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तनाव में घिरता भारतीय समाज

Priya Esselborn२ मई २०१३

तरक्की का मतलब सिर्फ पैसा कूटना नहीं है, बल्कि खुशहाल जीवन है. भारत में प्राइवेट नौकरियों के जरिए रोजगार की संभावनाएं तो खूब बढ़ीं लेकिन दफ्तर तनाव का अड्डा भी बन गए. सामाजिक और पेशवर ताने बाने पर इसका असर पड़ रहा है.

तस्वीर: Fotolia/ lassedesignen

आर्थिक मंदी के लंबे दौर के चलते नौकरियों में होने वाली कटौती, सहकर्मियों के साथ संबंधों में तनाव, वेतनवृद्धि में कमी और लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने की वजह से पैदा होने वाले मानसिक अवसाद के चलते काम-काज की जगहों पर तनाव लगातार बढ़ रहा है. कई दफ्तरों में बॉस की डांट-डपट के चलते कर्मचारी डरे-सहमे रहते हैं जिससे उनका काम प्रभावित होता है. कुछ दफ्तरों में कर्मचारी काम के बोझ की वजह से घर-परिवार के लिए समय नहीं निकाल पाते. उनके लिए यही अवसादग्रस्त होने की सबसे बड़ी वजह है. यह कहना है पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में दफ्तरों में तनाव और उससे निजात पाने के उपायों पर आयोजित एक सम्मेलन में आए विशेषज्ञों का. इस सम्मेलन में कामकाज की जगहों पर बढ़ते तनाव का जिक्र तो हुआ ही, इससे निपटने के उपाय भी सुझाए गए.

तनाव का दूरगामी असर

कन्फेडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) की पूर्वी शाखा के उपाध्यक्ष वीरेश ओबरॉय कहते हैं, "कामकाजी जगहों पर तनाव का असर दूरगामी होता है. इससे उस व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके कामकाज पर प्रतिकूल असर पड़ता है. उसका असर संगठन की उत्पादकता और मुनाफे पर होता है."

ओबरॉय के मुताबिक तनाव के चलते ही कर्मचारियों में तरह-तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं और उनमें से 70 फीसदी से ज्यादा लोग डाक्टरों के पास जाने के लिए मजबूर हैं. तनाव की वजह से कर्मचारियों में दफ्तर से छुट्टी लेने, देर से पहुंचने, गलतियां करने और तय समय पर काम पूरा नहीं करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. इसकी वजह से दफ्तर में सहयोगियों और अधिकारियों के साथ उनके संबंधों में भी कड़वाहट पैदा हो रही है.

दफ्तर में माहौल अच्छा बनाने की मुहिमतस्वीर: AP

कैसे कम हो तनाव

सीआईआई की पूर्वी क्षेत्रीय शाखा की ओर से आयोजित इस सम्मेलन में विशेषज्ञों का कहना था कि कार्यकुशलता बढ़ाकर, दफ्तर में खुशगवार कार्य संस्कृति विकसित कर और कर्मचारियों के प्रति मानवीय रवैया अपना कर ही बढ़ते तनाव को कम किया जा सकता है. भारतीय तकनीकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर के डीन (एल्यूमनी अफेयर्स एंड इंटरनेशल रिलेशंस) अमित पात्र कहते हैं, "दुनिया भर में बढ़ती प्रतिद्वंद्विता ने तनाव को और बढ़ा दिया है. अवसादग्रस्त कर्मचारियों के जरिए न तो काम सलीकेदार तरीके से हो सकता है और न ही बेहतर मुनाफा कमाया जा सकता है." उनका कहना था कि कामकाज की जगह और दफ्तरों में खुशगवार माहौल बनाए रखना जरूरी है. कर्मचारियों के खुश रहने की स्थिति में कामकाज तो बेहतर होगा ही, उत्पादकता भी बढ़ेगी.

आईआईटी और सीआईआई ने मिल कर जल्दी ही तनाव प्रबंधन पर अध्ययन और शोध करने का भी फैसला किया है. टाटा स्टील के प्रमुख (कॉरपोरेट सेफ्टी) ओबी कृष्णा कहते हैं, "दफ्तरों में तनाव अब एक आम बीमारी हो गई है. लेकिन अगर शुरूआत में ही इस पर अंकुश लगाने की पहल नहीं की गई तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है." उन्होंने कहा कि सीआईआई कामकाज की जगहों पर तनाव को कम करने के लिए एक जागरुकता अभियान शुरू करेगा ताकि तनाव का बेहतर तरीके से प्रबंधन किया जा सके. संबंधित कंपनियों को इसके लिए एक ठोस नीति बनानी चाहिए.

होड़ है, लेकिन क्यों, पता नहीं.तस्वीर: AP

आईआईटी में भी तनाव प्रबंधन

दुनिया के जाने माने तकनीकी संस्थान आईआईटी खड़गपुर ने भी छात्रों और शिक्षकों में बढ़ते तनाव को ध्यान में रखते हुए परिसर में तनाव प्रबंधन के लिए विवेकानंद सेंटर फार पर्सनैलिटी डेवलपमेंट खोलने की योजना बनाई है. इसकी स्थापना दिल्ली के लोटस टेंपल की तर्ज पर परिसर में स्थित एक झील के बीचोबीच होगी. दस करोड़ लागत वाली यह परियोजना दो वर्षों में पूरी हो जाएगी. ध्यान रहे कि छात्रों की आत्महत्या के मामले में आईआईटी कानपुर पहले नंबर पर है. लेकिन खड़गपुर स्थित तकनीकी संस्थान में भी लगभग हर साल कोई न कोई छात्र अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेता है. आईआईटी के डीन अमित पात्र कहते हैं, "आईआईटी में आने वाले छात्र पूरे जीवन में अपनी कक्षा में शीर्ष पांच फीसदी छात्रों में शामिल रहते हैं. लेकिन आईआईटी में हर कोई टॉप नहीं कर सकता. यहीं से उनमें तनाव पैदा होता है जो आगे चल कर हताशा और मानसिक अवसाद में बदल जाता है. यही वजह है कि कुछ छात्र आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं."

ओबी कृष्णा कहते हैं, "तनाव कम करने के लिए नियोक्ताओं के अलावा माता-पिता को भी यथार्थवादी उम्मीदें पालनी चाहिए. जरूरत से ज्यादा उम्मीदों का बोझ युवा दिमाग पर भारी साबित होता है." उन्होंने कहा कि आईआईटी कानपुर में आत्महत्या के बढ़ते मामलों के लिए इन ऊंची उम्मीदों को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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