तेलंगाना के बाद क्या
२ जून २०१४अलग राज्य की मांग के पीछे महज वोट बैंक की सियासत है या फिर कुछ और? क्या ऐसे आंदोलनों के लिए सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता ही जिम्मेदार है? अलग राज्य के लिए आवाज उठाने वाले नेताओं के अलावा समाजशास्त्रियों की भी दलील है कि अगड़े तबके की ओर से होने वाला शोषण, भाषा व संस्कृति पर मंडराते कथित खतरे, समाज की मुख्यधारा से कट जाने का अहसास, ऐतिहासिक वजहों से होने वाला अलगाव और आजादी में खलल जैसी वजहें ही अलग राज्य की मांगों को ईंधन मुहैया करा रही है. इनमें सियासत का तड़का लगने पर आंदोलन की यही चिंगारी एक भयावह आग की शक्ल ले लेती है.
दशकों पुरानी मांग
देश के विभिन्न इलाकों में लंबे समय से भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है. इनमें से कम से कम आधा दर्जन मांगें तो दशकों पुरानी यानी देश की आजादी के समय से ही चली आ रही हैं. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में सबसे पहले वर्ष 1907 में गोरखा लोगों के लिए अलग क्षेत्र की मांग उठी थी. केंद्र सरकार इन आंदोलनों को कभी बल प्रयोग से दबाती रही है तो कभी समझौतों के जरिए. किसी भी सरकार ने अब तक समस्या की तह में जाने की कोशिश नहीं की. अलग गोरखालैंड की मांग कर रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख विमल गुरुंग कहते हैं, "दार्जिलिंग तो कभी बंगाल का हिस्सा ही नहीं रहा. इतिहास इसका गवाह है." वह कहते हैं कि गोरखा लोगों की खत्म होती पहचान बनाए रखने के लिए गोरखालैंड जरूरी है.
असम के बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल के सदस्य हाग्रामा मोहिलारी कहते हैं, "असम में रह कर बोडो जनजाति की पहचान खात्मे की ओर है. सरकार ने काउंसिल का लालीपॉप भले थमाया हो, अलग राज्य के बिना बोडो जनजाति का विकास संभव नहीं है."
मांग का आधार
भारत में देश के विभाजन के बाद अलग-अलग राज्यों के पुनर्गठन की सबसे बड़ी कवायद वर्ष 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत की गई थी. इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थी. इसका नतीजा यह हुआ कि भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, आबादी और भाषा के अलावा दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति जैसे मसलों को महत्व नहीं दिया गया. यही वजह थी कि इसके कुछ वर्षों बाद ही असंतोष फैलने लगा. चार साल बाद ही बंबई से काट कर गुजरात को अलग राज्य का दर्जा दिया गया और उसके छह साल बाद पंजाब को तीन हिस्सों में बांटना पड़ा.
असम में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर देवकांत बरूआ कहते हैं, "छोटे राज्यों के लिए नए सिरे से उठने वाली मांगों के लिए मुख्य रूप से तीन बातें जिम्मेदार हैं. इनमें सबसे पहली वजह जाति और धर्म के आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने का राजनीतिककरण होना है." वह कहते हैं कि हाल के वर्षों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का वर्चस्व तो बढ़ा ही है, चुनावी राजनीति में राष्ट्रीय दल भी अपने क्षेत्रीय एजेंडे के तहत अलगाववाद की भावना को बढ़ावा देने लगे हैं. उनके मुताबिक, दूसरी प्रमुख वजह देश के सभी इलाकों में विकास की रोशनी का नहीं पहुंचना है. ऐसे में यह भावना पैदा होती है कि अलग राज्य होने की स्थिति में इलाके व वहां के लोगों के विकास की गति तेज होगी. दार्जिलिंग के समाजशास्त्री देवेंद्र पाठक कहते हैं, "विकसित इलाकों में निजी निवेश आता है. उससे इलाके का विकास दिन दूना रात चौगुना होता है. लेकिन पिछड़े इलाके विकास की दौड़ मे लगातार पिछड़ते रहते है. धनी व गरीब तबके के बीच लगातार बढ़ती खाई भी इसकी एक मुख्य वजह है."
अपनी अपनी दलीलें
अलग राज्य के आंदोलनों का समर्थन और विरोध कर रहे लोगों की अपनी-अपनी दलीलें हैं. इस मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है. गोरखा नेता रोशन गिरि कहते हैं, "राजधानी से दूर होने की वजह से हुक्मरानों का ध्यान इलाके की समस्याओं और विकास की ओर नहीं जाता." कामतापुर राज्य की मांग कर रहे आल कोच राजबंशी स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष विश्वजीत राय कहते हैं, "छोटे राज्यों की विकास दर दूसरे राज्यों से बेहतर है."
अपनी बात के समर्थन में वे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का हवाला देते हैं जिनकी औसतन सालाना वृद्धि दर दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने मूल राज्यों (जिनसे अलग होकर उनका गठन हुआ था) के मुकाबले काफी बेहतर रही है. दूसरी ओर, ऐसी मांगों का विरोध करने वाले इसे देश की एकता व अखंडता पर खतरा मानते हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती हैं कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र बंगाल का अभिन्न हिस्सा रहा है. सीपीएम के नेता मोहन छेत्री सवाल करते हैं, "कुछ सबडिवीजनों को मिला कर अगर गोरखालैंड का गठन हो भी गया तो उसके पास संसाधान कहां से आएंगे?" कांग्रेस नेता प्रदीप भट्टाचार्य कहते हैं, "छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता बढ़ेगी." अपनी बातों के समर्थन में वह पड़ोसी झारखंड का हवाला देते हैं जहां हर साल सरकार गिर या बदल जाती है.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः एन रंजन