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त्वचा बताएगी दिमाग पर दवाई का असर

१४ अप्रैल २०११

अब तक त्वचा से लोगों की उम्र का पता चलता था, अब यह दवाइयों का दिमाग पर होने वाले असर के बारे में भी बताएगी. दिमाग की कई सबसे मुश्किल बीमारियों के इलाज में इस खोज का इस्तेमाल होगा.

तस्वीर: U. Battenberg

वैज्ञानिकों ने त्वचा की कोशिकाओं को लैब में दिमाग की एक बड़ी बीमारी की दवाओं का परीक्षण करने लायक बना लिया है. अमेरिकी वैज्ञानिकों ने शिजोफ्रेनिया के एक मरीज की त्वचा की कोशिकाओं के नमूने लेकर उन्हें बिल्कुल प्राथमिक अवस्था में बदल दिया. इसे वैज्ञानिकों की भाषा में प्लूरीपोटेंट स्टेम सेल्स (आईपीएससी) कहा जाता है. इस अवस्था में लाने के बाद कोशिकाओं को उन्नत बना कर दिमाग की कोशिकाओं में बदल दिया जाता है जिससे लैब में इन पर शिजोफ्रेनिया की दवाओं का परीक्षण कर व्यक्ति विशेष पर इसका असर देखा जा सके.

पेन्सिल्वेनिया की पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गोंग चेन ने बताया, "इस तरीके का इस्तेमाल कर हम मरीज के दिमाग पर किसी दवा के असर को देख सकेंगे और इसके लिए हमें उसके दिमाग तक दवा पहुंचाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी. मतलब नुकसान की आशंका सिरे से गायब हो जाएगी. मरीज अपने शरीर से ही नमूने दे देगा और उसके दिमाग तक दवा पहुंचाए बगैर ही उसके असर का पता चल जाएगा."

तस्वीर: AP

शिजोफ्रेनिया एक गंभीर बीमारी है जिसके लिए पर्यावरण के साथ अनुवांशिक कारणों को भी दोषी माना जाता है. इससे पीड़ित मरीज भ्रम की अवस्था में रहते हैं और इसका असर उनकी आवाज पर भी होता है. दुनिया की करीब एक फीसदी आबादी इस बीमारी की शिकार है. परीक्षणों से पता चला है कि शिजोफ्रेनिया के मरीजों के न्यूरॉन्स के बीच स्वस्थ आदमी की तुलना में कम संपर्क होता है. वैज्ञानिकों ने इसके इलाज के लिए सामान्य रूप से मनोरोगियों के इलाज वाली दवा का इस्तेमाल कर यह जानना चाहा कि क्या इससे पास पड़ोस के न्यूरॉन्स के बीच संपर्क बढ़ता है. इन परीक्षणों में सिर्फ एक दवा कारगर साबित हुई और वह है लोक्सापाइन. पर दिक्कत यह है कि यह दवा अप्रत्याशित रूप से सैकड़ों जीनों पर अपना असर डालती है. वैज्ञानिकों की नई खोज ब्रिटिश साइंस जर्नल नेचर में छपी है. 2006 में आईपीएससी की खोज हुई और वैज्ञानिक इसे लेकर बेहद उत्साहित हैं. उनका मानना है कि इनका इस्तेमाल परीक्षणों के लिए हो सकता है और इस पर एम्ब्रायोनिक स्टेम सेल का भी बोझ नहीं पड़ेगा.

हालांकि कुछ वैज्ञानिक यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या सचमुच आईपीएससी इस तरह के स्रोत के रूप में इस्तेमाल हो सकते हैं. नेचर के फरवरी अंक में छपी एक रिपोर्ट में इनके कुछ हिस्सों में अलग अलग तरह के नतीजे सामने आए.

रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन

संपादनः ए कुमार

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