भारत अब तक "बुरे तालिबान-अच्छे तालिबान" के वर्गीकरण को अस्वीकार करता रहा है. रूस मॉस्को वार्ता का आयोजक है और इसमें पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, चीन, ईरान, छह पूर्व सोवियत गणराज्य और अमेरिका के अलावा तालिबान का एक पांच-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल भाग ले रहा है. अमेरिका की ओर से उसके मॉस्को-स्थित दूतावास का एक अधिकारी वार्ता में शिरकत कर रहा है. जाहिर है कि अमेरिका इस वार्ता से खुश नहीं है क्योंकि यह उसकी घोषित नीति से मेल नहीं खाती और इसमें उसकी भूमिका भी हाशिए पर ही है.
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते खराब ही होते गए हैं जिसके नतीजे में पाकिस्तान रूस के निकट होता गया है. अफगानिस्तान में शांति स्थापित होना रूस के हित में भी है और उसे अच्छी तरह मालूम है कि पाकिस्तान के सहयोग के बिना अफगानिस्तान में कुछ भी करना संभव नहीं है. अमेरिका पाकिस्तान से कहता रहा है कि वह तालिबान और हक्कानी गिरोह के खिलाफ कार्रवाई करे. साथ ही वह उस पर आतंकवाद को पनाह देने और उसका निर्यात करने का आरोप भी लगाता रहा है. भारत का रुख भी लगभग यही रहा है. लेकिन इस कारण उसे अफगानिस्तान में शांति बहाल करने की प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं मिल पाई और वह उससे बाहर ही रहा.
अब जैसे-जैसे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अफगानिस्तान में स्थायी राजनीतिक व्यवस्था और शांति स्थापना तालिबान के बिना संभव नहीं है, वैसे-वैसे ही भारत को भी अपनी नीति में परिवर्तन की जरूरत महसूस होने लगी है. अब मॉस्को वार्ता में केवल अनौपचारिक रूप से उपस्थित होने के बावजूद उसे अपनी आवाज उठाने का मौक़ा मिल गया है. पिछले वर्षों में तालिबान ने अपनी स्थिति मजबूत की है और अफगानिस्तान के काफी बड़े हिस्से में उसका सिक्का चलता है. भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए जो प्रयास करता रहा है, उन्हें भी तालिबान के हमलों को झेलना पड़ा है. इसलिए यदि उसके साथ किसी किस्म की क्षेत्रीय समझदारी बनती है तो वह भारत के हित में ही होगी.
उधर अमेरिका में भी पुरानी नीति पर पुनर्विचार हो रहा है और मॉस्को वार्ता से ठीक पहले ट्रंप प्रशासन ने अफगानिस्तान में शांति स्थापना के लिए एक विशेष दूत जलमाय ख़लीलजाद की नियुक्ति की है और तालिबान से सीधे-सीधे बात न करने की नीति को पलटने की तैयारी शुरू कर दी है. इसका अर्थ यह है कि सभी तरफ से अफगानिस्तान में 17 वर्षों से चले आ रहे गृहयुद्ध को समाप्त करने के प्रति गंभीरता प्रदर्शित की जा रही है. ऐसे में मॉस्को में हो रही वार्ता का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है.
उधर रूस पाकिस्तान को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है क्योंकि उसकी नजर में वह एक वैश्विक ख़तरा है जबकि तालिबान स्थानीय ख़तरा है. इसके पहले तालिबान केवल अपने-आपको अफगानिस्तान का वैध शासक मानता था और इसीलिए अफगानिस्तान की सरकार के साथ वार्ता की मेज पर बैठने से इंकार करता था. मॉस्को वार्ता का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इसमें अफगानिस्तान सरकार और तालिबान दोनों के प्रतिनिधि शामिल हैं और सीधे एक-दूसरे के साथ संवाद में हैं. यानी राजनीतिक गतिरोध टूट रहा है और आगे की शांति वार्ता का मार्ग प्रशस्त हो रहा है.
बुद्ध से हार गया तालिबान
अफगानिस्तान के बामियान की तर्ज पर पाकिस्तान की स्वात घाटी में भी तालिबान ने पहाड़ को काट कर उकेरी गई बुद्ध की प्रतिमा को डायनामाइट से उड़ा दिया था. लेकिन अब वहां बुद्ध फिर मुस्करा रहे हैं.
तस्वीर: DW/I. Jabeenपाकिस्तान की स्वात घाटी के जहानाबाद इलाके में ग्रेनाइट के एक पर्वत पर उकेरी गई बुद्ध की प्रतिमा 1400 साल पुरानी है. बामियान की तर्ज पर 2007 में तालिबान ने इसे डायनामाइट से उड़ाने की कोशिश जिससे प्रतिमा को काफी नुकासन हुआ.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedकई साल तक पाकिस्तान की स्वात घाटी तालिबान के कब्जे में रही. इस दौरान उन्होंने इस इलाके की ऐतिहासिक पहचान और संस्कृति को तहस नहस करने में कसर नहीं छोड़ी. इससे परवेश शाहीन जैसे लोगों के दिल को बहुत चोट लगी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedयह प्रतिमा लगभग 20 फीट ऊंची है. दस साल पहले चरमपंथियों के इसके ऊपर चढ़ तक विस्फोटक सामग्री लगाई. लेकिन इससे बुद्ध के चेहरे के ऊपरी हिस्से को ही नुकसान हुआ जबकि इसके पास एक अन्य मूर्ति के टुकड़े टुकड़े हो गए थे.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedस्वात में बुद्धिज्म के विशेषज्ञ परवेश शाहीन कहते हैं, "ऐसे लगा कि जैसे उन्होंने मेरे पिता की हत्या कर दी. उन्होंने मेरी संस्कृति और इतिहास पर हमला किया." अब इटली के विशेषज्ञों की मदद से इलाके को संरक्षित किया जा रहा है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedअब इस प्रतिमा को पूरी तरह बहाल कर दिया गया है. 2012 में शुरू हुए इस काम को कई चरणों में पूरा किया गया. पुरानी तस्वीरों और थ्रीडी तकनीक की मदद से इस काम को अंजाम दिया गया.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedमरम्मत का यह काम 2016 में पूरा हुआ. इतालवी विशेषज्ञ कहते हैं कि यह प्रतिमा बिल्कुल पहले जैसी तो नहीं दिखती, लेकिन ऐसा जानबूझ कर किया गया है ताकि पता चले कि इसे कभी नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई थी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeed79 वर्षीय शाहीन कहते हैं कि यह प्रतिमा शांति, प्रेम और भाईचारे का प्रतीक है. यह इलाका सदियों तक बौद्ध धर्म के श्रद्धालुओं के लिए एक अहम तीर्थ स्थल रहा. लेकिन भारत के बंटवारे के बाद बॉर्डर खींच गए और वहां जाना मुश्किल होता गया.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesस्वात घाटी में 10वीं सदी के आसपास बौद्ध धर्म खत्म हो गया. उसकी जगह हिंदू और इस्लाम धर्म ने ली. यहां दूसरी से चौथी सदी तक बौद्ध धर्म के लिए स्वर्णकाल माना जाता है. तब इस घाटी में एक हजार से ज्यादा बौद्ध मठ और स्तूप थे.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedइटली की सरकार ने स्वात घाटी की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए पांच साल के भीतर 25 लाख यूरो का निवेश किया. इस काम में स्थानीय लोगों की भी खूब मदद ली गई. अधिकारियों को उम्मीद है कि इससे इलाके में टूरिज्म बढ़ेगा.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedस्वात घाटी से तालिबान के बाहर किए जाने के बाद हालात में बहुत सुधार आया है. घरेलू पर्यटक भी वहां जाने लगे हैं. लेकिन इसी साल फरवरी में एक चरमपंथी हमले में 11 सैनिकों की मौत बताती हैं कि खतरा अभी पूरी तरह टला नहीं है.
तस्वीर: Shahzeb Baigस्वात में कई लोगों का मानना है कि बुद्ध धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ाने में मदद करेंगे. पत्रकार फजल खालिक कहते हैं कि शिक्षा और सोशल मीडिया के कारण सांस्कृतिक विरासत के लिए मौजूद खतरे कम हुए हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeedमिंगोरा में एक म्यूजियम भी बनाया गया है जहां इलाके की ऐतिहासिक धरोहरों को संजोया गया है. इसके क्यूरेटर फैज-उर रहमान कहते हैं कि यहां बौद्ध धर्म को पसंद करने वाले मुल्लाओं का स्वागत है. उनके मुताबिक, "इस्लाम से पहले यही तो हमारा धर्म था."
तस्वीर: DW/I. Jabeen