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तेजपाल कांड के सबक

१२ दिसम्बर २०१३

भारत में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और बलात्कार के मुद्दे पर जितनी बहस हो रही है, उतने ही मामले सामने आ रहे हैं. गोवा में तेजपाल कांड के बाद एक जर्मन महिला के साथ बलात्कार के आरोप में एक योग शिक्षक की गिरफ्तारी हुई.

तस्वीर: DAMIEN MEYER/AFP/Getty Images

“हमारे भीतर का पशु”(द बीस्ट विदइन अस) विषय पर जब थिंकफेस्ट के सज्जित मंच पर चिंतामग्न बहस थी, ठीक उस वक्त, किसे मालूम था किसी के भीतर से पशु उठकर शिकार की टोह में निकल चुका था. चंद घंटों बाद उसका झपट्टा था.

चंद घंटों बाद ये देश की पहली सुर्खी थी. चंद घंटों बाद सब कुछ छिन्नभिन्न हो चुका था. यकीन, मर्यादा, नैतिकता, उसूल. ये जितना नाटकीय था उतना ही भयावह भी. रसूख के किले भरभरा कर गिरे थे. तहलका के तेजपाल कांड की जितनी सनसनी बना लीजिए लेकिन ये मानना पड़ेगा कि उस युवा महिला पत्रकार के साहस की बदौलत आज यौन उत्पीड़न के संशोधित कानून को परखने का मौका आया है और उन बहुत सारी चीजों को भी परखने का मौका आया है जिनसे हमारा ये आधुनिक, पढ़ा लिखा और संभ्रांत समाज संचालित है. सरकारी हो या निजी- हर तरह के प्रतिष्ठान नैतिक इरादों में बाजदफा कितने खोखले हो सकते हैं, ये भी हम परख सकते हैं. ये स्त्री मुक्ति का दावा करने वाले उन पोस्टमॉडर्न आख्यानों को भी समझने का मौका है जिनमें देह विमर्श ही स्त्री विमर्श हो गया है.

असल में रौनक और ग्लैमर से सजी धजी इलीट बहसों में बीस्ट विदइन का विमर्श एक कृत्रिम कसरत थी. बौद्धिक विलास. बाहर निकलकर झपटने से पहले किसी के अंदर का पशु वहीं घात लगाए बैठा रहता है. कोई भला कैसे देखेगा. वो समाज तो सभ्य और कुलीन दिखता है. लेकिन एक स्त्री के साहस ने पशु मानसिकता को पलटकर दबोच लिया. फिर ये आमने-सामने की लड़ाई थी. हेडऑन.

क्यों नहीं थमते बलात्कार के मामले?तस्वीर: picture alliance/AP Photo

स्त्री के विरुद्ध नफरत और हिंसा के सारे आयाम सामने हैं. निर्भया मामला हो या मुंबई का मामला या तेजपाल कांड. ‘पशु' झुग्गी झोपड़ियों और गंदे नालों के किनारों से ही नहीं निकलते, वे ड्राइवर क्लीनर मवाली ही नहीं होते वे सत्ता राजनीति के दबंग और मास मीडिया संस्कृति के कथित नायक और कड़े सिपहसालार भी हो सकते हैं. वे कहीं भी कैसे भी हो सकते हैं. वे आपके बॉस हो सकते हैं, आपके सहकर्मी, आपके रिश्तेदार, चाचा, ताऊ, मामा या भाई.

और ठहरिये, ये मत मान लीजिए कि घात लगाए बैठे ‘पशु' इन्हीं रिश्तों नातों और दोस्तों के बीच हैं, आप इन रिश्तों में स्त्रीलिंग रखते जाइए. कहने का आशय ये कि एक स्त्री का शिकार करने वाली ताकतें उसके बहुत आसपास मंडराती रहती हैं फिर वे चाहे पुरुष हों या महिलाएं.

स्त्री के समूचे अस्तित्व पर पसरी हुईं ये हुकूमतें काश टूट जातीं और स्त्रियां सही मायनों में मुक्त हो पातीं. लेकिन अजीब ये है कि जैसे जैसे हम तरक्की को अग्रसर हैं वैसे वैसे ही हमारे ख्याल और मध्ययुगीन होते जा रहे हैं, हमारी बर्बरताएं और भयानक होती जा रही हैं, जितनी ज्यादा दलीलें और जितना ज्यादा शोर है उतना ही स्त्री अपराध बढ़ते जाते हैं.

क्या कारण है कि आज हम पहले से ज्यादा औरत को एक उत्पाद के रूप में पेश किया जाता देख रहे हैं. टीवी, विज्ञापन, फिल्म प्रस्तुतियों से लेकर फैशन और ग्लैमर की मैगजीनें, कामुकताओं के लिजलिजे अश्लील ब्यौरों से भरी पत्रिकाएं और सेक्स उत्पीड़न और कामातिरेक से भरे उपन्यास आ रहे हैं, उन्हें बाकायदा चिंहित किया जाता है, चर्चा होती है. गुड़गांव के एक मॉल में “फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे” नॉवल दिखा. आक्रामक मार्केटिंग के साथ रखा हुआ. “बैड सेक्स” का तो इनाम भी है. ये महाशय तेजपाल ऐसे ही एक उपन्यास के लिए “चर्चित” भी हैं.

स्त्री को गुलाम बनाने वाले उपक्रमों में क्यों जाते हैं, और क्यों उन ताकतों को जगह बनाने दी जा रही है जो कट्टरपंथी हैं, धार्मिक जुनूनी हैं और सांप्रदायिक हैं. वे जो पूंजीवादी तमाशों का विरोध नहीं करते- स्त्री मुक्ति और उसके अधिकार का विरोध करते हैं. ये कैसा वीभत्स लेकिन अदृश्य गठजोड़ है. औरत पर ये दोतरफा हमला है. शायद चौतरफा या कईतरफा. ये पशु तो कोई अंदर का नहीं है. ये तो समाज में खुला है. धूल उड़ाता हुआ. चौंकाता हुआ. भाषण और मौज करता हुआ, नशा करता हुआ. ईश्वर की दुहाइयां देता हुआ.

ये सत्ता, ताकत, पूंजी और अट्टाहस का पशु है. ये मर्दवाद है. संस्कार और परंपरा की दुहाई देता हुआ, पतियों के लिए चांद की मांग करता हुआ, दहेज मांगता और लाता हुआ, कोख में बच्चियों को मारता हुआ, उन्हें कम खाना कम शिक्षा और सब कुछ कम देकर उन्हें किनारे धकेलता हुआ. ये “मिसाजनस्ट” है. जिसमें पुरुष भी मर्दवादी हैं और महिलाएं भी मर्दवादी हैं. अधकचरी प्रगतिशीलता और अपरिपक्व फेमेनिज्म ये नहीं देखते हैं. वे काल्पनिक लड़ाइयों में जाते हैं और विरोध का उनका टेप स्वचालित है. वहां एक जैसे शब्द और एक जैसी भर्त्सनाएं हैं. स्त्री मुक्ति का एनजीओकरण करने वाली ताकतें आज सक्रिय हो उठी हैं और तेजपाल कांड जैसे मामले उसे पर्याप्त ईंधन देते हैं.

समाज के हर स्तर पर पहल की जरूरततस्वीर: picture-alliance/dpa

वरना- एक बार हम फिर पूछना चाहेंगें कि क्या कारण हैं कि ये आवाजें हमें इरोम शर्मिला के पक्ष में नहीं सुनाई देती, मणिपुर की उन महिलाओं के पक्ष में जो निर्वस्त्र होकर एक अप्रत्याशित और असाधारण विरोध दर्ज कराती हैं, कश्मीर के शोपियां की वारदातों पर जो मौन था उसे हम क्या समझें क्या भारत में स्त्री अधिकारों के नाम पर ये उत्तरआधुनिक शक्तियां राजनीतिक नैतिकता की दुहाई देती हैं, गुजरात दंगों की बलात्कार की शिकार महिलाओं की चीत्कार क्या किसी के कानों में पड़ती है. क्या कोई जाएगा और उस नृशंसता के दोषियों को खींच कर अदालत के सामने कर पाएगा. कौन थे वे और कहां चले गए.

हमारे समाज की आत्मा पर खरोंचों के बहुत सारे निशान हैं. पूरे दुष्चक्र को औरत बनाम मर्द, कानून बनाम फजीहत का मीडिया ‘इवेंट' नहीं बनाया जा सकता. दमन करने वालों को एक जगह रखिए और पूरी दमित कौम को एक जगह. वहां से देखिए.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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