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तिहाड़ के कैदियों को नौकरी

१९ अप्रैल २०११

यूनिवर्सिटी कैम्पस में कंपनियों का रिक्रूटमेंट के लिए आना आम बात है, लेकिन ऐसा देखने को कम ही मिलता है कि कंपनियां भर्ती के लिए जेल पहुंच जाएं. पिछले दिनों कई बड़ी कम्पनियां दिल्ली की तिहाड़ जेल पहुंची.

तस्वीर: picture alliance/dpa

दिल्ली की तिहाड़ जेल एशिया की सबसे बड़ी जेल है. पिछले हफ्ते 13,000 कैदियों वाली यह जेल किसी यूनिवर्सिटी जैसी लग रही थी, जब यहां आठ कंपनियां नए कर्मचारियों की तलाश में पहुंची. दो दिन तक इंटरव्यू चले और आखिरकार 40 कैदियों को नौकरियां मिल गईं.

जेल नंबर तीन के संदीप भटनागर इन में से एक हैं. 40 वर्षीय संदीप 2006 में मानव बम बनकर बैंक में डांका डालने की कोशिश में अंदर हुए. लेकिन अब सम्मान के साथ बाहर जा रहे हैं. हाथ में नौकरी है. नौकरी मिलने से संदीप बेहद खुश है, "मैं पांच साल से यहां हूं. अभी मेरे मामले की सुनवाई हो रही है. मुझ पर डकैती का मुकदमा चल रहा है. मैंने तीन चार नौकरियों के लिए इंटरव्यू दिया और उनमें से दो मुझे मिल गईं. यह जानकर अच्छा लग रहा है कि जब मैं यहां से बाहर निकलूंगा तो पहले से ही हाथ में कुछ होगा. कम से कम अब मैं अपने भविष्य और अपने परिवार के बारे में सोच सकता हूं. जेल प्रशासन ने यह बहुत अच्छा काम किया."

नौकरी पा कर खुश हैं अमित कुमार झातस्वीर: DW/M.Krishnan

अच्छे बर्ताव वालों को ही नौकरी

संदीप के ब्लॉक से कुछ ही दूर है अमित कुमार झा का ब्लॉक. अमित को अपहरण के आरोप में सात साल की सजा मिली है, अब नौकरी मिल जाने पर अमित उम्मीद कर रहा है कि वो एक अच्छी जिंदगी बसर कर सकेगा, "जेल में बैठकर हवाई किले बनाने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि बाहर जा कर जैसा आप चाहते हैं वैसा कुछ भी नहीं हो पाता. लेकिन जब मैंने कैम्पस इंटरव्यू के बारे में सुना तो मैं यकीन ही नहीं कर सका. मेरी सोच बदल गई. मुझे बताया गया था कि केवल वही लोग नौकरी के लिए अर्जी दे सकते हैं, जिनका बर्ताव अच्छा रहा है. जेल प्रशासन नहीं चाहता कि ऐसे लोगों को नौकरियां मिले जो दोबारा कोई अपराध कर सकते हैं."

नौकरी पाने वाले अधिकतर कैदियों ने अपनी पढ़ाई जेल में ही पूरी की है. इन में से कुछ तो ऐसे भी हैं जो पहले पढ़ लिख नहीं सकते थे और अब उनके हाथ में डिग्री है.

संदीप भटनागर और जेल के सुप्रीटेंडेंट एमके दिवेदीतस्वीर: DW/M.Krishnan

जेल में शिक्षा

इस सब के पीछे जेल के सुप्रीटेंडेंट एमके दिवेदी की मेहनत है. दिवेदी बताते हैं कि किस तरह से इस सपने को साकार करने में सालों लग गए. वह कहते हैं, "जब मैं यहां सुप्रीटेंडेंट के तौर पर आया था, तब ज्यादातर कैदियों की पढ़ाई में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. तब मैंने सोचा कि जेल के बाहर अगर लोगों को पढ़ने के बाद नौकरियां मिलती हैं तो कंपनियां यहां क्यों नहीं आ सकती. फिर मैंने इस दिशा में काम करना शुरू किया. मुझे अपने स्टाफ और कैदियों से पूरा समर्थन मिला. मैंने इस पर ध्यान दिया कि उन्हें अच्छी शिक्षा मिल सके. फिर हमने जानकारों से पता करना शुरू किया कि कंपनियों को किस चीज की तलाश होती है. अंत में हमने कंपनियों से संपर्क किया, उन्होंने भी रुचि दिखाई और हमें सफलता हासिल हुई."

पहले इंटरव्यू की सफलता को देखते हो दिवेदी ने अभी से दूसरे राउंड की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं. वो उम्मीद कर रहे हैं कि इस बार और भी कैदियों को नौकरियां मिल सकेंगी. इस तरह की पहल से तिहाड़, जेल से बढ़ कर एक ऐसी जगह बन गई है जहां बिगड़े हुए लोग अंदर जाते हैं और उनमें से कई जब बाहर निकलते हैं तो एक पढ़े लिखे और जिम्मेदार नागरिक होते हैं.

रिपोर्ट: मुरली कृष्णन/ईशा भटिया

संपादन: ओ सिंह

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