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मोदी को टक्कर दे पाएंगे राहुल गांधी?

समीरात्मज मिश्र
१२ दिसम्बर २०१८

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों का हर विश्लेषण आखिरकर अगले साल होने वाले आम चुनाव पर ही जाकर टिकता है. खास तौर से मोदी बनाम राहुल की बहस और तेज हो गई है

Indien Rahul Gandhi in Mehsana
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Solanki

पिछले चार साल के दौरान कई राज्यों में सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस पार्टी के लिए तीन राज्यों के चुनाव नतीजे एक संजीवनी की तरह हैं. ऐसे में वो यह भी भूल सकती है कि मिजोरम की सत्ता गंवाने के साथ ही पूर्वोत्तर में उसका ‘सफाया' हो गया है.

वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी इस हार को भले ही ऊपरी तौर पर ‘सदमे की तरह' ना दिखा रही हो लेकिन भीतरी स्थिति ये है कि उसकी जड़ें उन राज्यों में हिलनी शुरू हो गई हैं जिनकी बदौलत साल 2014 में उसे लोकसभा में ऐतिहासिक बहुमत मिला था.

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जहां छत्तीसगढ़ में 15 साल से सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार को एकतरफा पटकनी दी है वहीं राजस्थान में भी वह वापसी करने में सफल रही है. हां, मध्य प्रदेश में थोड़ी कमी जरूर रह गई है लेकिन माना यही जा रहा है कि वहां भी आखिरकार बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के विधायकों की बदौलत सरकार बना लेगी.

कितने राज्यों में बीजेपी सरकार है, जानिए

मिजोरम में कांग्रेस पार्टी को लगभग उसी तरह का झटका और दस साल तक सत्ता में रहने से सरकार विरोधी लहर का खामियाजा भुगतना पड़ा है जैसा छत्तीसगढ़ में भाजपा को. मिजो नेशनल फ्रंट ने लगभग दो तिहाई सीटें जीतकर उसे सत्ता से बाहर कर दिया और तेलंगाना में टीआरआएस ने दोबारा सत्ता में वापसी करके कांग्रेस और तेलुगुदेशम गठबंधन का सत्ता में आने का सपना चकनाचूर कर दिया.

पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों को अगले साल होने वाले आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. राजनीतिक दलों ने भी चुनाव उसी रणनीति और ऊर्जा से लड़ा और नतीजों के बाद उसकी व्याख्या भी उसी अनुसार हो रही है. हालांकि मध्य प्रदेश के अलावा अन्य किसी राज्य के परिणाम उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे, खासकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान के.

कांग्रेस पार्टी पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "इन नतीजों ने कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के आत्मविश्वास को मजबूत किया है और बीजेपी का विजय रथ रुकने से उसके आत्मविश्वास को डिगाया भी है. लेकिन सबसे अहम बात यह है कि राजस्थान में पांच साल और मध्य प्रदेश में पंद्रह साल की सत्ताविरोधी लहर के बावजूद बीजेपी उतना पीछे नहीं है, जितना कि सोचा जा रहा था.”

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रशीद किदवई कहते हैं कि नतीजों ने ये भी दिखाया है कि कांग्रेस पार्टी ही न सिर्फ देश भर में बीजेपी से मुकाबला कर सकती है बल्कि उसके गढ़ में भी चुनौती दे सकती है. खासकर मध्य प्रदेश को आरएसएस के सबसे ज्यादा प्रभाव वाले राज्यों में गिना जाता है और पिछले पंद्रह साल से शिवराज सिंह चौहान का अपराजेय शासनकाल इसका बहुत बड़ा सबूत भी है.

वरिष्ठ पत्रकार स्मिता गुप्ता कहती हैं कि इन चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि इन्होंने अब तक बीजेपी और संघ परिवार की ओर से कथित तौर पर ‘पप्पू' के रूप में प्रचारित किए जा रहे राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़ा कर दिया है और अब अन्य विरोधी दलों के नेताओं को भी उन्हें बतौर नेता स्वीकार करने में शायद कोई दिक्कत न हो. वह कहती हैं, "नतीजों के बाद भी राहुल गांधी ने जिस शालीनता का परिचय दिया, उसने उनकी परिपक्वता को साबित कर दिया. खासकर तब, जबकि चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने उन पर व्यक्तिगत हमले किए और भाषा तक की मर्यादा को ताख पर रख दिया.”

स्मिता गुप्ता कहती हैं कि यह स्थिति साल 2012 के बाद की उन्हीं घटनाओं की याद दिला रही है जब कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने निजी हमले करते हुए नरेंद्र मोदी को लोकप्रिय बना दिया. उनके मुताबिक, निजी हमलों के बावजूद, शालीनता, तथ्यों और तर्कों के साथ राहुल गांधी ने जिस तरह से किसानों, गरीबों और मजदूरों की समस्याओं को चुनावी सभाओं में उठाया, उससे आम जनता का उन पर भरोसा बढ़ा.

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हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी कहना है कि कांग्रेस ने इन राज्यों में वापसी जरूर की है लेकिन इससे ये भी नहीं समझना चाहिए कि बीजेपी पूरी तरह से कमजोर हो गई है. दरअसल, छत्तीसगढ़ को छोड़कर मध्य प्रदेश और राजस्थान में दोनों पार्टियों के मत प्रतिशत में एक फीसद से भी कम का अंतर है.

हालांकि रशीद किदवई कहते हैं, "लेकिन यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी ने ज्यादातर कांग्रेस के ही वोटों पर असर डाला है. यदि इनके मत प्रतिशत का आधा भी जोड़ दिया जाए तो सीटों की संख्या कहीं आगे निकल सकती थी.”

इन सबके अलावा जानकारों की नजर में बीजेपी को कुछ इस बात का भी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है कि उसने अब राजनीति और कार्यशैली का वही तरीका अपना लिया है जैसा कि कभी कांग्रेस पार्टी करती थी. कांग्रेस ने जहां तीनों राज्यों में कोई चेहरा सामने नहीं रखा, वहीं बीजेपी के तीनों मुख्यमंत्री इस चुनाव में भी पार्टी के घोषित चेहरे थे.

इन राज्यों में हैं गैर बीजेपी सरकारें

राजनीतिक विश्लेषक राधिका रामाशेषन कहती हैं, "बीजेपी आज पूरी तरह से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथों में केंद्रीकृत हो चुकी है जैसा कि कभी कांग्रेस पार्टी हुआ करती थी. चुनाव में टिकट वितरण से लेकर चुनावी सभाएं तक इन्हीं लोगों की मर्जी से तय हो रही हैं. जबकि कांग्रेस ने ठीक इसके उलट रणनीति अपनाई. राज्यों में नेताओं का एक समूह तैयार किया और उन्हें पूरे अधिकार दिए. राहुल गांधी ने सिर्फ सबके बीच समन्वय का काम किया और ये रणनीति उनकी कामयाब रही.”

राज्यों के नेताओं के अलावा कांग्रेस पार्टी के चुनाव प्रचार की कमान मुख्य रूप से राहुल गांधी ने ही सँभाल रखी थी, वहीं बीजेपी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी प्रमुख प्रचारक रहे. फायरब्रांड नेता के तौर पर प्रचारित योगी ने प्रचार भी उसी शैली में किया लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि तीनों राज्यों के जिन इलाकों में भी वो गए, बीजेपी ने ‘खोया ज्यादा, पाया कम.'

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ये इस बात का साफ संकेत है कि जनता अब भाषणों से ज्यादा परफॉर्मेंस को तरजीह दी रही है और आने वाले चुनाव में भी वो अपने मतदान का पैमाना परफॉर्मेंस को ही बनाने वाली है.

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