एक साल में तीसरी बार इस्राएल की जनता आम चुनाव में मतदान कर रही है. क्या इन चुनावों में फिर से चुने जाने के साथ ही प्रधानमंत्री नेतन्याहू के लिए इस्राएल में चला आ रहा राजनीतिक गतिरोध खत्म हो जाएगा?
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आपराधिक अभियोग झेल रहे प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू एक बार फिर जीत दर्ज करने के लिए बेकरार हैं. दक्षिणपंथी विचारधारा वाले नेतन्याहू के खिलाफ दो हफ्ते बाद ही मुकदमे की सुनवाई शुरु होने वाली है. वह सबसे लंबे समय तक इस्राएल का नेतृत्व करने वाले नेता के रूप में इतिहास बना चुके हैं. जनवरी में उन पर आधिकारिक रूप से घूसखोरी, धोखाधड़ी और विश्वास-भंग करने के आरोप तय हुए हैं. पिछले साल अप्रैल और सितंबर में हो चुके चुनाव के नतीजों से पता चलता है कि कैसे इतने आरोप लगने के बावजूद जनता में उनका समर्थन बना हुआ है. नेतन्याहू पहले इस्राएली प्रधानमंत्री हैं जिनके खिलाफ ऐसे आपराधिक आरोप तय हुए हैं.
इस चुनाव के पहले हुए तमाम सर्वेक्षण दिखाते हैं कि तीसरी बार भी उनकी लिकुद पार्टी और सेंट्रिस्ट ब्लू एंड व्हाइट पार्टी के नेता और पूर्व सेना प्रमुख रह चुके बेनी गांत्स के बीच टक्कर कांटे की होगी. अनुमान है कि दोनों ही पक्ष बहुमत पाने से चूक जाएंगे और संसद की 61 सीटें नहीं जीत पाएंगे. इसका मतलब यह हुआ कि दोनों ही पक्ष अन्य छोटी पार्टियों से गठजोड़ कर एक स्थायी गठबंधन बनाने की कोशिश करेंगे. हालांकि पिछले दो चुनावों में ऐसा भी संभव नहीं हो पाया और गतिरोध बना रहा. देश में करीब 64 लाख वोटर हैं जिनमें से कई अब भी दोनों में से किसी एक पार्टी का समर्थन नहीं करना चाहते.
एक बात जो लगभग सभी नेता मानते हैं, वह यह कि वे अब चौथी बार चुनाव नहीं करवाना चाहेंगे. केयरटेकर सरकार देश का बजट पास नहीं कर सकती और इसी कारण इस्राएल में कई सामाजिक कार्यक्रमों के लिए धनराशि भी नहीं मिल पा रही है. 70 वर्षीय नेता नेतन्याहू के मामले के सुनवाई 17 मार्च से शुरु होनी है.
नेतन्याहू को चुनौती पेश कर रहे नेता गांत्स की आलोचना इस बात पर होती है कि वे केवल नेतन्याहू के विरोध की राजनीति करते हैं लेकिन खुद देश के लिए अपनी परिकल्पना पेश नहीं करते. अप्रैल के चुनाव में दोनों ही प्रमुख पार्टियों को 35-35 सीटें मिली थीं. सितंबर चुनाव में लिकुद के 32 के मुकाबले ब्लू एंड व्हाइट को 33 सीटें मिली थीं. इन दोनों के अलावा सितंबर चुनाव में जिस अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स पार्टी ने 17 सीटें जीती थीं, उसने इस बार नेतन्याहू को समर्थन देने की घोषणा कर दी है. वहीं इस्राएल के अरब अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने वाले गठबंधन 'द ज्वाइंट लिस्ट' ने सितंबर में अपनी 13 सीटें जीतने के बाद गांत्स को समर्थन दिया था.
इसी साल जनवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने एक शांति प्रस्ताव पेश किया था जिसमें एक तरह से उन्होंने ऑक्यूपाइड वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों को काट कर अलग कर देने को हरी झंडी दिखाई थी. जाहिर हैं कि इस प्रस्ताव से फलस्तीन काफी नाखुश हुआ था. लेकिन अमेरिकी समर्थन के कारण नेतन्याहू का मनोबल और बढ़ा और उन्होंने इन चुनाव प्रचार अभियानों में यह संदेश दिया कि उस इलाके में वे हजारों और यहूदियों को बसाएंगे. इस विवादित इलाके में बसी बस्तियों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय अवैध मानता आया है.
कोरोना वायरस के खतरे के बीच ही लोग वोट डाल रहे हैं. देश में संक्रमण के 10 मामले सामने आ चुके हैं. जो कुछ हजार लोग खुद सावधानी बरतते हुए क्वारंटाइन में जी रहे हैं उनके लिए विशेष वोटिंग बूथ बनाए गए हैं. यह वे लोग हैं जो हाल ही में कोरोना प्रभावित इलाकों की यात्रा से लौटे हैं. राजनीतिक जानकार नतीजों को लेकर जो सबसे बड़ा डर जता रहे हैं, वह यह है कि देश को इस बार भी कोई स्पष्ट विजेता नहीं मिल पाएगा.
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
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क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
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जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
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बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
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इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
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बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
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इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
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हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
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हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
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कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
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नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
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कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
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सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]