तुर्की में एर्दोवान का नई शक्तियों के साथ राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेना उनकी लंबे समय से चली आ रही कोशिशों का नतीजा है. लेकिन तुर्की बंटा है. DW के गुनार कोएने कहते हैं कि जर्मनी तुर्की के विपक्ष का साथ नहीं छोड़े.
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1990 के दशक में जब रेचेप तय्यप एर्दोवान इस्तांबुल के मेयर थे तो बताते हैं कि उन्होंने कहा था, "लोकतंत्र सड़क पर चलने वाली एक कार है. जब आपकी मंजिल आ जाती है तो आप उसमें से उतर जाते हैं."
64 वर्षीय एर्दोवान अब अपनी मंजिल पर पहुंच गए हैं. उन्होंने खुद को राष्ट्रपति की गद्दी पर बिठा लिया है, अपनी मर्जी का संविधान तैयार कराया है, ताकि वह लगभग असीमित शक्तियों के साथ देश पर राज कर सकें. संसद की अब शायद ही कोई बड़ी भूमिका बची है. एर्दोवान ही लोगों को नियुक्त करेंगे, वही उन्हें बर्खास्त करेंगे, अब चाहे जज हो, मंत्री हो या फिर अध्यापक हो. सप्ताहांत पर उन्होंने 18 हजार सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया और ये बर्खास्त होने वाले आखिरी लोग नहीं हैं.
मिस्र और रूस की तरह
तुर्की अपने 90 साल के इतिहास में कभी एक आदर्श लोकतंत्र नहीं रहा. लेकिन अब जिस तरह संसद से अधिकार छीने गए हैं, उसके बाद तुर्की उसी श्रेणी में आ गया है जिसमें मिस्र और रूस हैं. हालांकि एक अंतर फिर भी है: तुर्की में राजनीतिक विपक्ष कोई छोटा समूह नहीं है, बल्कि उसे लगभग आधी आबादी का समर्थन प्राप्त है.
और ताकतवर हुए तुर्की के एर्दोवान, मिली ये शक्तियां
तुर्की में रेचेप तैयप एर्दोवान फिर पांच साल के लिए राष्ट्रपति बन गए हैं. तुर्की में पहली बार राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू की गई है जिसमें एर्दोवान के पास पहले से कहीं ज्यादा शक्तियां होंगी. एक नजर उनकी ताकतों पर:
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पीएम पद खत्म
तुर्की में प्रधानमंत्री पद खत्म कर दिया गया है. राष्ट्रपति ही अब कैबिनेट की नियुक्ति करेगा. साथ ही उसके पास उपराष्ट्रपति नियुक्त करने का अधिकार होगा. कितने उपराष्ट्रपति नियुक्त करने हैं, यह राष्ट्रपति को तय करना है.
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नहीं चाहिए संसद की मंजूरी
मंत्रालयों के गठन और नियमन के लिए राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करने में सक्षम होंगे. साथ ही नौकरशाहों की नियुक्ति और उन्हें हटाने का फैसला भी राष्ट्रपति करेंगे. इसके लिए उन्हें संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी.
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अध्यादेश की सीमाएं
राष्ट्रपति के ये अध्यादेश मानवाधिकार या बुनियादी स्वतंत्रताओं और मौजूदा कानूनों को खत्म करने पर लागू नहीं होंगे. अगर राष्ट्रपति के अध्यादेश कानूनों में हस्तक्षेप करते हैं तो इस स्थिति में अदालतें फैसला करेंगी.
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आलोचकों की चिंता
आलोचकों का कहना है कि कानूनी संहिता में स्पष्टता की कमी है. साथ ही देश की न्यायपालिका में निष्पक्षता की कमी झलकती है. ऐसे में, इस बात की उम्मीद नहीं है कि अदालतें स्वतंत्र हो कर फैसले दे पाएंगी.
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तो अमान्य होंगे अध्यादेश
राष्ट्रपति को कार्यकारी मामलों पर अपने अध्यादेशों के लिए संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन अगर संसद ने भी उसी मुद्दे पर कोई कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति का अध्यादेश फिर अमान्य हो जाएगा.
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इमरजेंसी
राष्ट्रपति देश में छह महीने तक इमरजेंसी लगा सकते हैं और इसके लिए उन्हें कैबिनेट से मंजूरी हासिल नहीं करनी होगी. इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति के अध्यादेश मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर भी लागू होंगे.
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इमरजेंसी में संसद अहम
इरमजेंसी के दौरान जारी होने वाले राष्ट्रपति के अध्यादेशों पर तीन महीने के भीतर संसद की मंजूरी लेना जरूरी होगी. संसद की मंजूरी के बिना अध्यादेशों की वैधता नहीं होगी.
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संसद का अधिकार
राष्ट्रपति छह महीने की इमरजेंसी तो लगा सकते हैं, लेकिन इस फैसले को उसी दिन संसद के पास भेजा जाएगा. संसद के पास इमरजेंसी की अवधि कम करने, उसे बढ़ाने या फिर इस फैसले को ही रद्द करने का अधिकार होगा.
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बजट
तुर्की में नए सिस्टम के तहत राष्ट्रपति को ही बजट का मसौदा तैयार करना है. अब तक यह जिम्मेदारी संसद के पास थी. अगर संसद राष्ट्रपति की तरफ से प्रस्तावित बजट को नामंजूर करती, तो फिर पिछले साल के बजट को ही "पुनर्मूल्यन दर" के हिसाब से बढ़ाकर लागू कर दिया जाएगा.
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राष्ट्रपति का शिकंजा
सरकारी और निजी संस्थाओं पर नजर रखने वाली संस्था स्टेट सुपरवाइजरी बोर्ड को प्रशासनिक जांच शुरू करने का अधिकार होगा. यह बोर्ड राष्ट्रपति के अधीन है. ऐसे में, सैन्य बलों समेत बहुत सारे समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति के अधीन होंगे.
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सांसद नहीं बनेंगे मंत्री
संसद की सीटों को 550 से बढ़ाकर 600 किया जाएगा. चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम उम्र अब 25 से घटाकर 18 साल कर दी गई है. कोई भी सांसद मंत्री नहीं बन पाएगा. यानी अगर किसी व्यक्ति को मंत्री बनना है तो उसे पहले अपनी संसदीय सीट छोड़नी होगी.
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समय से पहले चुनाव
राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने का अधिकार भी होगा. लेकिन अगर यह कदम उठाया जाता है तो इससे नई संसद के लिए चुनावों के साथ साथ राष्ट्रपति चुनाव भी निर्धारित समय से पहले कराने होंगे.
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दो कार्यकाल की सीमा
राष्ट्रपति अधिकतम पांच पांच साल के दो कार्यकाल तक पद पर रह सकता है. अगर संसद राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में समय से पहले चुनाव कराने का फैसला करती है, तो मौजूदा राष्ट्रपति को अगले चुनाव में खड़े होने का अधिकार होगा.
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संसद का ताना बाना
संसद अपना स्पीकर खुद चुनेगी. इसका मतलब है कि अगर संसद में विपक्ष का बहुमत होगा तो वहां बनने वाले कानूनों में उनके नजरिए की झलक होगी. हालांकि फिलहाल संसद में भी एर्दोवान और उनके सहयोगियों का बहुमत है.
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अगर एर्दोवान और उनके समर्थक यह सोचते हैं कि अब से देश पर पूरी तरह उनका राज हो जाएगा तो वे एक बड़ा जोखिम उठा रहे हैं. वह उदारवादी सोच वाले हर अध्यापक को सड़क पर लाकर खड़ा कर सकते हैं और इस्लाम की कक्षाएं बढ़ा सकते हैं. वे बाकी बचे यूनिवर्सिटी प्रोफेसर की हैसियत को घटा कर यहां तक ला सकते हैं कि वे बस ऊपर से मिलने वाले आदेशों को मानें,. वह पश्चिमी रुझान और उन्नतशीलता की बात करने वाली कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं और सरकारी कॉन्ट्रैक्ट सिर्फ अपने चहेतों को बांट सकते हैं. वह पश्चिम को निशाना बनाना जारी रख सकते हैं, फ्रेंडली मीडिया के जरिए जनता को बरगलाते रहेंगे और कुर्दों की मांगों को ज्यादा हिंसा के साथ दबाना जारी रख सकते हैं.
एर्दोवान सब कुछ कर सकते हैं. इसकी जरूरत तब पड़ेगी जब लंबे समय से किए जा रहे आर्थिक और राजनीतिक वृद्धि के वादे पूरे नहीं होंगे. वैसे तुर्की की मुद्रा लीरा में गिरावट और तेजी से बढ़ती मुद्रास्फीति एक गंभीर संकट के पहले संकेत हैं.
यह अब तक साफ नहीं है कि नई व्यवस्था काम करेगी भी या नहीं. हालांकि एर्दोवान ने तुर्की की जनता से वादा किया है कि वह भारी भरकम नौकरशाही की जगह एक ऐसा सिस्टम लाएंगे जो कारगर होगा. वैसे उन्होंने दर्जनों उप राष्ट्रपति पद और सलाहकार आयोग बनाए हैं, जिसकी दक्षता भी अस्पष्ट है. एर्दोवान निजी रूप से सब कुछ नियंत्रित करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें ऐसे लोगों की जरूरत है जो सिर्फ उनकी हां में हां ना मिलाएं बल्कि काम भी करें.
एर्दोवान अपनी योजनाओं को सिर्फ डंडे के जोर पर ही लागू कर सकते हैं. अगर उन्होंने ढील दी, तो देश पर शासन करना मुश्किल हो जाएगा. उन्हें यह बात पता है. फिर भी वह मेलमिलाप के संकेत दे रहे हैं. उन्होंने गैर राजनीतिक स्वतंत्र विशेषज्ञों को मंत्री बनाने की घोषणा की है. लेकिन इस तरह के संकेतों को सिर्फ अन्य देशों और विदेशी निवेशकों को शांत कराने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए.
लोकतंत्र का समर्थन करने वाले तुर्क लोगों के लिए काला अध्याय शुरू हो रहा है. इससे पहले कभी उनका वास्ता एर्दोवान जितने ताकतवर विरोधी से नहीं पड़ा था. चुनावों में हार के तौर पर मिली मायूसी के बावजूद तुर्की का विपक्ष जल्द ही अपनी ताकत को पहचानेगा.
भविष्य में जर्मनी और यूरोप को तुर्की के इस विपक्ष को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए. जो सरकार विरोधी भागने को मजबूर हैं, हमें उनको सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिए और तुर्की पर दबाव बढ़ाना चाहिए. यूरोपीय संघ ने कस्टम यूनियन के विस्तार को लेकर तुर्की के साथ होने वाली वार्ताओं को अस्थायी तौर पर रोक कर बिल्कुल सही किया. तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल करने को लेकर चल रही वार्ताएं भी तुरंत बंद हो सकती हैं. अभी जो स्थिति है, उसे देखते हुए इन वार्ताओं का कोई मतलब नहीं है.
देखिए कितना बदल गया तुर्की
कितना बदल गया तुर्की
बीते 15 साल में तुर्की जितना बदला है, उतना शायद ही दुनिया का कोई और देश बदला होगा. कभी मुस्लिम दुनिया में एक उदार और धर्मनिरपेक्ष समाज की मिसाल रहा तुर्की लगातार रूढ़िवाद और कट्टरपंथ के रास्ते पर बढ़ रहा है.
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एर्दोवान का तुर्की
इस्लामी और रूढ़िवादी एकेपी पार्टी के 2002 में सत्ता में आने के बाद से तुर्की बहुत बदल गया है. बारह साल प्रधानमंत्री रहे रेचेप तैयप एर्दोवान 2014 में राष्ट्रपति बने और देश को राष्ट्रपति शासन की राह पर ले जा रहे हैं.
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बढ़ा रूढ़िवाद
तुर्की इन सालों में और ज्यादा रूढ़िवादी और धर्मभीरू हो गया. जिस तुर्की में कभी बुरके और नकाब पर रोक थी वहां हेडस्कार्फ की बहस के साथ सड़कों पर ज्यादा महिलायें सिर ढंके दिखने लगीं.
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कमजोर हुई सेना
एकेपी के सत्ता में आने से पहले तुर्की की राजनीति में सेना का वर्चस्व था. देश की धर्मनिरपेक्षता की गारंटी की जिम्मेदारी उसकी थी. लेकिन एर्दोवान के शासन में सेना लगातार कमजोर होती गई.
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अमीर बना तुर्की
इस्लामी एकेपी के सत्ता में आने के बाद स्थिरता आई और आर्थिक हालात बेहतर हुए. इससे धनी सेकुलर ताकतें भी खुश हुईं. लेकिन नया धनी वर्ग भी पैदा हुआ जो कंजरवेटिव था.
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अक्खड़ हुआ तुर्की
एर्दोवान के उदय के साथ राजनीति में अक्खड़पन का भी उदय हुआ. खरी खरी बातें बोलने की उनकी आदत को लोगों ने इमानदारी कह कर पसंद किया, लेकिन यही रूखी भाषा आम लोगों ने भी अपना ली.
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नए सियासी पैंतरे
विनम्रता, शिष्टता और हया को कभी राजनीति की खूबी माना जाता था. लेकिन गलती के बावजूद राजनीतिज्ञों ने कुर्सी से चिपके रहना और दूसरों की खिल्ली उड़ाना सीख लिया. एर्दोवान के दामाद और उर्जा मंत्री अलबायराक.
तस्वीर: Reuters/M. Sezer
नेतृत्व की लालसा
कमालवाद के दौरान तुर्की अलग थलग रहने वाला देश था. वह दूसरों के घरेलू मामलों में दखल नहीं देता था. लेकिन एर्दोवान के नेतृत्व में तुर्की ने मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की ठानी.
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लोकतांत्रिक कायदों से दूरी
एकेपी के शासन में आने के दो साल बाद 2004 में यूरोपीय संघ ने तुर्की की सदस्यता वार्ता शुरू करने की दावत दी. तेरह साल बाद तुर्की लोकतांत्रिक संरचना से लगातार दूर होता गया है.
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ईयू से झगड़ा
तुर्की ने 2023 तक यूरोपीय संघ का प्रभावशाली सदस्य बनने का लक्ष्य रखा है. लेकिन अपनी संरचनाओं को ईयू के अनुरूप ढालने के बदले वह लगातार यूरोपीय देशों से लड़ रहा है.
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तुर्की में धर पकड़
2016 में तख्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद तुर्की में हजारों सैनिक और सरकारी अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया है और सैकड़ों को जेल में डाल दिया गया है.
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एर्दोवान की ब्लैकमेलिंग?
2016 के शरणार्थी संकट के बाद एर्दोवान लगातार जर्मनी और यूरोप पर दबाव बढ़ा रहे हैं. पिछले दिनों जर्मनी के प्रमुख दैनिक डी वेल्ट के रिपोर्टर डेनिस यूशेल को आतंकवाद के समर्थन के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Arnold
इस्लामिक देश होगा तुर्की?
अप्रैल 2017 में तुर्की में नए संविधान पर जनमत संग्रह हुआ, जिसने देश को राष्ट्रपति शासन में बदल दिया. अब एर्दोवान 2034 तक राष्ट्रपति रह सकेंगे. सवाल ये है कि क्या तुर्की और इस्लामिक हो जाएगा.