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तुम्हारी सहिष्णुता मेरी सहिष्णुता

महेश झा
६ नवम्बर २०१५

मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत पहली बार व्यापक राजनीतिक संकट झेल रहा है, बौद्धिक संकट के रूप में. सहिष्णुता की बहस में मुद्दे पीछे छूट गए. भारत को विकास की पटरी पर लाने के लिए विवाद के मुद्दों पर बहस करने की जरूरत है.

तस्वीर: Reuters/D. Ismail

पिछले दिनों कुछ साहित्यकारों, कलाकारों, फिल्मकारों ने दादरी जैसी कुछ घटनाओं और उन पर हुई प्रतिक्रिया के बाद पुरस्कार लौटाना शुरू कर दिया. समाज के असहिष्णु होते माहौल की बहस देश की सरकार के विरोध की बहस में बदल गई. अगर पीछे मुड़कर देखें तो इस बहस में सत्ताधारी बीजेपी के सांसदों और उन्हें समर्थन देने वाले गुटों का प्रमुख योगदान रहा है. सरकार समर्थकों के बचाव में उतरने के कारण ही सुरक्षा, सांप्रदायिक सद्भाव और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे विषय सरकार विरोधी दिखने लगे.

महेश झा

इस बात से किसी को इंकार नहीं हो सकता कि भारत का समाज आम तौर पर असहिष्णु दिखता है. ऐसा नहीं होता तो किताबें बैन नहीं की जाती, फिल्मों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन नहीं होते और भाषणों में असभ्य और आक्रामक शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता. असहिष्णुता पर चल रही बहस से यह बात सामने आई है कि कभी न कभी सभी इसका शिकार रहे हैं. लेकिन जिस तरह से असहिष्णुता को नकारने की कोशिश हो रही है, उससे मूल मुद्दा पीछे छूट रहा है. इस बहस में ऐसे ऐसे लोग शामिल हैं जो पूरे देश के आदर्श रहे हैं. लेकिन बहस के कारण वे किसी पार्टी या किसी विचारधारा के पिछलग्गू लगने लगे हैं.

अर्थशास्त्री विवेक देवरॉय ने शिकायत की है कि उनके विचारों के कारण उन्हें कांग्रेस शासन के दौरान राजीव गांधी ट्रस्ट से निकाला गया था. ऐसे में उन्हें असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठाने वालों की कतार में सबसे आगे होना चाहिए था, ताकि भविष्य में किसी के साथ ऐसा न हो और बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ और आम नागरिक एक दूसरे का सम्मान करना सीखें. लेकिन हो उल्टा रहा है. असहिष्णुता के आरोपों के जवाब में असहिष्णुता की ही दलीलें दी जा रही हैं. और बचाव में ताकत का इस्तेमाल साफ झलक रहा है. असहिष्णु शब्दों और कर्म के जरिये सहिष्णुता की वकालत असंभव है.

विरोध लोकतंत्र का आधार है. सत्ता बहुमत से आती है लेकिन दो चुनावों के बीच राय देकर या सरकारी फैसलों का विरोध कर जनता अपनी संप्रभुता दिखाती है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेती है. समझदार सरकारें और नेता भी उस पर प्रतिक्रिया देकर या तो उसे स्वीकार करते हैं या नकार कर अपनी राय के लिए समर्थन जुटाते हैं. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल भी इस समय भयानक विरोध का सामना कर रही हैं, लेकिन उससे निबटने में वह सौम्यता का परिचय दे रही हैं.

भारत में पिछले दिनों में जिन लोगों ने सरकार के खिलाफ शिकायत की है या अपने पुरस्कार लौटाए हैं, उन्होंने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल किया है. यह विरोध किसी खास सरकार के खिलाफ न होकर संस्थाओं के खिलाफ है जो उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे पा रही हैं. सरकार में शामिल लोगों को सहकारी संवाद का सहारा लेकर इस विरोध से निबटना चाहिए था लेकिन इसे सरकार विरोध का नाम देकर विरोधियों से निबटने की, उन्हें कमजोर करने की कोशिश हो रही है. यह ऐसा चक्र है जो इस तरह कभी खत्म नहीं होगा. सरकारों के बदलने के बाद भी चलता रहेगा.

लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, जबानी हिंसा की भी नहीं. पार्टी और संगठनों के नेताओं को अपने कार्यकर्ताओं पर काबू करने की जरूरत है. डर के वातावरण में आर्थिक विकास की कहीं कोई मिसाल नहीं मिलती. भारत भी यदि खाने पहनने और आदतों की बहस में फंसा रहा तो विकास का मौका गंवा देगा. अस्थिर माहौल में बाहर के लोग निवेश नहीं करते और कुशल और चतुर लोग अपने सपनों को साकार करने के लिए शांत माहौल की तलाश में बाहर निकल पड़ते हैं. भारत के सामने कठिन चुनौती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी नेतृत्व की क्षमता का असल परिचय अब देना है.

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