही हेय दृष्टि से देखे जाने वाले ट्रांसजेंडरों की मुसीबतें आम लोगों के मुकाबले कई गुना बढ़ गई हैं. राज्य में सर्बानंद सोनोवाल के नेत्तृत्व वाली बीजेपी सरकार ने जहां सूची से बाहर रहे लोगों को कानूनी सहायता मुहैया कराने का भरोसा दिया है, वहीं इस तबके के लोगों के लिए यह सहायता भी दुर्लभ है. अब इन ट्रांसजेंडरों की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं. एनआरसी की कवायद से ट्रांसजेंडरों के समक्ष पैदा होने वाली समस्याओं का ब्योरा देते हुए बीते साल सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी. लेकिन अब तक उस पर सुनवाई नहीं शुरू हो सकी है.
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले ऑल असम ट्रांसजेंडर एसोसिएशन (एएटीए) की दलील है कि एनआरसी से बाहर होने की वजह से इस समुदाय के लोगों में आतंक पैदा हो गया है. यह लोग अब इस डर के मारे सड़कों पर नहीं निकलते कि कहीं सरकारी अधिकारी उनको पकड़ कर विदेशी घोषित करते हुए डिटेंशन सेंटर में ना भेज दें. एसोसिएशन की संस्थापक और असम की पहली ट्रांसजेंडर जज रहीं स्वाति विधान बरुआ कहती हैं, "भीख मांगना ही इस तबके के लोगों का प्रमुख पेशा है लेकिन अब डर की वजह से यह लोग सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं. अब इस तबके के लोग महज शादी-ब्याह या बच्चे होने पर ही वहां नाच-गा कर बख्शीश वसूलते हैं.”
बरुआ बताती हैं कि ज्यादातर ट्रांसजेंडरों से उनके परिजनों ने नाता तोड़ लिया है. ऐसे में इन लोगों के पास अपनी पहचान और नागरिकता का कोई दस्तावेज नहीं है. उन्होंने बताया कि एनआरसी तैयार होने के बाद आपत्तियों के लिए किए जाने वाले आवेदन में भी लिंग में अन्य वर्ग का कोई जिक्र नहीं था.
स्वाति बरुआ पहली बार वर्ष 2017 में उस समय सुर्खियों में आई थीं जब उन्होंने नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (नालसा) के वर्ष 2014 के फैसले को असम में समुचित तरीके से लागू करने के लिए गुवाहाटी हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. बरुआ कहती हैं, "एनआरसी में ट्रांसजेंडरों के लिए कोई अलग कॉलम नहीं था. संबंधित अधिकारियों ने इस समुदाय के लोगों को अपने लिंग के तौर पर पुरुष या महिला स्वीकार करने पर मजबूर किया था. उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट हमारी याचिका पर सुनवाई के दौरान इस पहलू पर सहानुभूति के साथ विचार करेगा.” बरुआ इस समस्या के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराती हैं. वह कहती हैं, "सरकार ने अगर इस समुदाय के लोगों को नाम और लिंग परिवर्तन की सुविधा मुहैया कराई होती तो आज परिस्थिति इतनी जटिल नहीं होती. इस समुदाय के लोगों को पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और दूसरे कागजात मुहैया कराने की जिम्मेदारी राज्य सामाजिक कल्याण बोर्ड की थी. लेकिन उसने अब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं की है.”
वह कहती हैं कि बीते 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद ट्रंसजेंडर समुदाय के लोग पकड़े जाने के डर से पत्रकारों से भी बातचीत नहीं कर रहे हैं. यह लोग बेहद आतंकित हैं. उको लगता है कि सरकार देखते हुए उनको पकड़ कर डिटेंशन सेंटर में भेज देगी.
राजधानी गुवाहाटी में एक ट्रांसजेंडर जोआना (बदला हुआ नाम) बताती हैं, "मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि परिवार के साथ मेरे रिश्ते कायम हैं. इसलिए एनआरसी की सुनवाई के दौरान नागरिकता संबंधी दस्तावेज पेश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. लेकिन जिन लोगों के घरवालों ने उनसे नाता तोड़ लिया है उनके लिए यह भारी समस्या है.”
एसोसिएशन का कहना है कि वर्ष 2011 में जहां राज्य में ट्रांसजेंडरों की तादाद 11,374 थी वहीं अब यह बढ़ कर 20 हजार तक पहुंच गई है. लेकिन महज दो सौ ट्रांसजेंडरों के ही अपने घरवालों से संपर्क है.
दूसरी ओर, राज्य सरकार ने एक बयान में कहा है कि एनआरसी तैयार करने में सबके लिए समान प्रक्रिया अपनाई गई है. सूची से बाहर रहे लोग विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष अपील कर सकते हैं.
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