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'तमाशा-ए-अहले-करम' का गवाह

३० जुलाई २००९

डॉयचे वेले की हिंदी सेवा की पैंतालीसवीं वर्षगांठ पर उज्ज्वल भट्टाचार्य बता रहे हैं कि पत्रकारिता का उनका सफ़र बदलती पीढ़ियों को समझने का सफ़र रहा है.

क्या खूब कहा है ग़ालिब ने - जब तक आप फ़कीर नहीं बनेंगे, चीज़ों से अपने-आपको अलग नहीं कर पाएंगे, कैसे आप इस दुनिया की दुनियादारी देख पाएंगे, कैसे उसका बयान कर पाएंगे? पत्रकार के रूप में अपना सफ़र फ़कीर बनने का सफ़र रहा है, जिसका एक बड़ा हिस्सा डॉएचे वेले के साथ बीता है.

झंडोत्तोलन के साथ 1990 में जर्मन एकीकरणतस्वीर: AP

शुरुआत बर्लिन में हुई, जर्मन एकीकरण की पवित्र घड़ी के साथ - जिसका उत्साह पूरे माहौल में छाया हुआ था, लेकिन जिसका पूरा ऐतिहासिक तात्पर्य शायद ही समझ में आ पा रहा था. मुसीबत यह थी कि उस प्रक्रिया की रिपोर्ट देनी थी बांगला और हिंदी विभाग के लिए. अपने माहौल के साथ-साथ अपने-आपको भी समझने का वह एक दौर था, नई समझ के लिए नए मुहावरों की तलाश करनी थी. यह तलाश आज भी जारी है.

मुहावरों से मेरा मतलब सिर्फ़ शब्दों से नहीं है. एक मिसाल देना चाहूंगा - एकीकरण के बाद एक संघात्मक जर्मनी के विस्तार का दौर शुरू हुआ, जिसमें पूरब के पाँच प्रदेश शामिल हुए. देश एक, उसके प्रदेश अनेक - इन दोनों के बीच बना हुआ सामंजस्य और उसकी समस्याएं. क्या यहां बरबस भारत के साथ तुलना मन में नहीं आ जाती है? समानताओं और अंतरों से पेश आने का जर्मन अनुभव क्या यूरोपीय एकीकरण के दौर में नहीं देखा जा रहा है? नब्बे के दशक के शुरुआती सालों में संस्कृति राजनीति के ठेठ रंग में रंगी, उसके बाद वह रंग धीरे-धीरे फ़ीका होता गया - क्या सारी दुनिया में यही बात हमें अलग-अलग ढंग से नहीं दिखाई देती है?

कला और शीतयुद्धतस्वीर: Sammlung Grobe

इसी कशमकश के चलते सांस्कृतिक चर्चा आगे चलकर रंगतरंग के रूप में सामने आई. कार्यक्रम में सरकारी राजनीतिक मुद्दों के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों को प्रमुखता देने की ज़रूरत समझ में आती गई. महिला विमर्श हमेशा महत्वपूर्ण था, पर क्या हम उसके कायल बन पाए थे­? क्या आज भी बन पाए हैं­? कार्यक्रम बदलते गए, उसी के साथ हम भी बदलते गए - कभी ख़ुशी और उत्साह के साथ, कभी मजबूरी में - और अकसर वह मजबूरी भी पसंद आती गई.

रेडियो पत्रकारिता की एक मजबूरी यह भी है कि बात हम करते हैं, श्रोता सुनते हैं. यह कैसा संवाद है­? इस इकतरफ़ा बातचीत को दोतरफ़ा बनाना - इसके लिए श्रोता मित्रों का आभार हर हालत में नाकाफ़ी ही होगा. उनके ज़रिये हम बदलती पीढ़ियों को भी समझते रहे हैं, जानते रहे हैं कि कैसे नए-नए मुद्दे उभर रहे हैं, माहौल को भर रहे हैं. इनकी वजह से कभी कार्यक्रम अच्छे बने हैं, कभी नहीं बन पाए हैं. लेकिन एक बात ज़रूर कहनी है - पत्रकार के रूप में ज़िंदगी भरी-पूरी हो सकी है, और इसलिए फिर एकबार - शुक्रिया, बहुत शुक्रिया!

उज्ज्वल भट्टाचार्य

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