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तृतीया पर बाल विवाह का साया

२४ अप्रैल २०१२

भारत में बाल विवाह पर रोक है, लेकिन राजस्थान में बाल विवाह की परंपरा को रोकने की सारी कोशिशें नाकाम रही हैं. गुपचुप होने वाली शादियों में ऐसे लोग भी हिस्सा लेते हैं जिनपर इन्हें रोकने की जिम्मेदारी है.

तस्वीर: AP

अक्षय तृतीया को हिंदुओं का पवित्र दिन माना जाता है. इस मौके पर राजस्थान में बाल विवाह ना होने देने के सरकारी और गैर सरकारी प्रयास फिर एक बार धरे के धरे रह गए. भीलवाडा, उदयपुर, बाड़मेर, नागौर, बूंदी और जैसलमेर के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासन की भरपूर कोशिशों के बावजूद बड़ी संख्या में गुप चुप तरीके से नाबालिग बच्चों के विवाह आखिर संपन्न हो ही गए. कहीं दुधमुहें बच्चे अपनी दूध की बोतलों के साथ तो कहीं आटा गूंधने की परात में फेरे लेते नजर आये. भीलवाड़ा के शाहपुरा कस्बे के कुछ परिजन तो और भी होशियार निकले और उन्होंने अपने बच्चे अक्षय तृतीया के एक दिन पहले ही ब्याह दिए.

क्यों होते हैं बाल विवाह

पुराने जमाने में तो बाल विवाह सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के कारण होते थे. जितनी जल्दी लड़की को ब्याह दिया जाये उतनी ही जल्दी वो बुरी नजरों से महफूज मानी जाती थी. मुगलकालीन इतिहास में, जब रजवाड़ों के बीच लड़ाईयां आम हुआ करती थी, इसे लड़कियों की सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच माना जाता था. गरीबी और शिक्षा की कमी बाल विवाह का दूसरा बड़ा कारण है क्योंकि यह माना जाता है कि लड़की जितनी बड़ी होगी, उसके लिए योग्य लड़का ढूंढना उतना ही मुश्किल होता जायेगा. राजस्थान ही नहीं देश के उन राज्यों में भी बाल विवाह होते हैं जहां शिक्षा की कमी है.

तस्वीर: AP

बाल विवाह के लिए दहेज एक और बड़ा कारण है क्योंकि छोटी उम्र के बच्चों की शादी के समय दहेज की मांग कम रहती है. गावों में तो इन शादियों के होने का एक दूसरा कारण सहूलियत भी है. बड़े बच्चों के साथ-साथ छोटे बच्चों को भी जिम्मेदारी निपटाने के लिए ब्याह दिया जाता है. ग्रामीणों की धारणा है कि शादी के एक आयोजन में ही अगर दो की शादी हो जाती है तो न सिर्फ पैसा बचता है बल्कि समय और श्रम की भी बचत होती है. शायद इन परंपराओं को निभाने की खातिर ही बाल विवाह रुक नहीं पा रहे हैं.

शर्मशार करने वाले आकंड़े

संयुक्त राष्ट्र बाल संस्था यूनिसेफ की मानें तो दुनिया भर की एक तिहाई बाल विधवाएं भारत में रहती हैं. 2007 में यह संख्या दो करोड़ चालीस लाख थी. वृन्दावन के दर्शन कर आईये, सड़कों पर घूमती बालिका वधुएं इस समस्या की भीषणता का खुद ही एहसास करवा देंगी. देश की पैंतालीस प्रतिशत लडकियां और तीस फीसदी लड़के शादी की कानूनी उम्र से कहीं पहले ही ब्याह दिए जाते हैं.

राजस्थान में तो अस्सी प्रतिशत लडकियां पंद्रह साल की होने से पहले ही ब्याह दी जाती है. पुलिस के पास दर्ज मामलों की तुलना करें तो पिछले साल झारखंड में सबसे ज्यादा तेरह प्रतिशत, राजस्थान में दस प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में आठ, बिहार में सात, उड़ीसा में छह और उत्तर प्रदेश में देश की पांच प्रतिशत बाल विवाह सम्बन्धी शिकायतें दर्ज हुईं.

हाथ पर हाथ धरे बैठी सरकार

देश की आजादी से पहले ही 28 सितम्बर 1929 को शारदा एक्ट पारित कर दिया गया था जिस के अनुसार शादी के लिए लड़कों की उम्र १८ वर्ष और लड़कियों की उम्र १४ साल निर्धारित की गयी थी. बाद में इसे लडकों के लिए 21 और लड़कियों के लिए 18 कर दिया गया. परन्तु राजस्थान में पुराने बाल विवाहों के मामलों को पंजीकृत कराने के राज्य सरकार के फैसले ने एक और बहस को जन्म दे दिया.

तस्वीर: AP

विशेषज्ञों का मत था कि सरकार का यह कदम, गैर कानूनी शादियों को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश है. बाल विवाह पर कानूनी रोक है लेकिन इसके बावजूद सरकार के मंत्री से लेकर संतरी तक ऐसी शादियों में शामिल होते हैं. ऐसी कोई संस्था नहीं जो अपराध में साथ देने वालों के खिलाफ कार्रवाई करे, हर साल बाल विवाह के अपराध को नजरअंदाज किया जाता है. चूंकि विवाह समारोह जातिगत मुद्दों से जुड़े हैं और नेताओं को अपनी जाति के वोटों की दरकार रहती है इस लिए वे इस अभिशाप को नजरंदाज कर रहे हैं.

समाज में जागरुकता की जरूरत

राजस्थान के जोधपुर के लूनी कस्बे की एक बालिका वधु जो मात्र एक वर्ष की उम्र में ही ब्याह दी गयी थी और जिसके ससुराल वाले उसे इस अक्षय तृतीया पर अपने साथ ले कर जाना चाहते थे, समाचार पत्रों की सुर्खियों में है. उस लड़की ने हिम्मत दिखाई है और अपनी बचपन की शादी को सिरे से नकारते हुए राज्य सरकार से उसे निरस्त करने की मांग की है.

उदयपुर के भोइवाड़ा कस्बे की एक किशोरी ने भी प्रशासन से अपना बाल विवाह रुकवाने और पढाई जारी रखने की गुहार लगाई है. नागौर जिले की जायल तहसील में कम उम्र में ब्याह दी गयी कई लडकियां एक स्वयं सेवी संस्था के सहयोग से आगे पढ़ रही हैं. वे अपनी शादी को तो स्वीकार कर चुकी हैं पर अपने भविष्य को सवांरना चाहती हैं.

रिपोर्टः जसविंदर सहगल, जयपुर

संपादनः एन रंजन

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