निचले और मध्यम दर्जे के आय वाले 73 देशों में सिर्फ चार में पर्याप्त संख्या में दाइयां मौजूद हैं, जो प्रसव के दौरान मदद करती हैं. ये हैं, आर्मेनिया, कोलंबिया, डोमिनिकन रिपब्लिक और जॉर्डन. ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र पॉपुलेशन फंड और विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में सामने आए हैं.
दाइयों के अंतरराष्ट्रीय संगठन इंटरनेशनल मिडवावव्स एसोसिएशन की अध्यक्ष फ्रांकेस डेस्टिर्क का कहना है, "तीन चौथाई देशों में दाइयों की भारी कमी है, जिसकी वजह से बच्चों और महिलाओं की मौत हो रही है." जानकारों का कहना है कि दाइयों को इस काम के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है. वे प्रसव के दौरान और उसके बाद बच्चों और उनकी मांओं को ज्यादातर सुविधा दे सकती हैं. यह उन जगहों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, जहां डॉक्टरों की कमी है.
पिछले साल 2013 में 26 लाख बच्चे मृत पैदा हुए, जबकि 30 लाख बच्चों ने पैदा होने के फौरन बाद दम तोड़ दिया. "दाइयों की वैश्विक स्थिति" नाम की रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से 92 फीसदी मामले इन्हीं देशों से थे.
इनमें भारत के अलावा चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और केंद्रीय अफ्रीकी गणराज्य, चाड, ग्वाटेमाला और मेक्सिको जैसे देश शामिल हैं. ज्यादातर देशों में बुनियादी ढांचे की कमी है और कई जगह तो दाइयों को प्रशिक्षण देने की सुविधा भी नहीं है. इस मामले में जरूरी आंकड़े जुटाना अलग चुनौती है.
तस्वीर: Fotolia/st-fotograf जन्म के समय जिन बच्चों का वजन चार किलोग्राम या उससे ज्यादा होता है, वह बड़े हो कर मोटापे का शिकार हो सकते हैं. इसीलिए इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि गर्भवती महिलाएं अत्यधिक खानपान से दूर रहें, कसरत करती रहें और उन्हें डायबिटीज न हो.
बच्चे मां का स्पर्श, उसकी खुशबू को पहचानते हैं. अक्सर कहा जाता हैं कि मां बच्चे की रुलाई पिता से बेहतर पहचानती है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं, मां और बाप दोनों अपने बच्चे की रोने की आवाज यकीन के साथ और समान रूप से पहचान सकते हैं.
तस्वीर: Fotolia/Marcitoहर बच्चे की नींद का पैटर्न अलग होता है, लेकिन कुल मिला कर नवजात शिशुओं को करीब 16 घंटे की नींद की जरूरत होती है. जैसे जैसे उम्र बढ़ती है यह कम होती जाती है.
तस्वीर: Gabees/Fotoliaसंयुक्त राष्ट्र के अनुसार जन्म के बाद छह महीने तक तो बच्चे को केवल मां का दूध ही पिलाना चाहिए. थाईलैंड में सिर्फ पांच फीसदी महिलाएं बच्चों को अपना दूध पिलाती हैं. भारत अभी भी इससे बचा है. यूनिसेफ ने कहा कि इस मामले में दुनिया को भारत से सीख लेनी चाहिए.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesइन दिनों बहुत कम उम्र के बच्चों के लिए भी कंप्यूटर और स्मार्टफोन पर ऐप उपलब्ध हैं, जो बच्चों के विकास में मददगार हैं. पहले दो सालों में दिमाग का आकार तीन गुना बढ़ जाता है, जो कि चीजों को छूने, फेंकने, पकड़ने, काटने, सूंघने, देखने और सुनने जैसी गतिविधियों से मुमकिन होता है.
तस्वीर: Fotolia/bellaगर्भावस्था के समय कई बातों का सीधा असर पैदा होने वाले बच्चे और उसके आगे के जीवन पर पड़ता है. यदि गर्भवती महिला तनाव में है तो बच्चे तक पोषक तत्व नहीं पहुंचते. इसी तरह जन्म के बाद भी मां का अपनी सेहत पर ध्यान देना जरूरी है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaछोटे बच्चों को अक्सर दवाओं से दूर रखने की कोशिश की जाती है. खास तौर से एंटीबायोटिक का इस्तेमाल बच्चों के लिए हानिकारक होता है. इनसे शरीर के फायदेमंद जीवाणु मर जाते हैं. मोटापा, दमा और पेट की बीमारियां बढ़ती हैं.
तस्वीर: Fotowerk - Fotolia.comबच्चों के लिए दुनिया बेहतर बन रही है. पिछले एक दशक में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में 50 फीसदी तक की गिरावट आई है.
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संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या कोष से कार्यकारी निदेशक बाबाटुंडे ओसुटीमेहिन का कहना है, "महिलाओं और लड़कियों के मातृत्व और प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैं." उनका कहना है कि उन्हें "गर्भधारण और प्रसव के बाद सम्मानजनक स्थिति चाहिए, जो कई देशों में नहीं" है. जानकारों का कहना है कि इसका आर्थिक पक्ष भी है. डेस्टिर्क मिसाल तौर पर कहती हैं कि इससे सिजेरियन ऑपरेशन में कमी आ सकती है और तीन दशक में लगभग 13 करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं.
सिर्फ बांग्लादेश में कुछ सुधार होता दिख रहा है, जहां सरकार ने 2010 में 3000 दाइयों को ट्रेनिंग देने की पहल की. हालांकि इसके बाद भी वहां जन्म के दौरान कई बच्चों की मौत हो रही है.
एजेए/एएम (रॉयटर्स)