ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी छोर के पास रेन द्वीप पर हर साल अंडे देने के लिए आने वाली मादा कछुओं की रक्षा में ड्रोन टेक्नोलॉजी काफी सहायक सिद्ध हो रही है. ये मादाएं हर साल ग्रेट बैरियर रीफ से यहां अंडे देने आती हैं.
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ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं को पता लगा है कि वे समुद्री कछुओं के अंडे देने के दुनिया में सबसे बड़े स्थान पर कछुओं की आबादी का काफी काम आकलन कर रहे थे. ये एहसास उन्हें तब हुआ जब उन्होंने पहली बार इस काम के लिए ड्रोन तकनीक का सहारा लिया. ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी छोर के पास रेन द्वीप पर लगभग 60,000 मादा हरे कछुए हर साल आती हैं. ये मादाएं हर साल ग्रेट बैरियर रीफ से सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा तय कर के यहां अंडे देने आती हैं.
विलुप्त होती इन प्रजातियों की रक्षा के लिए काम करने वाले वैज्ञानिक एक लंबे समय से इस सवाल से संघर्ष कर रहे हैं कि आखिर अंडे देने वाली इन मादाओं को ट्रैक कैसे किया जाए. पिछले सप्ताह विशेषज्ञों की समीक्षा छापने वाली पत्रिका पीलोस वन में छपे एक पेपर में इन वैज्ञानिकों ने खुलासा किया कि ड्रोन का इस्तेमाल करने के बाद उन्हें पता चला है कि उनका पुराना आकलन इनकी असली संख्या का 50 प्रतिशत भी नहीं था.
ग्रेट बैरियर रीफ फाउंडेशन ने मंगलवार को अदभुत फुटेज जारी की जिसमे हजारों कछुओं को नीले समंदर में तैरते हुए देखा जा सकता है. शोधकर्ताओं ने पहले कछुओं की गिनती तब की थी जब वे अंडे देने समुद्र तट पर आए थे. एक रात में करीब 23,000 कछुओं की गिनती की गई थी और उन पर घुल जाने वाले नॉन-टॉक्सिक रंग से निशान लगा दिया गया था ताकि समुद्र में उन्हीं ज्यादा आसानी से ट्रैक किया जा सके.
शोध के मुख्य लेखक एंड्रूयू डंस्टन का कहना था, "बुरे मौसम में एक छोटी से नाव में से हजारों पेंट किए हुए और बिना पेंट किए हुए कछुओं की बिल्कुल ठीक गिनती कर लेना मुश्किल था". उन्होंने कहा, "एक ड्रोन का इस्तेमाल करना ज्यादा आसान है, सुरक्षित है, कहीं ज्यादा सटीक है और इस डाटा को तुरंत हमेशा के लिए स्टोर भी किया जा सकता है". रेन द्वीप रिकवरी प्रोजेक्ट के तहत शोधकर्ताओं के काम में द्वीप के समुद्र तट, जहां कछुए अंडे देने आते हैं, का पुनर्निर्माण और कछुओं की मृत्यु को रोकने के लिए वहां बाड़ बनाना भी शामिल है.
कछुआ धरती के सबसे पुराने जीवों में हैं. इतना ही नहीं इसका जीवन बहुत लंबा भी है लेकिन फिर भी बहुत सी बातें हैं जो उनके बारे में ज्यादातर लोग नहीं जानते. इस विलक्षण जीव के बारे में 10 बातें.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Büttner
धरती पर बहुत लंबे समय से हैं कछुए
कछुए देखने से ही धरती के बहुत पुराने जीव मालूम पड़ते हैं. वैज्ञानिकों को अब तक जो सबूत मिले हैं, उनके मुताबिक पहला जीव करीब 36 करोड़ साल पहले धरती पर आया. पहली बार यहां आने के कुछ ही दिनों बाद धरती पर से 90 फीसदी जीवन का सफाया हो गया. कछुओं की किस्मत अच्छी थी कि वे पानी में भी रह सकते थे. इस तरह वे खुद को धरती पर नई परिस्थितियों में भी बचाए रखने में सफल हुए.
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लंबा जीवन
पृथ्वी पर मौजूद जीवों में सबसे लंबा जीवन कछुओं का ही है. हालांकि यह बहुत हद तक उनकी अलग अलग प्रजातियों पर निर्भर करता है लेकिन इनमें से ज्यादातर लंबा जीवन जीते हैं. पालतू कछुए की उम्र 10 से 80 साल तक हो सकती है जबकि कुछ बड़े कछुए 100 साल से भी ज्यादा समय तक जीते हैं. एक शताब्दी से ज्यादा के जीवन की ठीक ठीक गणना तो मुश्किल है लेकिन रिसर्चर मानते हैं कि बहुत से कछुए 100 साल से ज्यादा जीते हैं.
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अलग अलग रंग और आकार
फिलहाल कछुओं की 356 प्रजातियों के बारे में जानकारी है. कछुए सरीसृप हैं और आमतौर पर उनकी पीठ पर कार्टिलेज का कठोर कवच होता है. हालांकि यहीं पर उनमें फर्क भी शुरू हो जाता है. इन कवचों के आधार पर ही इनको अलग किया जा सकता है. सी टर्टल, लेदरबैक टर्टल, स्नैपिंग टर्टल, पॉन्ड टर्टल, सॉफ्ट शेल्ड टर्टल (तस्वीर में) और फिर टॉरटॉइज, ये सब इनके अलग अलग प्रकार हैं.
आमतौर पर धारणा है कि कछुए पानी में रहते हैं लेकिन ऐसा है नहीं. धरती पर अलग अलग आवासों में कछुए रहते हैं और उन्हें टॉरटॉइज कहा जाता है जबकि पानी में या पानी के पास रहने वाले कछुए टर्टल कहलाते हैं और वे सिर्फ अंडा देने के लिए धरती पर आते हैं. जाहिर है कि तकनीकी रूप से सारे टॉरटॉइज तो टर्टल हैं लेकिन सारे टर्टल, टॉरटॉइज नहीं हैं.
तस्वीर: DW
शाकाहारी और मांसाहारी
पानी में या पानी के आसपास रहने वाले ज्यादातर कछुए (टर्टल) सर्वाहारी हैं, हालांकि मुट्ठी भर प्रजातियां ऐसी हैं जो अपने खान पान में नखरे दिखाते हैं. जमीन पर रहने वाले कछुए साग भाजी से काम चलाते हैं. उन्हें पत्तेदार सब्जियां और फल पसंद हैं. एक प्रजाति डरावने एलिगेटर टर्टल की भी है जो पूरी तरह से मांसाहारी है. मछलियों और छोटे स्तनधारियों का शिकार करने के फिराक में यह कई बार किनारों तक भी चला आता है.
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अंडा देने के लिए धरती
कछुओं की सारी प्रजातियों की गर्भवती मादाएं अंडा देने के लिए धरती का रुख करती हैं. अंडा देने से ठीक पहले वे अपने आवास के करीब किनारों पर घोसलां बनाती है. हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि वे अंडे से निकले बच्चों को पालती पोसती हैं. एक बार अंडे से बाहर निकलने के बाद नन्हें कछुओं को अपनी जरूरतें खुद ही पूरी करनी पड़ती हैं.
तस्वीर: Imago/Nature Picture Library
तापमान से तय होता है लिंग
घड़ियाल और दूसरे एलिगेटरों की तरह ही कछुओं का लिंग भी निषेचन के बाद तय होता है. अगर कछुए का अंडा 27.7 डिग्री सेल्सियस के तापमान से कम पर रहे, तो उनमें से निकलने वाला कछुआ नर होगा. अगर तपामान 31 डिग्री से ज्यादा हो तो वह मादा होगी. समंदर का तापमान बढ़ने के साथ ही कछुए ज्यादा से ज्यादा मादाओं को जन्म दे रहे हैं.
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जबर्दस्त दिशाज्ञान
समुद्री कछुओं में अपने जन्मस्थान वाले किनारों पर सालों बाद भी वापस आने की विलक्षण क्षमता होती है. कई दूसरे जीवों की तरह कछुए सागर में चुंबकीय क्षेत्रों की रेखाओं का आभास कर अपनी दिशा तय करते हैं. हालांकि वे समुद्रतटों के चुंबकीय क्षेत्रों को भी याद रखते हैं और उसमें मामूली से हेरफेर को भी पकड़ लेते हैं. इसी के दम पर वे अपने घरों को वापस लौटने में सफल होते हैं.
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मजबूत दृष्टि
कछुए पानी के भीतर भी बिल्कुल साफ साफ देख सकते हैं. रिसर्चरों ने पता लगाया है कि वे अलग अलग रंगों को भी पहचानते हैं और रंगों को लेकर उनकी पसंद नापसंद भी है. सागर के भीतर भले ही कछुए अपने आंतरिक जीपीएस के लिए विख्यात हैं लेकिन सबूतों से पता चलता है कि जमीन पर वे बहुत साफ साफ नहीं देख पाते.
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कई प्रजातियां खतरे में
करोड़ों सालों तक धरती पर जीवन जीते रहने के बावजूद आज कम से कम सात में से छह प्रजातियों को इंसानी गतिविधियों के कारण जोखिम में या फिर लुप्तप्राय सूची में डाला गया है. हर साल हजारों कछुए कारोबारी स्तर पर पकड़ी जाने वाली मछलियों के जाल में फंस जाते हैं. इसी तरह बहुत से कछुओं को उनकी खाल, अंडे या फिर मांस के लिए भी मार दिया जाता है.