तूतीकोरिन में पुलिस फायरिंग में 11 लोगों की मौत के बाद आंदोलनों में पुलिस की भूमिका विवादों में हैं. जनता के खिलाफ ताकत के इस्तेमाल के बदले पुलिस को तनाव घटाने की रणनीति सीखनी चाहिए. इससे पुलिस में भरोसा भी बढ़ेगा.
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44 साल पहले बिहार छात्र आंदोलन के दौरान मैंने पहली बार प्रदर्शनकारियों पर पुलिस फायरिंग और लोगों के मरने की बात सुनी थी. उस आंदोलन के बहुत से नेता आज प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं. वे सत्ता में रहने के दौरान विरोध के लिए उदार वातावरण बना सकते थे, लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए तो बहुत कुछ किया है, समाज को बदलने के लिए कुछ करने का शायद उनके पास समय नहीं था.
पुलिस का काम राज्य व्यवस्था के प्रतिनिधि के रूप में कानून और व्यवस्था बनाए रखना है. लोकतंत्र में जनता व्यवस्था बनाने में हिस्सा लेती है, इसलिए पुलिस लोकतांत्रिक राज्य और उसकी जनता की है. उस जनता को सुरक्षा देना पुलिस का कर्तव्य और जिम्मेदारी है. लेकिन पुलिस जनता समझती किसे है? क्या पर्यावरण के लिए विरोध करने वाले या प्रदूषण को रोकने की मांग करने वाले राज्य के भविष्य की रक्षा के लिए नहीं लड़ रहे? फिर उनके साथ इतनी बेरहमी क्यों?
राज्य सत्ता निरंकुश होती है. वह शक्ति दिखाकर लोगों को कानून पालक बनाना चाहती है. ऐसा हर कहीं है. लेकिन लोकतंत्र का मतलब सिर्फ बहुमतवाद नहीं है, जिसमें बहुमत से सत्ता में आए लोग निरंकुश शासक सा व्यवहार करें या एक खास अवधि के लिए निर्वाचित तानाशाह हो जाएं. लोकतंत्र का मतलब फैसला लेने में लोगों की भागीदारी है. और उस भागीदारी को तथा फैसला लेने की प्रक्रिया को बातचीत के जरिए ही सुनिश्चित किया जा सकता है.
भारत में कई कारणों से आक्रोश और आक्रामकता बढ़ रही है. उन कारणों पर गौर किए जाने की जरूरत है. साथ ही पुलिस को गंभीरता से बल प्रयोग के बदले तनाव घटाने की नीति पर काम करना चाहिए. बल दिखाना आसान होता है, बातचीत के जरिए समझाना उतना आसान नहीं होता. लेकिन इस प्रक्रिया से नागरिकों को कानून पालक बनाने में भी आसानी होगी और वे पुलिस को अपनी पुलिस समझ पाएंगे. आंदोलनों को दबाने और कुचलने की ब्रिटिश नीति का 70 साल के युवा भारतीय लोकतंत्र को जल्द से जल्द परित्याग करना चाहिए और नागरिकों और प्रशासन को साझेदार बनाने की शुरुआत होनी चाहिए.
पिछले साल जर्मनी के हैम्बर्ग में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान पुलिस ज्यादतियों की बड़ी आलोचना हुई है, लेकिन आंदोलनों के दौरान हिंसा और तनाव से निपटने में कई जर्मन प्रांतों की पुलिस बातचीत के जरिए तनाव कम करने की नीति का सहारा ले रही हैं. बर्लिन में सालों से हिंसा की गवाह बनने वाली मई दिवस की रैली में इस साल कोई हिंसा नहीं हुई. अंतरराष्ट्रीय संबंधों का पुराना सिद्धांत है कि जब तक बातचीत होती रहे, गोली नहीं चलती. घरेलू मोर्चे पर भी यही लागू होता है, जब तक बातचीत होती रहे, हिंसा नहीं भड़केगी. पुलिस को ऐसी टीमों को प्रशिक्षण देना होगा, जो प्रदर्शनकरियों से बात कर सकें और हिंसा को रोकने में उनका समर्थन हासिल कर सकें.
एक बात और. राजनीतिक विवादों का हल राजनैतिक स्तर पर ही निकालना होगा. जनता की चिंताओं को दूर करना या उन्हें समझाना कि उनकी चिंता गलत है, यह काम भी राजनीतिज्ञों का ही है. पुलिस का इस्तेमाल कर अपनी बात मनवाई जा सकती है, लोगों को आश्वस्त नहीं किया जा सकता है. आखिर ये वही लोग हैं जिनके नाम पर राजनीतिज्ञ शासन कर रहे हैं. पुलिस बदली जा सकती है लेकिन जनता तो कहीं और से नहीं लाई जा सकती.
विरोध संस्कृति के सितारे
विरोध की संस्कृति की सबसे ताजा मिसाल अमेरिका में पुलिस हिंसा का प्रतिरोध करती एक महिला की तस्वीर है. ये तस्वीर सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फैल गई. बार बार ऐसी तस्वीरें समूचे आंदोलन का प्रतीक बन जाती है.
तस्वीर: Getty Images/R. Stothard
गोलियाथ के खिलाफ डेविड
जुलाई 2016: मोमबत्ती की तरह सीधी और मूर्ति की तरह शांत. ये तस्वीर है न्यू यॉर्क की ईशिया इवांस की जो दंगा विरोधी पुलिस की एक कतार के सामने अडिग होकर खड़ी है. यह तस्वीर लुइजियाना के बैटन रूज में ब्लैक लाइव्स मैटर्स विरोध प्रदर्शन के दौरान खींची गई है. क्या यह तस्वीर अमेरिका में पुलिस की नस्ली हिंसा का विरोध करने वाले आंदोलन का प्रतीक बनेगी?
तस्वीर: Reuters/J. Bachman
नागरिक सवज्ञा
दिसंबर 1955: पब्लिक ट्रांसपोर्ट की एक बस में सांवले रंग वाली रोजा पार्क को एक सफेद चमड़ी वाले पैसेंजर के लिए सीट छोड़ने को कहा गया. विरोध करने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 10 डॉलर का जुर्माना किया गया. मार्टिन लुथर किंग के नागरिक अधिकार आंदोलन ने एक साल तक बसों का बहिष्कार किया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने नस्ली भेदभाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया.
तस्वीर: picture alliance/AP Images
फूल सी बच्ची
अक्टूबर 1967: 17 वर्षीया जेन रोज कासमीर ने वाशिंगटन में वियतनाम युद्ध के खिलाफ एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की तनी हुई बंदूकों के सामने हाथों में गुलदावदी का फूल थाम रखा है. कई साल बाद युद्ध विरोधी कासमीर ने कहा था, "वे नौजवान ही तो थे. वे मेरे दोस्त या मेरे भाई हो सकते थे. और वे पूरे मामले में पीड़ित ही थे."
तस्वीर: Marc Riboud/Magnum Photos
युद्ध के बदले प्यार
मार्च 1969: हिप्पी आंदोलन के सितारे जॉन लेनन और योको ओनो एक बिस्तर में. एक नवविवाहित जोड़े के लिए इसमें कुछ भी खास नहीं है. लेकिन दोनों ने एम्सटरडम के एक लक्जरी होटल में प्रेस को बेड इन के लिए बुलाया और संदेश दिया, मेक लव नॉट वार. ये पीआर एक्शन इतना कामयाब हुआ कि इसे दो महीने बाद मॉन्ट्रियाल में फिर से दोहराया गया.
तस्वीर: picture alliance/AP Images
अनजाना विद्रोही
जून 1989: खरीदारी का झोले लिए यह व्यक्ति चीनी सेना के टैंक के सामने उसे रोक कर खड़ा हो गया. एक दिन पहले ही साम्यवादी सरकार ने राजधानी बीजिंग में लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचल दिया था. कितने लोग मारे गए किसी को पता नहीं. बहुत से फोटोग्राफरों ने ये तस्वीर खींची लेकिन टैंक को रोके खड़े शांतिपूर्ण विद्रोही का नाम कोई नहीं खोज पाया है.
तस्वीर: picture alliance/AP/J. Widener
वायरल वीडियो
नवंबर 2011: एक वीडियो ऑकुपाई आंदोलन का प्रतीक बन गया. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के डेविस कैंपस में फीस बढ़ाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने जब धरने से हटने से मना कर दिया तो एक पुलिस वाले ने उन्हें तितर बितर करने लिए उन पर पेपर स्प्रे करना शुरू कर दिया. वीडियो वाइरल हो गया और पुलिस के बल प्रयोग पर बहस छिड़ गई.
तस्वीर: picture alliance/AP Images/W. Tilcock
लाल परी
मई 2013: सेइदा सुंगर अपने लाल लिबास में इस्तांबुल के गेजी आंदोलन का प्रतीक बन गई. गेजी पार्क को खत्म कर वहां इमारतें बनाने वाले प्रोजेक्ट के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले हजारों लोगों में वे भी शामिल थीं. यह राष्ट्रपति रेचप तय्यप एर्दोवान की सरकार के खिलाफ छह महीने तक चले विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत थी जिसमें 8 लोग मारे गए.
तस्वीर: Reuters
आस्था में भरोसा
जनवरी 2014: यूक्रेन की राजधानी कीएव में मैदान आंदोलन के दौरान धूल का गुबार. रूस समर्थक सरकार की दंगा विरोधी पुलिस और पश्चिम समर्थक आंदोलनकारियों के बीच खड़ा एक ऑर्थोडॉक्स पादरी. उसे आसपास के हंगामे की कोई चिंता नही. वह आराम से प्रार्थना कर रहा है और ईश्वर को याद कर रहा है.