तालिबान से बात किए बिना भी नहीं चलेगा ट्रंप का काम
९ सितम्बर २०१९
अमेरिकी राष्ट्रपति के एक कदम ने तालिबान के साथ जारी वार्ता पर रोक लगा दी है. हालांकि दोनों पक्षों में से किसी के लिए भी इस हालत को लटका कर रखना भयानक साबित हो सकता है, मानना है कि डॉयचे वेले के फ्लोरिआन वाइगांड का.
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हाल के हफ्तों में तालिबान ने दर्जनों अफगानी लोगों की जान ली है. इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप उनसे मिले होते और हाथ मिलाया होता. लेकिन जैसे ही खबर आई कि एक और तालिबानी हमले में एक अमेरिकी सैनिक भी मारा गया है, ट्रंप ने पहले से तय अपनी इस मुलाकात को रद्द कर दिया. और इसी के साथ मिट्टी में मिला दिया उस संभावना को जो कि अमेरिका और तालिबान के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर से पैदा होती.
ट्रंप ट्विटर पर एक मरने वाले की कीमत उसकी राष्ट्रीयता के आधार पर लगाने का कुटिल काम कर रहे हैं. वे जानते हैं कि अमेरिका में उनके फिर से चुने जाने के मकसद में अमेरिकी सैनिकों के खून से रंगे तालिबान से हाथ मिलाने से नुकसान हो सकता है. एक बार फिर वार्ता रद्द कर उन्होंने दिखा दिया है कि वे अपने अमेरिकी वोटरों को खुश रखना चाहते हैं भले ही उससे दुनिया में कुछ भी असर हो. तो क्या मान लेना चाहिए कि करीब एक साल से चल रही अफगानिस्तान में शांति बहाल करने की कोशिशें इसी के साथ दम तोड़ देंगी? सौभाग्यवश, फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता.
दोनों पक्षों की है समझौते में दिलचस्पी
भले ही एक ओर तालिबान और अमेरिकी सैनिकों को मारने और हमले जारी रखने की धमकी दे रहा हो और राजधानी काबुल समेत देश के एक बड़े हिस्से पर अब भी नियंत्रण बनाए हुए हो, फिर भी यह कट्टरवादी समूह जानता है कि वह पश्चिमी सेनाओं से जीत तो नहीं सकता. अगर यह सच न होता तो वे अपने कट्टर दुश्मन से बातचीत के लिए राजी ही क्यों हुए होते.
जल्द ही ट्रंप के भावावेश से भरे ट्विटर संदेशों के बादल हटेंगे और फिर सामने होगा तालिबान को लेकर एक संतुलित विदेश नीति रवैया. निश्चित तौर पर ऐसा लग रहा था कि अमेरिका-तालिबान समझौता होने ही वाला था, लेकिन ऐसी कुछ रिपोर्टें भी बाहर आई हैं जिनसे पता चलता है कि दोनों पक्षों के बीच कई मुद्दे अब भी सुलझाए जाने बाकी थे. हो सकता है कि ट्रंप के मुलाकात रद्द करने के पीछे असली वजह यही रही हो. जाहिर है अपने देश के एक सैनिक को लेकर देशभक्ति वाले संदेश से ओतप्रोत होकर इसे आधिकारिक तौर पर रद्द करना ट्रंप के समर्थकों को कहीं ज्यादा प्रभावित करेगा.
अफगानी सरकार क्या कर सकती है
तमाम खूनखराबे के बावजूद ट्रंप खुद भी ऐसा नहीं करना चाहेंगे कि अफगानिस्तान में एक शांति समझौते को भुला दिया जाए. उन्होंने अपने समर्थकों से चुनावी वादा जो किया था कि वे जल्द से जल्द अफगानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लेंगे और वहां अपने सैनिकों की जान नहीं जाने देंगे. अगर वाकई तालिबान अमेरिका को बातचीत की मेज पर वापस लाने के लिए और अमेरिकी सैनिकों को निशाना बनाते हैं तो हर अमेरिकी सैनिक की मौत का ठीकरा ट्रंप के माथे फोड़ा जाएगा. जल्द ही उनके चुनाव प्रचार अभियान को हवा मिलेगी ऐसे में ट्रंप को इससे नुकसान हो सकता है.
लेकिन तालिबान को दोबारा सोचना होगा कि अपने मकसद में सफल होने के लिए क्या और बल प्रयोग करने की रणनीति से वाकई उन्हें फायदा होगा. ट्रंप के ट्वीट से तो उन्हें भी समझ आना जाना चाहिए कि बम गिराकर वे जल्दी जीत हासिल नहीं कर पाएंगे. इसके अलावा, अमेरिका और तालिबान दोनों ने अब तक जिस तरह अफगानी सरकार को नजरअंदाज किया है, उसमें भी बदलाव आ सकता है. सरकार अचानक ज्यादा अहम भूमिका में आ सकती है और खुद को और आफगानी वोटरों की मान्यता दिलाने के लिए सितंबर में चुनाव भी करा सकती है. कुछ ही हफ्तों में अफगानिस्तान में चुनाव कराए जा सकते हैं, जिन पर लंबे समय से अनिश्चितता छाई थी. इस लिहाज से आने वाले कुछ दिन इस पूरे घटनाक्रम के लिए बेहद अहम साबित हो सकते हैं.
अफगानिस्तान को आजाद हुए 100 साल हो गए हैं. लेकिन यह एक पूरी सदी अफगानिस्तान को तबाही और बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं दे पाई. जानिए इन सौ सालों में क्या हुआ.
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1919
तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध के बाद अमानुल्लाह खान ने ब्रिटेन से आजादी की घोषणा की और खुद अफगानिस्तान की कमान संभाली. उन्होंने कई सामाजिक सुधार लागू करने की कोशिश की, जिनका काफी विरोध हुआ और आखिरकार उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा. (फोटो सांकेतिक है)
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1933
जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा बने और अगले चार दशक तक अफगानिस्तान में राजशाही रही. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान को सोवियत संघ से आर्थिक और सैन्य मदद मिली. इस दौरान, पर्दा प्रथा को खत्म करने जैसे कई सामाजिक सुधार भी हुए.
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1963
दस साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले जनरल मोहम्मद दाऊद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. इसके अगले साल 1964 में अफगानिस्तान में संवैधानिक राजशाही लागू की गई. लेकिन इससे देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण और सत्ता संघर्ष की शुरुआत हो गई.
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1973
मोहम्मद दाऊद ने जहीर शाह का तख्ता पलटा और अफगानिस्तान को एक गणतंत्र घोषित किया. वह अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. उन्होंने सोवियत संघ को पश्चिमी ताकतों से भिड़ाने की कोशिश भी की.
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1978
एक सोवियत समर्थित तख्तापलट में जनरल दाऊद की हत्या कर दी जाती है. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आती है, लेकिन अंदरूनी हिंसा के चलते वह कुछ कर नहीं पाती है. उसे अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन गुटों की तरफ से भी काफी विरोध झेलना पड़ रहा था.
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1979
दिसंबर के महीने में सोवियत सेना अफगानिस्तान पर हमला करती है और वहां एक कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बैठाती है. बाबराक कारमाल को देश की बागडोर मिलती है. लेकिन सोवियत बलों से लड़ने वाले मुजाहिदीन गुटों की चुनौतियां बढ़ने लगीं. अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब ने मुजाहिदीन को पैसा और हथियार दिए.
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1985
मुजाहिदीन गुटों ने पाकिस्तान में आकर सोवियत बलों के खिलाफ एक गठबंधन बनाया. युद्ध की वजह से आधी अफगान आबादी विस्थापित हो गई. बहुत से लोग जान बचाने के लिए पड़ोसी ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों में भाग गए.
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1986
अमेरिकी ने मुजाहिदीन को स्टिंगर मिसाइलें देनी शुरू कर दी, जिनके जरिए वे सोवियत हेलीकॉप्टर गनशिपों को मार गिरा सकते थे. इसी साल बाबराक कमाल की जगह नजीबुल्लाह को सोवियत समर्थित सरकार का प्रमुख बनाया गया.
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1988
अफगानिस्तान, सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद सोवियत सैनिकों ने अफगानिस्तान से हटना शुरू कर दिया. 1989 में सोवियत सेना पूरी तरह वहां से हट गई, लेकिन गृह युद्ध जारी रहा क्योंकि मुजाहिदीन नजीबुल्लाह सरकार को हटाना चाहते थे.
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1992
नजीबुल्लाह को सत्ता से बेदखल कर दिया गया. दरअसल सोवियत संघ ने नजीबुल्लाह सरकार को सहायता देनी बंद कर दी थी जबकि मुजाहिदीन को लगातार पाकिस्तान की मदद मिल रही थी. लेकिन नजीबुल्लाह के हटने के बाद फिर गृह युद्ध शुरू हो गया जो कहीं ज्यादा खूनी और खतरनाक था.
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1996
तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया और देश में कट्टरपंथी इस्लामी शासन लागू किया. दफ्तरों में महिलाओं के काम करने पर रोक गई और इस्लामी सजाओं का चलन शुरू हो गया जिसमें पत्थर मार कर मौत के घाट उतारना या फिर शरीर का कोई अंग काट देना भी शामिल था.
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1997
पाकिस्तान और सऊदी अरब ने तालिबान की सरकार को मान्यता दी. अब अफगानिस्तान के दो तिहाई हिस्से पर उनका नियंत्रण था. अमेरिका ने 1998 में अल कायदा नेता ओसामा बिन के कुछ ठिकाने पर हमले किए, जो उसे अमेरिका में अपने दूतावासों पर हुए हमलों का जिम्मेदार मानता था.
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2001
ये अफगानिस्तान के हालिया इतिहास का सबसे अहम साल है. 2001 में तालिबान के सबसे बड़े विरोधी नॉर्दन एलायंस के नेता अहमद शाह मसूद की हत्या की गई. इसी साल अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले हुए. इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल किया. जर्मन शहर बॉन में हुए समझौते के तहत हामिद करजई को अंतरिम साझा सरकार की कमान सौंपी गई.
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2002
नाटो के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग बल (आईसैफ) की तैनाती हुई. इसी साल जहीर शाह अफगानिस्तान लौटे लेकिन उन्होंने सत्ता पर कोई दावा नहीं किया. इसी साल लोया जिरगा में हामिद करजई को अंतरिम राष्ट्र प्रमुख चुना गया, जो 2014 तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रहे.
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2008
राष्ट्रपति करजई ने चेतावनी दी कि अगर पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में हमले करने वाले तालिबान चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, तो अफगान सैनिक उनसे निपटने के लिए पाकिस्तान की सीमा में दाखिल होंगे. इसी साल काबुल में मौजूद भारतीय दूतावास पर हमले में 50 से ज्यादा लोग मारे गए. सितंबर 2008 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने साढ़े चार हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान भेजे.
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2009
नाटो देशों ने अफगानिस्तान में 17 हजार सैनिक तैनात करने का संकल्प किया. दिसंबर 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में तीस हजार और सैनिक भेजने का एलान किया जिसके बाद वहां एक लाख अमेरिकी सैनिक हो गए. उन्होंने यह भी घोषणा की कि 2011 से अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से हटना शुरू कर देगी.
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2012
नाटो शिखर सम्मेलन में 2014 तक विदेशी सैनिकों के युद्धक मिशन को खत्म करने का समर्थन किया गया. फ्रांस के राष्ट्रपति ने योजना से एक साल पहले 2012 तक ही अपने सैनिक हटा लेने की घोषणा की. इसी साल टोक्यो में दानदाता सम्मेलन में अफगानिस्तान को 16 अरब डॉलर की असैन्य मदद का वादा किया गया.
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2014
इस साल अशरफ गनी अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति बने. लेकिन यह साल काबुल में एक बड़े हमले का गवाह बना. राजनयिक इलाके में हुए हमले में 13 विदेशी नागरिक मारे गए. इनमें अफगानिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख भी थे. इसी साल नाटो का 13 साल से चल रहा युद्धक मिशन भी खत्म हो गया.
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2015
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि राष्ट्रपति गनी के आग्रह पर कुछ देरी से अमेरिकी सैनिकों को हटाया जाएगा. इसी साल कतर में तालिबान के प्रतिनिधियों और अफगान सरकार के बीच पहली बार शांति वार्ता हुई. तालिबान बातचीत जारी रखने पर सहमत हुआ, लेकिन लड़ाई रोकने पर नहीं.
तथाकथित इस्लामिक चरमपंथी संगठन ने नंगरहार में तोरा बोरा के पहाड़ी इलाकों पर कब्जा कर लिया. कभी अल कायदा नेता ओसामा बिन इस ठिकाने को इस्तेमाल किया करता था. इसी साल अगस्त में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वह तालिबान से लड़ने के लिए और फौजी अफगानिस्तान भेज रहे हैं.
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2019
अफगानिस्तान अपनी आजादी के 100 साल बाद भी दुनिया के सबसे अशांत और गरीब देशों में शामिल है. तालिबान से शांति वार्ता जारी है. वहां रहने वाले लोगों के लिए हालात दयनीय बने हुए हैं. अब भी बहुत से लोग दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं.