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डेविस मामलाः पाकिस्तान की नई अग्निपरीक्षा

२१ फ़रवरी २०११

हत्या के आरोप में पाकिस्तान में गिरफ्तार अमेरिकी रेमंड डेविस का मामला एक अंततराष्ट्रीय राजनयिक समस्या बन गया है. जर्मन भाषी समाचार पत्रों में भी इस पर कई टिप्पणियां देखने को मिली.

डेविस की रिहाई के लिए तीखा अमेरिकी दबाव हैतस्वीर: AP

मिसाल के तौर पर दैनिक फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने त्साइटुंग ने ध्यान दिलाया है कि राजनयिक संरक्षण के कारण डेविस की रिहाई की अमेरिकी मांग के बावजूद लाहौर की अदालत ने उसकी रिमांड की अवधि बढ़ाई और दोहरी हत्या व अवैध रूप से हथियार रखने के आरोप में उसके खिलाफ मुकदमे की अनुमति दी. समाचार पत्र में इस सिलसिले में कहा गयाः

अमेरिकी इस बात पर अड़े हैं कि लाहौर में उनके कॉन्सुलेट के कर्मचारी को तुरंत रिहा किया जाए.. पिछले दिनों में अक्सर रिपोर्टें दी गई है कि पाकिस्तान पर राजनीतिक दबाव डाला जा रहा है. कहा गया है कि अमेरिकी सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने धमकी दी थी कि अगर डेविस को रिहा नहीं किया जाता है तो पाकिस्तान को मिलने वाली सात अरब डॉलर की मदद रद्द कर दी जाएगी. इसके अलावा वॉशिंगटन से संकेत दिया गया है कि राष्ट्रपति जरदारी की आगामी अमेरिका यात्रा रद्द कर दी जाएगी.

तस्वीर: AP

इस प्रकरण के चलते अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों में तनाव बढ़ते जा रहे हैं. समाचार पत्र सुएडडॉएचे त्साइटुंग में इस सिलसिले में टिप्पणी की गई हैः

वॉशिंगटन के लिए मामला स्पष्ट है : डेविस राजनयिक हैं, उन्हें संरक्षण प्राप्त है और उन्हें रिहा करना पड़ेगा. दूसरी ओर पाकिस्तान के अधिकारी इस पर अड़े हुए हैं कि उन पर मुकदमा चलाया जाएगा और वे हिरासत में रहेंगे. पाकिस्तान सरकार दुविधा में फंसी है कि उसे एक ओर अमेरिका से धन चाहिए तो दूसरी ओर वह आतंकवाद विरोधी संघर्ष में अमेरिका के बर्ताव से नाराज लोगों के गुस्से को पूरी तरह से नजरंदाज नहीं कर सकती. इस प्रकरण से पाकिस्तान में लोगों की यह धारणा पक्की हुई है कि अमेरिका उनके देश में अंधाधुंध अपनी मर्जी चलाता है.

पाकिस्तान की एक और खबर इन दिनों चर्चा में है. एक पाकिस्तानी अदालत ने कहा है कि पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या में लिप्त रहे. रावलपिंडी की एक आतंकवाद निरोधी अदालत ने उनके नाम पर वारंट जारी कर दिया है. बर्लिन के दैनिक डेर टागेसश्पीगेल में इस पर टिप्पणी करते हुए कहा गया हैः

यह वारंट पाकिस्तान के राजनीतिक नेताओं को बेहद भाएगा. इससे राजनीति में वापस आने की मुशर्रफ की कोशिशों को धक्का पहुंचेगा और उन्हें देश से दूर रहना पड़ेगा. 67 वर्षीय मुशर्रफ कई महीनों से ऑल पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नाम से एक नई पार्टी के गठन की कोशिश कर रहे हैं. कहना मुश्किल है कि चुनाव में उन्हें कितनी सफलता मिलेगी. लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से कुछ लोग परेशान हैं. अब तक के बयानों से लगता है कि मुशर्रफ खासकर नरमपंथी मतदाताओं के बीच पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं और वे खास कर महिलाओं और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों में लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं.

मुशर्रफ के भविष्य उठते सवालतस्वीर: dpa - Report

लेकिन समाचार पत्र नोय त्स्युरिषर त्साइटुंग का कहना है कि मुशर्रफ के लौटने के आसार बहुत कम हैं. एक लेख में कहा गया हैः

अपने लगभग दस साल के शासन के अंत में मुशर्रफ जनता के बीच पूरी तरह से अपनी लोकप्रियता खो बैठे थे और सेना में भी उनका समर्थन नहीं रह गया है. यह आरोप काफी भारी पड़ सकता है कि खुद को आतंकवाद के खिलाफ सच्चे सिपाही के तौर पर पेश करने वाले पूर्व सेनाध्यक्ष इस्लामी चरमपंथियों के साथ मिलकर भुट्टो की हत्या में लिप्त थे और इससे उनका राजनीतिक भविष्य खत्म हो सकता है. इसके अलावा उनके खिलाफ अन्य आरोप भी हैं, मसलन संविधान की अवहेलना और बलोचिस्तान में एक पृथकतावादी नेता की हत्या का षड़यंत्र.

पाकिस्तान के बाद भारत. 1990 के दशक में विश्व व्यापार सम्मेलनों में दक्षिण के देशों ने बार-बार साबित किया है कि वे कृषि उत्पादों के व्यापार के उदारीकरण के खिलाफ एक पांत में खड़े हैं. इस सिलसिले में अर्जेंटीना,चीन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका खास तौर पर सक्रिय हैं. इनमें से तीन यानी भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने आईबीएसए के नाम से एक ग्रुप बनाया है. फ्रांसीसी समाचार पत्र ले मोंद के जर्मन संस्करण में इस ग्रुप के बारे में कहा गया हैः

यह पहला मौका नहीं है जब एक ऐसा ग्रुप बनाया गया हो. लेकिन आईबीएसए ग्रुप में दो नई बातें देखने को मिलती हैं : तीनों लोकतांत्रिक देश हैं और वे पश्चिमी दुनिया के हिस्से नहीं हैं. सिर्फ इतना ही नहीं, यह ग्रुप किसी ऐसी सत्ता के अधीन नहीं है, जो अपने हितों की खातिर अंतराष्ट्रीय मंच का इस्तेमाल कर रही हो. इसके विपरीत वह अपने क्षेत्र के हर सदस्य देश की सत्ता को मजबूत बनाता है और सहयोग की कोशिश करता है. बहरहाल ऐसी बहुराष्ट्रीय संस्था तभी तक जीवित रहेगी, जब तक वह अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी होगी और आर्थिक कारकों की अपेक्षाओं के अनुरूप होगी. इसके अलावा आईबीएसए के अनुभवों से यह बात भी सामने आती है कि ऐसा ग्रुप बनाने वाले देशों की अपनी सक्रिय द्विपक्षीय राजनयिक गतिविधियां भी जरूरी हैं.

संकलनः अना लेहमान/उभ

संपादनः ए कुमार

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