अब कब्रगाहों से जुड़ी ऐप और समाधियों पर लिखे क्यूआर कोड लोगों को मरने के बाद भी वर्चुअल दुनिया में जिंदा रखेंगे.ये कोड लोगों को मरने वालों के बारे में बताएंगे, लेकिन जानकारों को डाटा सुरक्षा की चिंता सताने लगी है.
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अकसर आपने अपने फोन और वेबसाइड पर 'क्यूआर' कोड बने देखे होंगे. सफेद पृष्ठभूमि पर काले रंग के चौकोर डिब्बे जैसे बनी ऐसी आकृतियां क्यूआर कोड कहलाती हैं, जिसे इमेजिंग डिवाइस मसलन कैमरे या फोन से पढ़ा जा सकता है. ये कोड उपभोक्ताओं को सही वेबसाइट पर ले जाने के लिए अकसर डिजिटल विज्ञापनों में नजर आते हैं. लेकिन अब ऐसे कोड समाधियों और कब्रों पर भी नजर आ रहे हैं.
कब्र पर लगे पत्थरों पर अमूमन नाम, जन्म और मरण की तारीख जैसी थोड़ी बहुत जानकारी ही होती है. लेकिन अब इन क्यूआर कोड से जुड़ी वेबसाइट एक ऐसा वर्चुअल स्पेस है जहां रिश्तेदार और दोस्त मरने वाले व्यक्ति से जुड़ी कहानियां, फोटो और यादें साझा कर सकते हैं. इसके अलावा अंतिम संस्कार के वक्त दिए गए श्रद्धांजलि संदेश को भी पढ़ा जा सकता है.
इस मामले में जर्मन लोग फिलहाल पीछे हैं. एसोसिएशन ऑफ जर्मन सेमिट्री एडमिनिस्ट्रेटर्स के मीडिया प्रभारी मिषाएल सी अल्ब्रेश्ट कहते हैं, "हम पांच साल से क्यूआर कोड के बारे में बात कर रहे हैं लेकिन वे वास्तव में स्वीकार नहीं हुए हैं." अअल्ब्रेश्ट कहते हैं, "महज कोड होना ही काफी नहीं है, आपको एक वेबसाइट बनानी होती है जिसमें समय और कौशल लगता है. मरने वाले व्यक्ति के परिवारजनों को शायद ही इसमें रुचि हो."
कितने अलग-अलग तरीकों से होता है अंतिम संस्कार
अलग-अलग धर्मों में अंतिम संस्कार के तरीके भी अलग-अलग है. कहीं शवों को गुफा में रखा जाता है, कहीं जलाया जाता है और कहीं गिद्धों को खाने के लिए छोड़ दिया जाता है. यह काफी हद तक भौतिक स्थिति पर भी निर्भर करता है.
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दाह संस्कार
हिंदू और सिख धर्म में मृत शरीर को लकड़ी की शैय्या पर रखकर जलाने की परंपरा है. छोटे बच्चों को छोड़कर सभी का दाह-संस्कार किया जाता है. बौद्ध धर्म में जलाने और दफनाने दोनों की ही परंपरा है, जो स्थानीय रिवाज से की जाती है. लकड़ी की कमी के चलते अब विद्युत शवदाहगृहों की संख्या बढ़ रही है.
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जल में प्रवाहित करना
हिन्दुओं में जल दाग देने की प्रथा भी है जिसके चलते नदियों में कई बार शव बहते हुए देखे जा सकते हैं. कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बांधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं. कई लोग इस प्रथा को अजीबोगरीब बताकर इसका विरोध करते हैं.
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दफनाने की परंपरा
शवों को दफनाने की परंपरा सबसे ज्यादा प्रचलित है. वैदिक काल में हिंदू धर्म के संतों को समाधि दी जाती थी. यहूदियों में दफनाए जाने की परंपरा की शुरुआत हुई. ईसाई धर्म की शुरुआत में मृतकों को चर्च में दफनाया जाता था. बाद में कब्रिस्तान बने. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट धर्माबलंबियों के अलग कब्रिस्तान हैं. शिया और सुन्नियों के अलग कब्रिस्तान होने के बावजूद उसमें भी कई विभाजन हैं.
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गिद्धों का भोजन
पारसियों में मृतकों को न तो दफनाया जाता है और न ही जलाया जाता है. वे शव को पहले से नियुक्त खुले स्थान पर रख आते थे और आशा करते थे कि उनके परिजन गिद्ध का भोजन बन जाएं. लेकिन आधुनिक युग में यह संभव नहीं और गिद्धों की संख्या भी तेजी से घट गई है. अब वे शव को उनके पहले से नियुक्त कब्रिस्तान में रख देते हैं, जहां पर सौर ऊर्जा की विशालकाय प्लेटें लगी हैं जिसके तेज से शव धीरे-धीरे जलकर भस्म हो जाता है.
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ममीकरण
मिस्र में गिजा के पिरामिडों में ममी बनाकर रखे गए शवों के कारण फराओ साम्राज्य को आज भी एक रहस्य माना जाता है. ये शव लगभग 3,500 साल पुराने हैं. ममी बनाने के पीछे यह धारणा थी कि अगर शवों पर मसाला लगाकर इन्हें ताबूत में बंद कर दफनाया जाए तो एक न एक दिन ये फिर जिंदा हो जाएंगे. ऐसा सिर्फ मिस्र में ही नहीं बल्कि मेक्सिको, श्रीलंका, चीन, तिब्बत और थाइलैंड में भी किया जाता रहा है.
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गुफा में रखना
इस्राएल और मेसोपोटेमिया (इराक) की सभ्यता में लोग अपने मृतकों को शहर के बाहर बनाई गई एक गुफा में रख छोड़ते थे जिसे बाहर से पत्थर से बंद कर दिया जाता था. ईसा को जब सूली पर से उतारा गया तो उन्हें मृत समझकर उनका शव गुफा में रख दिया गया था. प्रारंभिक यहूदियों और उस दौर के अन्य कबीलों में मृतकों को गुफा में रखे जाने का प्रचलन शुरू हुआ.
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मरने वाले की निजता का सवाल
राइन-माइन यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर गेर्ड मैर्के कहते हैं, "डाटा सुरक्षा भी इसमें एक बड़ा मुद्दा है. कुछ कब्रिस्तान प्रबंधक मानते हैं कि क्यूआर कोड डाटा सुरक्षा से जुड़े जरूर दिशा निर्देशों का हनन कर सकता है." मैर्के एक दिलचस्प सवाल मरने वाले के अधिकारों को लेकर भी उठाते हैं. उन्होंने कहा, "मरने के बाद भी व्यक्ति के निजी अधिकार बने रहते हैं, बस कानूनी रूप से वे बाध्यकारी नहीं होते."
क्रबों से जुड़ी ऐप
जर्मनी में ऐसे क्यूआर कोड फिलहाल कब्रगाह से काफी दूर हैं, लेकिन इस बीच एक ऐप "वेयर दे रेस्ट" काफी पॉपुलर हो गई है. इसे जर्मन राज्य बर्लिन-ब्रांडनब्रुर्ग में फाउंडेशन ऑफ हिस्टोरिक ग्रेवयार्ड ने शुरू किया था, जो यूजरों को सेलिब्रिटी लोगों की कब्रों और समाधि स्थल का रास्ता दिखाता है और उनकी जिंदगी के बारे में जानकारी देता है. आज यह ऐप 32 शहरों की तकरीबन 1,200 समाधियों और 45 कब्रिस्तानों की जानकारी देता है, जिन्हें असलियत में या वर्चुअली देखा जा सकता है. इस ऐप को बनाने के पीछे विचार था कि मैप, तस्वीरें, ऑडियो गाइड का इस्तेमाल कर इसे इतिहास के पाठ की तरह इस्तेमाल किया जा सके.
शांति भंग होगी?
अब सवाल कब्रिस्तान की शांति का आता है. अल्ब्रेश्ट कहते हैं, "कब्रिस्तान की संस्कृति स्थिर नहीं है बल्कि यह लगातार विकसित हो रही है. यहां आने वाले लोग हाथ में फोन के साथ आते हैं लेकिन वह यहां की शांति को भंग नहीं करते हैं." उन्होंने कहा कि ये अच्छा है कि लोगों में कब्रगाहों को लेकर जागरुकता बढ़ रही है और अब कुछ कब्रगाह पब्लिक टूर भी कराते हैं. ऐप को लेकर उन्होंने कहा, "ये कब्रगाहों की सांस्कृतिक महत्ता को बनाए रखने में मदद करता है." अल्ब्रेश्ट मानते हैं कि समय के साथ इन कब्रगाहों को भी नई तकनीक के इस्तेमाल में परहेज नहीं करना चाहिए, जब तक कि इससे कोई तंग नहीं होता. यह सारी कोशिशें मरने के बाद भी प्रियजनों को वर्चुअल दुनिया में लंबे समय तक जिंदा रखने की हैं.
जापान का नया बिजनेस अंतिम यात्रा
जापान में नया बिजनेस है लाशों का रखरखाव. इसके लिए बाकायदा एक होटल बन गया है. कावासाकी के इस होटल को लाशों का होटल कहते हैं.
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यह दरअसल एक मुर्दाघर है जिसमें जापान की उन लाशों का रखा जाता है, जो दफनाए जाने के लिए कतार में हैं. जापान के मुर्दाघरों में भीड़ इतनी ज्यादा है कि लाशों की कतार लंबी होती जा रही है.
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इस होटल का खर्च भी कुछ कम नहीं है. अंतिम क्रिया करने से पहले एक लाश को यहां रखने का रोज का किराया 5 हजार भारतीय रुपयों से ज्यादा है.
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होटल में 10 कमरे हैं और एक लाश को 4 दिन से ज्यादा नहीं रखा जा सकता. इन चार दिनों में ही परिवार को क्रीमेटोरियम खोज लेना होता है.
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वैसे कुछ और होटल भी इस तरह लाशों को रखते हैं लेकिन वे यह काम छिप छिपाकर करते हैं. सूसू होटल ने पहली बार खुलेआम यह काम शुरू किया है, बिना किसी झिझक के.
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एक बात जो इस होटल की अलग है कि यहां लाशों को फ्रिज में नहीं रखा जाता. उन्हें किसी भी सामान्य मेहमान की तरह एयरकंडिशनर में ही रखा जाता है.
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जापान में मृत्युदर तेजी से बढ़ रही है. हर साल 20 हजार ज्यादा लोग मर रहे हैं. आशंका है कि 2040 तक सालाना 17 लाख लोग मर रहे होंगे.
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लेकिन कावासाकी के इस होटल के आसपास रहने वाले लोग खुश नहीं हैं. वे लोग विरोध भी जता चुके हैं. लेकिन मालिक बढ़ती मांग से पैसा कमाने की उम्मीद रखते हैं.