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दर दर भटक रहे हैं असम के बेघर

१० अगस्त २०१२

हिंसा के कई दिन बाद भी असम के लोगों को घर वापसी नसीब नहीं है. बोडो और मुस्लिम संप्रदाय के बीच हुए दंगे में चाहे जितने भी लोगों की जान गई हो, यहां मानवता पर हमला सबसे बड़ा है. इसकी चुभन खत्म नहीं हो रही है.

तस्वीर: Reuters

बिलासीपाड़ा गांव में जब अचानक गोलियों की आवाज गूंज उठी, तो रोहिमा बेगम के पास अपने दो बेटों को लेकर भागने के अलावा कोई उपाय न था. नौ महीने की गर्भवती रोहिमा कुछ और लोगों के साथ भाग कर धान के खेतों तक पहुंच पाने में कामयाब हो गईं. लेकिन कुछ नाकाम लोग भी थे, जिनकी चीखें गोलियों के आवाज के साथ इस खेत में भी सुनी जा सकती थीं.

असम की हिंसा शुरू हुए 18 दिन बीत चुके हैं लेकिन वह घर नहीं लौटना चाहती हैं. कई हजार लोगों के साथ शरणार्थी शिविर में हैं. सरकार का कहना है कि इस हिंसा में 75 लोगों की जान गई, जबकि चार लाख लोग बेघर हो गए. सरकार की कोशिश है कि स्वतंत्रता दिवस यानी 15 अगस्त तक ये लोग अपने घर लौट जाएं.

रोहिमा का कहना है, "हम लोग कैसे वापस जाएं. वहां कुछ भी तो नहीं बचा. जब हम भाग रहे थे तो हमने देखा कि उन्होंने पूरा गांव जला दिया था. बहुत दूर से भी आग की लपटें दिख रही थीं." रोहिमा की गोद में तीन दिन का बच्चा है, जो यहीं पास के प्राइमरी स्कूल में पैदा हुआ. रोहिमा को अफसोस है कि पड़ोसी आज दुश्मन बन गए, "जिन्होंने हमारे घर जलाए हैं, वे हमारे बाजू के गांव वाले ही हैं. हमें बहुत डर है कि कहीं ऐसा दोबारा न हो."

कैंपों में रह रहे बच्चों को बीमारियों से जूझना पड़ रहा है.तस्वीर: Reuters

पिछले महीने 20 जुलाई को अज्ञात लोगों ने बोडो समुदाय के चार लोगों की हत्या कर दी. इसके बाद हिंसा भड़क उठी. कोकराझार और चिरांग जिलों में बोडो लोगों की बहुलता है. उन्होंने वहां मुसलमानों पर हमले कर दिए. इसके बाद आस पास के इलाकों में भी सांप्रदायिक हिंसा भड़कने लगी. कई गांवों को चारों ओर से घेर कर उनमें आग लगा दी गई और लोगों को ऑटोमेटिक हथियारों से भून दिया गया.

हर दिन मिलती लाशें

इलाके में कर्फ्यू लगा है. सैनिक और अर्धसैनिक बलों के जवान यहां गश्त कर रहे हैं. यहां की उपजाऊ भूमि में जहां तहां लोगों की लाश मिल रही है. पूरा माहौल तनाव भरा है. हिंसा में कमी तो आई है लेकिन अभी भी कहीं न कहीं से लाशें बरामद हो रही हैं.

असम के मंत्री नीलोमणि सेन डेका का कहना है, "लोगों को अब वापस घर जाना चाहिए. हम उन्हें मुआवजा देंगे. लेकिन अब उन्हें लौटना चाहिए. अब यह सुरक्षित है." लेकिन मुश्किल यह खड़ी हो गई है कि बेघर हुए बोडो और मुस्लिम लोगों का कहना है कि अब वे साथ में नहीं रह सकते हैं.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की लोकसभा सीट पर चाय के बागानों को लेकर लंबे समय से इन दोनों समुदायों में तनाव चल रहा था. बोडो उग्रवादियों ने पिछले दशकों में अलग बोडोलैंड को लेकर लंबा संघर्ष किया. बाद में 2003 में उन्होंने भारत सरकार के साथ समझौता कर लिया, जिसके तहत चार जिलों में उन्हें स्वायत्तता दी गई. उनका दावा है कि वहां रह रहे कई मुसलमान गैरकानूनी तरीके से बांग्लादेश से भाग कर यहां आए हैं. हाल के दिनों में मुसलमानों की संख्या बोडो निवासियों से ज्यादा हो गई है.

तस्वीर: Reuters

दूसरी तरफ मुसलमानों का कहना है कि वे भारतीय हैं और उनके पास वोटिंग का भी अधिकार है. ज्यादातर मुस्लिम बोडो लोगों की जमीन पर खेती करते हैं या रिक्शा चलाते हैं. यह पहला मौका नहीं है, जब इन दोनों के बीच खूनी संघर्ष हुआ हो. इससे पहले 1999 में हुए संघर्ष में 2000 लोगों की जान गई थी.

कैंपों में बीमारी

करीब 3000 स्कूलों, कॉलेजों और कम्युनिटी हॉलों को राहत केंद्र के रूप में बदल दिया गया है. यहां की हालत बहुत खराब है. अधनंगे बच्चों को भयंकर गर्मी में स्कूलों के बेंचों पर लेटना पड़ रहा है और औरतों के पास इतने बच्चे हैं कि वे उन्हें संभाल ही नहीं पा रही हैं. स्थिति यह है कि न पीने का पानी और न ही टॉयलेट. बीमारी बढ़ रही है. दसियों हजार लोग डायरिया के शिकार हो गए हैं.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राहत शिविरों में 22 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 8000 बच्चे बीमार हैं. मेडिकल टीम हर रोज कैंपों का दौरा कर रही है और बीमारों को दवाइयों के साथ साथ हर रोज चावल और दाल भी बांटा जा रहा है लेकिन राहतकर्मियों का कहना है कि अभी बहुत ज्यादा मदद की दरकार है. ऑक्सफैम इंडिया के जुबिन जमां का कहना है, "ज्यादातर लोग जब घर से भागे, तो उनके पास कुछ नहीं था. उन्हें टॉयलेट और पीने का साफ पानी चाहिए. कपड़े और बिस्तर चाहिए. मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी चाहिए."

जो बच कर निकल पाए हैं, उनका कहना है कि वह अब यहां मर जाना पसंद करेंगे लेकिन अपने घर नहीं लौटेंगे. कोकराझार के कैंप में रह रहे 70 साल के बरेंद्र ब्रह्मा का कहना है, "हम ऐसे नहीं रहना चाहते हैं लेकिन वापस भी नहीं जाना चाहते हैं. कोई चौबीसों घंटे हमारी रखवाली नहीं कर सकता है. मैं उस गांव में पैदा हुआ हूं. अब अगर वापस जाता हूं तो पक्का है कि मरने के लिए जा रहा हूं."

एजेए/एमजी (एएफपी)

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