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डरबन में पर्यावरण के लिए रोडमैप पर रजामंदी

११ दिसम्बर २०११

दुनिया के देश पर्यावरण बचाने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार सभी देशों को एक समझौते पर पहुंचाने में कामयाब. दक्षिण अफ्रीकी शहर डरबन में चली मैराथन बातचीत का नतीजा.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण में बदलाव रूपरेखा सम्मेलन(यूनएफसीसीसी) के तहत 14 दिन तक चली लंबी बातचीत के बाद यह रजामंदी हासिल हुई है. अगर कोई बाधा नहीं आई तो 2015 में इस समझौते को मंजूरी मिल जाएगी और उसके 5 साल बाद यह लागू भी हो जाएगी. पर्यावरण में बदलावों को रोकने के लिए प्रस्तावित जंग में यह समझौता सबसे बड़ा हथियार होगा. फोरम ने ग्रीन क्लाइमेट फंड जुटाने का अभियान भी शुरू किया है. इसके तहत गरीब मुल्कों की मदद के लिए 2020 तक हर साल 100 अरब डॉलर की रकम जुटाई जाएगी.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

डरबन में जमा हुए देशों की बातचीत की अध्यक्षता कर रहे दक्षिण अफ्रीकी विदेश मंत्री न्कोआना माशाबेन ने कहा, "मेरे मानना है कि डरबन में जो हमने हासिल किया है वह कल को बचाने में प्रमुख भूमिका निभाएगा." इस सहमति पर पहुंचने के लिए दुनिया के 194 देशों के बीच ढाई दिनों लगातार बातचीत हुई. यूएनएफसीसीसी के मानकों के हिसाब से भी इस बैठक ने समय सीमा को पार करने में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. इस बातचीत को शुक्रवार को ही खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन शनिवार को दिन ढलने के बाद भी बातचीत चलती रही.

इस दौरान जो जोरदार बहस हुए उससे साफ हो गया कि कई देशों में उर्जा हासिल करने और स्वच्छ उर्जा के दोबारा इस्तेमाल होने वाले स्रोतों तक पहुंचने की कितनी चिंता है, खासतौर से ऐसे वक्त में जब आर्थिक संकट से उनके कमर कसे हुए हैं. यूएनएफसीसीसी की प्रमुख क्रिस्टियाना फिगेरेस तो इससे बेहद खुश नजर आईं. नेल्सन मंडेला के शब्दों बोलते हुए उन्होंने ट्विटर पर लिखा है, "मंडेला के सम्मान में: जब तक हो न जाए तब तक यह असंभव दिखता है और अब यह हो गया."

तस्वीर: DW

अमेरिका के प्रमुख वार्ताकार टॉड स्टर्न ने कहा, "मेरे ख्याल से यह बहुत अच्छी तरह पूरा हो गया. पहली बार आप विकासशील देशों को रजामंद होते हुए देखेंगे और वो भी तब जबकि यह कानूनी रूप से बाध्यकारी होगा." यूरोपीय वातावरण आयुक्त कोनी हेडेगार्ड ने कहा कि इस समझौते ने पिछले 20 सालों में आए बदलाव को सामने रख दिया है. उस वक्त पहली बार दुनिया ने पर्यावरण के बदलावों से निबटने के बारे में सोचा और यह माना कि केवल अमीर देश कार्बन की बाधा से जुड़े हुए हैं. दुनिया के चार उभरती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन का जिक्र करते हुए कोनी हेडेगार्ड ने कहा, "बेसिक देशों ने यह मानने की दिशा में कुछ अहम कदम उठाए हैं कि 21वीं सदी की दुनिया वैसे नहीं है जैसी 20वीं सदी की थी."

कांफ्रेंस के दौरान वैज्ञानिकों ने कड़ी चेतावनियां भी जारी की और बताया कि आने वाली नस्लों को पांव खींचने की कीमत चुकानी पड़ेगी. वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण करने के सारे उपाय करने के बाद भी दुनिया के बढ़ते तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोक पाने में कामयाबी नहीं मिल पाई है. जर्मन वैज्ञानिकों के रिसर्च के मुताबिक दुनिया का तापमान 3.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की ओर जा रहा है. नतीजा यह होगा कि करोड़ों लोगों को सूखा, बाढ़, आधी और समुद्र तल के बढ़ने के संकट से जूझना पड़ेगा.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

यूरोपीय संघ ने विकासशील और छोटे महाद्वीपीय देशों से एकजुट होने की अपील की है. आपस में यह मिल कर दुनिया के देशों का दो तिहाई हिस्सा बनाते हैं और फिर इन्होंने खेमेबंदी कर चीन, अमेरिका और भारत से समर्थन देने को कहा. चीन और भारत पिछले छह सालों में कार्बन उत्सर्जित करने वाले बड़े देश बन गए हैं.  इन लोगों पर क्योटो संधि की प्रतिबद्धताएं नहीं हैं क्योंकि ये विकासशील देश हैं. दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जित करने वाला देश अमेरिका पर भी इसका बंधन नहीं हैं क्योंकि उसने क्योटो संधि को मानने से इनकार कर दिया.

डरबन समझौते की मुख्य सफलता यही है कि इसने तीन बड़े विरोधियों को इसकी बातों पर सहमत कर लिया है.हालांकि सारी बाधाएं पार कर ली गई हों ऐसा भी नहीं है पर्यवेक्षकों का मानना है कि 2015 में होने वाली बातचीत भी काफी मशक्कत भरी होगी.

रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन

संपादनः मानसी गोपालाकृष्णन

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