असम में जारी हैं डायन के नाम पर होने वाली हत्याएं
२ दिसम्बर २०१९असम में सरकार की तमाम कोशिशों और कानून के बावजूद डायन के नाम पर होने वाली हत्याएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं. सामाजिक संगठनों के मुताबिक यह आंकड़ा असल में बहुत ज्यादा है. कई मामले पुलिस या प्रशासन तक नहीं पहुंचते. ऐसी घटनाओं के खिलाफ आम लोगों को जागरुक करने के लिए वर्ष 2001 में ही 'प्रोजेक्ट प्रहरी' शुरू करने वाले असम के पूर्व पुलिस महानिदेशक कुलधर सैकिया कहते हैं, राज्य के खासकर आदिवासी इलाकों में लोगों में अंधविश्वास काफी गहरे तक रचा-बसा है. ऐसे में महज कानून से इस कुप्रथा पर अंकुश लगाना संभव नहीं होगा.
कहां सामने आए सबसे ज्यादा मामले
पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले असम में डायन के नाम पर होने वाली हत्याएं अक्सर सामने आती हैं. राज्य में बढ़ते ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए बीते साल ही सरकार ने एक नया कानून बनाया था जिसमें इन घटनाओं के अभियुक्तों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है. उससे पहले तक इन घटनाओं को सामान्य हत्या की श्रेणी में रखा जाता था. नतीजतन ऐसे मामलों का ठोस आंकड़ा मिलना मुश्किल था.
अब सरकार ने भी स्वीकार किया है कि तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसी घटनाएं पूरी तरह नहीं थमी हैं. असम के संसदीय कार्य मंत्री चंद्र मोहन पटवारी ने हाल ही में राज्य विधानसभा में बताया कि असम में बीते आठ वर्षों में डायन बता कर 107 लोगों की हत्या करने के मामले सामने आए हैं. एक लिखित सवाल के जवाब में उन्होंने बताया, "वर्ष 2011 से मई 2016 तक इन घटनाओं में 80 लोगों की मौत हुई है. वर्ष 2016 में राज्य में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के सत्ता में आने के बाद से इस साल अक्तूबर तक 23 और लोगों की मौतें हुईं हैं.”
पटवारी ने बताया कि राज्य सरकार ने बीते साल अक्तूबर में असम विच हंटिंग (निषेध, रोकथाम और संरक्षण) अधिनियम, 2015 को अधिसूचित किया था और उसके बाद से ही सरकार अंधविश्वास के खिलाफ जागरूकता अभियान चला रही है. मंत्री का कहना था कि बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट्स (बीटीएडी) क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले कोकराझाड़ (22), चिरांग (19) और उदालगुड़ी (11) जिलों में ऐसी सबसे ज्यादा हत्याएं हुई हैं.
दो साल पहले आई एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2001 से 2017 के बीच राज्य में डायन के नाम पर कुल 193 लोगों को मार दिया गया. उनमें से 114 महिलाएं थी और 79 पुरुष. लेकिन सामाजिक संगठनों का कहना है कि राज्य के चाय बागान इलाकों से ऐसे ज्यादातर सामने पुलिस और प्रशासन के सामने नहीं पहुंच पाते. ऐसे में डायन के नाम पर होने वाली हत्याओं का आंकड़ा सरकारी आंकड़ों के मुकाबले बहुत ज्यादा है.
ओझा और झाड़फूंक वालों की मान्यता
दरअसल, राज्य के चाय बागान इलाकों में अब भी आदिवासी मजदूर ही काम करते हैं. छोटी-बड़ी बीमारियों या परेशानी की स्थिति में इन बागानों के लोग मौजूदा दौर में भी सरकारी या निजी अस्पतालों की बजाय ओझा या झाड़-फूंक करने वालों की ही शरण में जाते हैं. ऊपरी असम के एक चाय बागान मजदूर पिता के पुत्र अजय ओरांव फिलहाल बंगाल में नौकरी करते हैं. ओरांव बताते हैं, "चाय बागान इलाकों के लोग ओझा को भगवान की तरह मानते हैं. ओझा के मुंह से निकली बात उनके लिए पत्थर की लकीर होती है. अगर ओझा ने किसी को डायन करार दिया तो उस महिला या पुरुष की खैर नहीं. लोग सरे आम उसकी हत्या कर देते हैं.” वह बताते हैं कि आदिवासियों में इतनी एकता है कि डायन के नाम पर लोगों की मौत की बात चाय बागान से बाहर नहीं जाती. पूरा इलाका अपनी जुबान सिल लेता है.
ओरांव बताते हैं कि डायन के नाम पर फले-फूले अंधविश्वास का लाभ उठा कर कई लोग अपनी निजी दुश्मनी भी निपटा लेते हैं. डायन के नाम पर होने वाली ज्यादातर हत्याएं या संपत्ति के लिए होती हैं या फिर पीड़ित के पास रखी रकम हड़पने लेने के लिए.
पुलिस के एक अधिकारी बताते हैं, "ऐसी ज्यादातर घटनाएं चाय बागानों की मजदूर कालोनियों में होती हैं. लेकिन आदिवासी लोग या बागान प्रबंधन पुलिस को इसकी सूचना नहीं देता. ऐसे में पुलिस के पास हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा कोई चारा नहीं हैं.” डिब्रूगढ़ के पास आदिवासी इलाकों में डायन हत्या के खिलाफ जागरुकता अभियान चलाने वाले राहुल सुतबंशी कहते हैं, "चाय बागानों की अपनी अलग ही दुनिया होती है. इनका बाहरी दुनिया से ज्यादा संपर्क नहीं होता. इसके अलावा वहां ताकतवर यूनियन होती है जिनके पुलिस व प्रशासन के साथ मधुर संबंध होते हैं. चाय बागान मालिक भी पैसे वाले होते हैं. बदनामी के डर से ऐसे ज्यादातर मामले ले-देकर दबा दिए जाते हैं.”
कहानियों की मदद से जागरुकता अभियान
इस साल 30 नवंबर को पुलिस महानिदेशक पद से रिटायर होने वाले कुलधर सैकिया ने वर्ष 2001 में कोकराझाड़ के पुलिस अधीक्षक पद पर रहने के दौरान डायन हत्या की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्रोजेक्ट प्रहरी शुरू किया था. तब वहां एक ही दिन में पांच लोगों को मार दिया गया था. फिलहाल लगभग सौ आदिवासी गांव इस परियोजना के तहत शामिल हैं. सैकिया कहते हैं, "लोगों में जब तक अंधविश्वास कायम रहेगा, डायन के नाम पर हत्याएं होती रहेंगी.”
सैकिया की पहल पर ही बीते महीने असम पुलिस ने 11 प्रेरणादायक कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित किया था. छात्रों में जागरुकता फैलाने के मकसद से ‘द लिटिल सेटिनल्स' शीर्षक उक्त पुस्तक की प्रतियां स्कूलों में मुफ्त बांटी जा रही हैं. पूर्व पुलिस महानिदेशक कहते हैं, "बच्चों को नशीली दवाओं के कारोबार, सामाजिक पूर्वाग्रह और डायन हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों से अवगत कराना हमारी जिम्मेदारी है. इसके लिए कहानियों से बेहतर दूसरा कोई तरीका नहीं हो सकता.”
वह कहते हैं कि बीते साल डायन हत्या के खिलाफ बना कानून असरदार है. लेकिन यह बात याद रखनी चाहिए कि डायन हत्या जैसी सामाजिक बुराई अंधविश्वास पर कायम है और इससे सामाजिक रूप से ही निपटा जा सकता है. वर्ष 2011 से ही राज्य में डायन-हत्या विरोधी अभियान चलाने वाले संगठन मिशन बीरूबाला के डॉ. नाट्यबीर दास कहते हैं, "डायन के नाम पर होने वाली हत्याओं की गहराई में जाने पर ज्यादातर मामलों के पीछे पारिवारिक विवाद, संपत्ति विवाद और ईर्ष्या जैसे कारण होते हैं.”
संगठन ने बीते अगस्त से राज्य के नगांव, कोकराझाड़ और चिरांग जैसे उन इलाकों में नए सिरे से जागरुकता अभियान शुरू किया है जहां डायन के नाम पर सबसे ज्यादा हत्याएं होती हैं. राज्य में सबसे ताजा घटना भी चिरांग जिले में ही हुई थी. इस अभियान में संगठन को असम पुलिस का भी सहयोग मिल रहा है. इसके तहत पोस्टर व पर्चे तो बांटे ही जा रहे हैं, नुक्कड़ नाटकों और लघु नाटिकाओं का भी आयोजन किया जा रहा है. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में वृत्तचित्र भी दिखाए जा रहे हैं. इनमें डायन प्रथा को सामाजिक बुराई बताते हुए उससे दूर रहने की हिदायत दी जा रही है.
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