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दांव पेंच की मारी राजनीति

६ मई २०१४

भारत का प्रधानमंत्री बनने के नरेन्द्र मोदी के सपने को चूर करने के लिए कांग्रेस ने स्नूपगेट कांड को ब्रह्मास्त्र बनाया था. लेकिन नियम कानूनों का जो जाल उसने इसके लिए बुना अब उसी में फंस कर उसका यह दांव नाकाम साबित हुआ है.

Indien Gujarat Narendra Modi
तस्वीर: AP

मोदी के दिल्ली कूच को रोकने के लिए कांग्रेस पिछले पांच महीने से माकूल वक्त के इंतजार में बैठी थी. कांग्रेस की रणनीति चुनावी पारे के गरम होने के दौरान ही स्नूपगेट मामले की जांच की घोषणा करने की थी. मगर मामूली गलतियां करने की आदी हो चुकी सत्ताधारी पार्टी एक बार फिर गच्चा खा गई. इस बार चुनाव आचार संहिता की पेंचीदगी उसके लिए सियासी अखाड़े में पटखनी खाने का कारण बन गई.

बेटी की जासूसी

नवंबर 2013 में दो मीडिया वेब पोर्टल ने गुजरात सरकार द्वारा एक युवा महिला आर्किटेक्ट की जासूसी कराने का रहस्योद्घाटन किया. टेलीफोन बातचीत वाले टेप में नरेंद्र मोदी के सिपहसालार अमित शाह किसी सरकारी अधिकारी को उक्त महिला की गतिविधियों पर नजर रखने और उसके फोन टेप करने का निर्देश देते सुनाई देते हैं. कांग्रेस ने इस मामले को तेजी से लपकते हुए मोदी पर किसी महिला की जासूसी कराने के लिए राज्य सरकार की मशीनरी का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया.

मामले की परतें खुलने पर पता चला कि उक्त महिला का मुंह बंद रखने के लिए उसके परिजनों की कंपनी को बिना टेंडर कुछ ठेके भी दिए गए. गुजरात सरकार, मोदी और शाह ने इस मामले में तभी से चुप्पी साध ली है. सिर्फ युवती के पिता प्राणलाल सोनी ने बीच में कुछ पत्र सार्वजनिक कर मोदी को बेकसूर बताने का प्रयास किया था. जिसमें सोनी ने कहा कि उन्होंने मोदी से बेटी की जान को खतरे की आशंका जताते हुए उसकी सुरक्षा के लिए निगरानी का अनुरोध किया था.

सोनी को संदेह था कि फिलहाल जेल में बंद गुजरात सरकार के आला अधिकारी प्रदीप शर्मा से उनकी बेटी के साल 2010 से पहले संबंध थे और मोदी के साथ शर्मा के तल्ख रिश्तों को देखते हुए शर्मा उनकी बेटी के लिए खतरा बन सकते हैं. हालांकि कानूनन न तो कोई पिता इस आधार पर अपनी बालिग बेटी की जासूसी करवा सकता है और ना ही कोई सरकार इस काम में किसी की मदद कर सकती है. इसी आधार पर कांग्रेस ने मोदी सरकार की नीति और नियत को सवालों के घेरे में खड़ा किया है.

तस्वीर: UNI

कांग्रेस की चाल

इसके बाद 26 दिसंबर को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने इस मामले की न्यायिक जांच किसी रिटायर्ड न्यायाधीश से कराने का फैसला किया. कांग्रेस ने इस मुद्दे को सिर्फ हवा देकर चर्चा के केन्द्र में ला खड़ा किया लेकिन जांच आयोग के गठन की फाइल ठंडे बस्ते में डाल दी. कांग्रेस की रणनीति थी कि चुनावी पारे के चरम पर पहुंचते ही इस फाइल को दोबारा खोलकर मोदी लहर की हवा निकाली जाएगी.

पिछले पांच महीने से कांग्रेस सरकार इसकी जांच के लिए किसी भी जज के तैयार न होने का बहाना बना रही थी. इसमें भी उसकी चाल यह संदेश देने की थी कि मोदी से न्यायाधीश भी भयभीत हैं. चुनाव खत्म होने के चंद रोज पहले तीन मई को कानून मंत्री कपिल सिब्बल और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने 16 मई से पहले इस मामले की जांच के लिए आयोग गठित करने का ऐलान कर इस बहस को फिर से जिंदा कर दिया.

कानून के पेंच

इस मामले में पिछले पांच महीने से गुजरात सरकार, मोदी और शाह ने तो चुप्पी साध रखी है. लेकिन चुनाव प्रचार में फंसी भाजपा ने किसी के निजी मामले में राज्य सरकार द्वारा दखलंदाजी को गलत मानते हुए इसका ठीकरा नौकरशाही पर फोड़ दिया. अफसरशाही की ओर से अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त एसके सैकिया ने सफाई दी कि सरकार ने इस मामले में कोई लिखित कार्रवाई नहीं की है इसलिए कानून की नजर में कुछ भी गलत नहीं हुआ.

जहां तक इस मामले में केन्द्र सरकार के दखल की बात है, कपिल सिब्बल की दलील है कि यह कानून व्यवस्था का मामला होता तो केन्द्र सरकार के लिए दखलंदाजी की कोई गुंजाइश नहीं थी. उनका कहना है कि यह महिलाओं की सुरक्षा को लेकर राज्य सरकार की नीयत और नीति का मामला है. सिब्बल कहते हैं कि जब सरकार की ही नीयत पर सवाल उठने लगें तो केन्द्र सरकार का दखल कानूनी बाध्यता है. लेकिन इस मामले में आयोग के गठन की टाइमिंग को लेकर सिब्बल और शिंदे के जवाब गले से नीचे नहीं उतरते.

मतदाताओं को लुभाने के दांव पेंचतस्वीर: Reuters

कहां फंसी कांग्रेस

भाजपा के वकील नेता अरुण जेटली का कहना है कि मौजूदा सरकार आचार संहिता के दौरान किसी आयोग का गठन नहीं कर सकती. लेकिन सिब्बल की दलील है कि जांच कराने का फैसला आचार संहिता लगने से पहले 26 दिसंबर का है. इसलिए सरकार अपने पूर्व फैसलों के पालनार्थ आचार संहिता के दौरान काम कर सकती है. उनकी दलील है कि आयोग के गठन को लेकर गृह मंत्रालय द्वारा चुनाव आयोग से इसकी अनुमति लेने के लिए पत्र लिख दिया गया है.

इतना ही नहीं उन्होंने जांच के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज केडी सिंह से बात हो जाने का भी खुलासा कर दिया. यहां तक तो सब ठीक था लेकिन चार मई को कांग्रेस के अपने ही सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस और एनसीपी ने नई सरकार के गठन से महज कुछ दिन पहले ऐसे किसी फैसले पर विरोध जता कर कांग्रेस की पूरी रणनीति की हवा निकाल दी. अपने ही घर में घिरी कांग्रेस को मजबूरी में पांच मई को इस मुद्दे पर खिंची तलवारें म्यान में वापस रखनी पड़ीं.

छवि की चिंता नहीं

दो दिन तक चले इस वाकयुद्ध में कांग्रेस को पता था कि आज नहीं तो कल उसे इस मामले में कानूनी शिकस्त मिलना तय है. सियासी रंगमंच पर कांग्रेस सिर्फ तात्कालिक लाभ के लिए आयोग के गठन का प्रहसन कर रही थी. भाजपा ने भी कांग्रेस के इस फैसले पर अपनी पहली प्रतिक्रिया में ही इसे हताशा में उठाया गया कदम बताते हुए असंवैधानिक करार दिया था. संकेत साफ था कि अगर कांग्रेस सरकार ने कैबिनेट का फैसला बदला तो भाजपा अपनी सरकार बनने पर इसे पलट देगी.

कुल मिला कर पूरे प्रकरण में कांग्रेस का आखिरी दांव भले ही नाकाम हो गया हो लेकिन इसमें यह संदेश मिला कि सियासत संभावनाओं का खेल है और भविष्य की संभावनाएं जिंदा रखने के लिए इस खेल को अंतिम क्षण तक खेलना सियासतदानों की मजबूरी भी है. दूसरी ओर एक दूसरे के लिए तिरस्कार दिखाकर भारत के राजनेता अपनी छवि तो बिगाड़ ही रहे हैं, राजनीति की छवि भी धूमिल कर रहे हैं.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा

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