भारत में किसी से भी पूछिए ट्रेन के लेट होने की गाथा सुना देगा. आम लोगों का भरोसा ही खत्म हो गया है कि ट्रेन समय पर चल सकती है. जर्मनी में जर्मन रेल लेट होने पर यात्रियों को हर्जाना दे रही है.
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कभी भारत में भी लोग ट्रेन के आने से अपनी घड़ी की सूई मिलाते थे. लेकिन गए वो जमाने. अब किसी ट्रेन का कोई लिहाज नहीं रहा. आम ट्रेन के लिए भी राजधानी को रोक दिया जाता है. ट्रेन का टाइम टेबल भी सामान्य व्यक्ति की समझ से बाहर है.
एक ही रास्ते को तय करने में अलग अलग ट्रेन को अलग समय लगता है. इसलिए अक्सर कई ड्राइवर तय रफ्तार से तेज चलाते हैं. ट्रेन में सीट मिलने की हालत इतनी बुरी है कि बिहार के शहरों से दिल्ली जैसे सैकड़ों मील दूर शहरों के लिए बसें चलाई जा रही हैं जो 24-24 घंटे का समय लेती है और आरामदेह तो कतई नहीं है.
भारत में रेल के बिना सार्वनजिक परिवहन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. लेकिन 21वीं सदी में ऐसे कई देश हैं जहां रेलवे नेटवर्क नहीं है. डालते हैं इन्हीं पर एक नजर.
पिछले दिनों मैं बिहार में था. कटिहार से दिल्ली के लिए राजधानी लेनी थी. कटिहार रेलवे का वो स्टेशन है जहां आसपास की जगहों से आकर लोग राजधानी पकड़ते हैं. ट्रेन लेट थी. हो सकती है. लेकिन दिलचस्प बात ये थी कि किसी को, न तो कटिहार स्टेशन पर और न ही आसपास के स्टेशनों पर पता था कि ट्रेन कितनी लेट है. यात्री के पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि वह समय पर आ जाए और फिर इंतजार करता रहे. ये इंतजार कभी कभी कई घंटों का हो सकता है.
ऐसा नहीं है कि ट्रेन के लेट होने की समस्या सिर्फ भारत की है. पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरील रामाफोसा का भी अपने देश में रेल की हकीकत से सामना हुआ. संसदीय चुनावों से दो महीने पहले वे पत्रकारों के जखीरे के साथ प्रचार अभियान पर थे लेकिन माबोपाने टाउनशिप में पहले तो उन्हें एक घंटे तक ट्रेन के आने का इंतजार करना पड़ा और फिर जब ट्रेन आई तो उसने 45 मिनट का रास्ता तय करने के लिए तीन घंटे लिए. जैसे कि यात्रियों के समय की कोई कीमत नहीं. ट्रेन से सफर करना उनकी मजबूरी हो.
विकासशील देशों में अक्सर रेल के सरकारी होने को इसका दोष दिया जाता है या फिर ये कहा जाता है कि यात्रा के साधन पर एकाधिकार होने के वजह से ऐसा होता है. लेकिन देरी की समस्या जर्मनी जैसे विकासित देशों की भी है. रेल यहां भी दूसरे देशों की तरह सरकारी है. यहां भी देरी एक मुद्दा है. जर्मनी में अब तक पांच मिनट से कम की देरी को नजरअंदाज किया जाता था और उससे ज्यादा की देरी को देरी माना जाता था. अब इसे बढ़ाकर 15 मिनट कर दिया गया है. इसकी कड़ी आलोचना हो रही है.
कोलकाता और उसके आसपास के इलाकों में चलने वाली मातृभूमि लोकल खास तौर से महिलाओं की ट्रेन है. पुरुषों को इस पर चढ़ने की इजाजत नहीं. और इसी को लेकर अकसर झगड़ा होता रहा है.
तस्वीर: DW/P. Samanta
रेल अकेला विकल्प
भारत में रेल को देश की जीवनरेखा कहा जाता है. पश्चिम बंगाल में बहुत सी महिलाएं भी आने जाने के लिए भारतीय रेल पर निर्भर हैं.
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केवल महिलाएं
भारतीय ट्रेनों में महिलाओं के लिए अलग से डिब्बे भी होते हैं. लेकिन उनमें भीड़ खूब होती है. कई बार तो सिर्फ खड़े होने के लिए ही जगह मिलती है.
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कहासुनी
महिला डिब्बों में पर्याप्त जगह न होने के कारण अकसर महिलाओं को सामान्य डिब्बों में सफर करना पड़ता है. ऐसे में, कई बार पुरूषों से उनकी कहासुनी भी होती है.
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आपाधापी
भारतीय रेलवे स्टेशनों पर ऐसा नजारा आम है. भीड़, धक्का-मुक्की और रेलमपेल रोजमर्रा की बात है. इस आपाधापी में कई बार कोई अनहोनी भी हो जाती है.
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मातृभूमि का इंतजार
महिलाओं को होने वाली परेशानियों के मद्देनजर कोलकाता में उनके लिए मातृभूमि लोकल के नाम से अलग ट्रेन चलाने के बारे में सोचा गया.
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आरामदायक सफर
2010 में तत्कालीन रेल मंत्री और पश्चिम बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल पर पूर्व रेलवे ने मातृभूमि स्पेशल नाम से महिलाओं के लिए विशेष ट्रेनें चलायीं.
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टकराव
दूसरी ट्रेनें जहां खचाखच भरी होती हैं, वहीं मातृभूमि लोकल में सीटें भी पूरी नहीं भरतीं. इसीलिए अकसर पुरुष इस ट्रेन को लेकर भेदभाव की शिकायत करते हैं.
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विरोध
2015 में इस ट्रेन के तीन डिब्बों को जनरल कोच बनाकर उसमें पुरूषों को सफर करने की अनुमति दे दी गयी. लेकिन महिलाओं के भारी विरोध के बाद इसे फिर से लेडीज स्पेशल करना पड़ा.
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पुरूषों की मांग
नाराज पुरूष यात्रियों का कहना है कि या तो मातृभूमि को बंद किया जाये या फिर उनके लिए पितृभूमि लोकल नाम से नई सेवा शुरू की जाये. इस मुद्दे पर खूब खींचतान होती रही है.
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कड़ी सुरक्षा
हाल के सालों में महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है. ट्रेनों में कई बार महिलाओं से बदसलूकी के मामले सामने आते हैं. लेकिन मातृभूमि लोकल मनचलों से मुक्त है.
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सुविधा
रोजाना उपनगरीय इलाकों से हज़ारों महिलाएं नौकरी और दूसरे कामकाज के सिलसिले में सुबह-सुबह इसी ट्रेन से कोलकाता पहुंचती हैं. महिलाओं का कहना है कि मातृभूमि लोकल के कारण बहुत सुविधा है.
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जर्मनी में विमानों या ट्रेनों के लेट होने पर उन्हें मुआवजा दिया जाता है. इससे विमान कंपनियों के अनुशासन में सुधार आया है. लेकिन अब तक जर्मन रेल पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ है क्योंकि जटिल प्रक्रिया के कारण ज्यादातर लोग अपना मुआवजा नहीं लेते. फिर भी पिछले साल डॉयचे बान ने रिकॉर्ड मुआवजा दिया. 27 लाख यात्रियों को 5 करोड़ 36 लाख यूरो का मुआवजा दिया गया. अब जर्मन रेलवे मुआवजा आवेदन को ऑनलाइन करने जा रहा है.
जर्मन रेल है तो सरकार की मिल्कियत लेकिन वह गैर सरकारी अर्थव्यवस्था के नियमों से चलती है. अब ट्रेनों की देरी और यात्रियों को मुआवजा देने के मामले में जर्मन रेल पर परिवहन मंत्रालय के अलावा उपभोक्ता मंत्रालय का भी दबाव है. परिवहन मंत्री तो मुआवजे की ऑटोमैटिक प्रक्रिया की मांग कर रहे हैं ताकि यात्रियों को कोई आवेदन न देना पड़ें. ये दबाव यात्रियों के अधिकारों की गारंटी के साथ रेल को आनुशासित होने में भी मदद देगा.
मुआवजे का आयडिया भारत के लिए बुरा नहीं होगा. रेल के अधिकारी यात्रियों को ग्राहक समझ सकेंगे.
इस्राएल ने चलाई तेज रफ्तार ट्रेन
दो अरब डॉलर के खर्च वाली इस रेल परियोजना की फलस्तीन ने यह कहते हुए आलोचना की है कि इसका रूट कब्जे वाले पश्चिमी तट के कई छोटे छोटे हिस्सों से गुजरता है.
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आसान हुआ सफर
ट्रेन के कारण बेन गुरियोन एयरपोर्ट से येरूशलेम तक 20 मिनट में पहुंचा जा सकता है. सड़क मार्ग से यह दूरी तय करने में कम से कम 40 मिनट लगते हैं.
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तेज रफ्तार
160 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली ट्रेन पर्वतों के बीच सुरंगों और पुलों से गुजरती एयरपोर्ट से येरूशलेम के बीच का 40 किलोमीटर का सफर तय करती है.
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विवादित रूट
ट्रेन का रूट फलीस्तीन के बेत सुरिक गांव और लातरून वैली के पास के इलाके से हो कर गुजरता है. इस इलाके पर 1967 के मध्यपूर्व की लड़ाई में इस्राएल ने कब्जा कर लिया था. ट्रेन में इस्रायली प्रधानमंत्री
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25 साल पुरानी योजना
येरूशलेम और तेल अवीव के बीच तेज ट्रेन चलाने की योजना 1995 में बनी थी. 2005 में इस पर काम शुरू हुआ और पैसों के साथ साथ पर्यावरण की चिंताओं ने इसमें काफी देर लगाई.
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डबल डेकर ट्रेन
दो मंजिलों वाली ट्रेन में फिलहाल 400 यात्री सफर कर सकते हैं. पूरी क्षमता के साथ रेल सेवा चालू होने पर ट्रेन इससे तीन गुना ज्यादा यात्रियों को लेकर जा सकेगी.
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80 मीटर नीचे प्लेटफॉर्म
येरूशलेम में जमीन के भीतर ट्रेन स्टेशन बनाया गया है. इसकी गहराई करीब 80 मीटर है. यात्रियों में नई रेल सेवा को लेकर काफी उत्साह है.
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आधे घंटे में
योजना जब पूरी हो जाएगी तब तेल अवीव से येरूशलेम शहर के बीच की दूरी आधे घंटे से कम समय में पूरी होगी. फिलहाल इस दूरी को तय करने में एक घंटे से ज्यादा लगता है.
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योजना का विस्तार
दोनों शहरों के बीच ट्रेन का रूट कुल 60 किलोमीटर का होगा. तेल अवीव एयरपोर्ट से आगे का नेटवर्क अभी तैयार नहीं है. यह कब चालू होगा इसके बारे में तारीखों का एलान टलता रहता है.