खगोल विज्ञानियों ने अब तक के सबसे बड़े सुपरनोवा यानि तारों के विस्फोट का पता लगाया है. यह किसी आम सुपरनोवा से 10 गुना अधिक शक्तिशाली बताया जा रहा है.
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यह ना केवल सामान्य सुपरनोवा से 10 गुना अधिक शक्तिशाली है बल्कि उससे करीब 500 गुना ज्यादा चमकदार भी. वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सुपरनोवा दो विशाल तारों के आपस में टकरा कर एक हो जाने के दौरान बना है. ब्रिटेन और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने नेचर एस्ट्रोनॉमी नाम के पीयर रिव्यू जर्नल में प्रकाशित अपने रिसर्च पेपर में इसका खुलासा किया है. ब्रिटेन की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी और अमेरिका के हार्वर्ड-स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स ने अपनी इस खोज को SN2016aps नाम दिया है. स्टडी के सहलेखक इडो बर्गर ने इसे इसके आकार और चमक के अलावा भी कई दूसरे मायनों में भी "बेहद खास" बताया.
जैसे दो सूर्य आपस में टकराएं
असल में आमतौर पर ऐसे सुपरनोवा अपनी कुल ऊर्जा का केवल एक फीसदी दिखने वाले प्रकाश की रेंज में उत्सर्जित करते हैं. लेकिन SN2016aps इससे कहीं बड़ा हिस्सा इस दृश्य प्रकाश के रूप में निकालता है. वैज्ञानिकों ने इस सुपरनोवा में इतनी ऊर्जा होने का अनुमान लगाया है जो 200 ट्रिलियन ट्रिलियन गीगाटन टीएनटी के विस्फोट के बराबर होगी.
इस तरह की असामान्य ऊर्जा वाले सुपरनोवा के आसपास के बादल में हाइड्रोजन की बहुत अधिक मात्रा होने का पता चला है. रिसर्चरों ने इसका अर्थ यह निकाला है कि यह सुपरनोवा जरूर हमारे सूर्य जैसे दो तारों के आपस में मिल जाने के कारण बना होगा. वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसी घटना का जिक्र अब तक केवल सैद्धांतिक तौर पर होता आया था लेकिन पहली बार ऐसा कुछ होने का प्रमाण मिला है. उन्हें उम्मीद है कि आगे इससे मिलते जुलते और सुपरनोवा का भी पता चलेगा जिनसे यह जानने में मदद मिलेगी कि बहुत पहले हमारा ब्रह्मांड और उसका माहौल कैसा हुआ करता था.
क्या होता है सुपरनोवा
किसी बुजुर्ग तारे के टूटने से वहां जो ऊर्जा पैदा होती है, उसे ही सुपरनोवा कहते हैं. कई बार एक तारे से जितनी ऊर्जा निकलती है, वह हमारे सौरमंडल के सबसे मजबूत सदस्य सूर्य के पूरे जीवनकाल में निकलने वाली ऊर्जा से भी ज्यादा होती है. सुपरनोवा की ऊर्जा इतनी शक्तिशाली होती है कि उसके आगे हमारी धरती की आकाशगंगा कई हफ्तों तक फीकी पड़ सकती है.
आमतौर पर सुपरनोवा के निर्माण में व्हाइट ड्वार्फ की अहम भूमिका होती है जिसके एक चम्मच द्रव्य का वजन भी करीब 10 टन तक हो सकता है. ज्यादातर व्हाइट ड्वार्फ गर्म होते होते अचानक गायब हो जाते हैं. लेकिन कुछ गिने चुने व्हाइट ड्वार्फ दूसरे तारों से मिल कर सुपरनोवा का निर्माण करते हैं. लेकिन इस बार दिखे सुपरनोवा में व्हाइट ड्वार्फ तारे से नहीं टकराया बल्कि दो तारे ही आपस में टकराए हैं और अंतरिक्ष विज्ञान के आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा सुपरनोवा पैदा कर गए हैं.
एलईडी लाइट ऊर्जा की बड़ी बचत करती हैं. इनकी रोशनी ज्यादातर नीली और ठंडी होती है. इसका मतलब है कि शहरों के ऊपर का आकाश ज्यादा से ज्यादा चमकीला हो रहा है, और ऐसी स्थिति को लाइट पॉल्यूशन या फिर रोशनी प्रदूषण कहते हैं.
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साफ आकाश
इस तरह का नजारा देखने के लिए ज्यादातर लोगों को काफी लंबी दूरी तय करनी पड़ेगी. सभ्यता से दूर कहीं समंदर किनारे या फिर पहाड़ों में. जहां कहीं इंसान हैं वहां रोशनी के कृत्रिम स्रोत भी मौजूद हैं. ये आकाश को चमकादार बनाते हैं और इसका नतीजा यह होता है कि सितारों की चमक फीकी पड़ जाती है. सितारे हल्के होते होते एक दिन नजरों से दूर हो जाते है.
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सस्ती और चमकदार रोशनी वाली एलईडी
नये जमाने के लैम्प अब ज्यादा ऊर्जा की खपत नहीं करते. इसलिए अब लोग उनका जम कर इस्तेमाल करते हैं. जाहिर है कि इसके कुछ दूसरे नतीजे भी होंगे. एलईडी की रोशनी में अक्सर कोल्ड ब्लू वेवलेंथ की रोशनी होती है. यह वे तरंगें हैं जो रोशनी के प्रदूषण को तेज करती हैं.
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संरक्षित क्षेत्र में बिजली बंद
यूरोपीयन सदर्न ऑब्जर्वेटरी यानि ईएसओ चिली के विशेष संरक्षित क्षेत्र में हैं. यहां घरों के बाहर कृत्रिम रोशनी जलाने की मनाही है. ईएसओ इंसानी बस्तियों से काफी दूर है. हालांकि शहर के पास मौजूद वेधशालाओं यानि ऑबर्जर्वेटरी को प्रकाश के उत्सर्जन से जूझना पड़ता है. यही वजह है कि शहरों में रोशनी का प्रदूषण रोकने के लिए पीली गर्म रोशनी स्ट्रीट लाइट के रूप में इस्तेमाल की जाती है.
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पहले...
जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइंसेज, द लाइबनित्स इंस्टीट्यूट और द यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर एंड बॉल्डर के रिसर्चरों ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से मिले आंकड़ों और तस्वीरों का इस्तेमाल कर परिवर्तन को जानने की कोशिश की. यह नजारा 2010 में आईएसएस कैलगरी/कनाडा से लिया गया.
तस्वीर: GFZ Potsdam
... और बाद में
वही नजारा 2015 में. कोई भी देख सकता है कि लाइटिंग सिस्टम ने पूरे शहर में क्या बदलाव कर दिया है. कुछ सड़क और जुड़ गये हैं. वैज्ञानिक जिस रेडियोमीटर का इस्तेमाल प्रकाश की तीव्रता नापने के लिए करते हैं, वह नीले स्पेक्ट्रम की रोशनी सही तरीके से नहीं बता पा रहा है. इसका मतलब है कि जितना पता चल पा रहा है, उससे कहीं ज्यादा तेज है रोशनी.
तस्वीर: GFZ Potsdam
बढ़ती जा रही है रोशनी
यह उपकरण वीजिबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर है. इसका रिजॉल्यूसन 750 मीटर था. इसके आंकड़े बता रहे हैं कि कृत्रिम स्रोत से आ रही रोशनी की तीव्रता हर साल करीब 2.2 फीसदी की दर से बढ़ी है 2012 से 2016 के बीच.
तस्वीर: NASA
रोशनी का अर्थव्यवस्था से क्या लेना?
दुनिया भर में रोशनी बढ़ने को मोटे तौर पर देशों के जीडीपी में इजाफे से जुड़ा माना जाता है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं में इन दोनों चीजों को बहुत तेजी से बढ़ते देखा जा सकता है.
तस्वीर: NASA/GSFC/Craig Mayhew & Robert Simmon
रोशनी बदल देती है भीतरी घड़ी को
कृत्रिम रोशनी जानवरों और पेड़ पौधों की जिंदगी बदल देती है. शहरों में रहने वाले परिंदों के सोने का अभ्यास बदल गया है. कृत्रिम रोशनी में रहने वाले पौधों के विकास की अवधि बढ़ जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Stratenschulte
स्मार्ट लैम्प
सवाल अब भी कायम है, क्या शहरों में पूरी रात स्ट्रीट लाइट को जलाए रखने की जरूरत है? भले ही एलईडी बहुत ज्यादा बिजली खर्च नहीं करती लेकिन हमें उन्हें जब जरूरत ना हो तो बंद कर देना चाहिए. जो रोशनी हलचल से चालू हो जाए उसे विकल्प बनाया जा सकता है. आपात स्थिति के लिए थोड़ी कम चमकीली रोशनी भी चल सकती है.