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दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच फंसा कश्मीर

६ अगस्त २०१९

जर्मन भाषी अखबारों ने भी कश्मीर के बारे में भारत के ताजा फैसले पर टिप्पणी की है. ज्युड डॉयचे साइटुंग ने कहा है कि इससे हिंसा नहीं रुकेगी तो वियना के स्टांडार्ड ने इसे मोदी का तुरुप का पत्ता बताया है.

Indien Kaschmir-Konflikt nach Änderung Artikel 370
तस्वीर: Reuters/A. Dave

म्यूनिख से प्रकाशित होने वाले जर्मनी के लिबरल दैनिक ज्युड डॉयचे साइटुंग ने लिखा है, "लेकिन क्या कश्मीरियों से कभी पूछा गया है कि वे दरअसल क्या भविष्य चाहते हैं? दिल्ली और इस्लामाबाद के स्थायी संघर्ष में उनकी पहचान का कचूमर निकाला जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा जिस जनमत संग्रह का भरोसा दिया गया था, वह उपनिवेश के खत्म होने के बाद कभी नहीं हुआ. दिल्ली आपने दावे पर अडिग है कि कश्मीर भारत का है, पाकिस्तान मुसलमानों का सुरक्षा गार्जियन बनता है, लेकिन विवाद को सुलझाने के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा." अखबार लिखता है, "पाकिस्तान के हार्डलाइनरों को ये विवाद भारत को कमजोर करने के लिए फायदेमंद लग रहा है. इसे देखते हुए नए रास्तों की तलाश की भारत की तत्परता समझ में आने वाली बात लगती है. लेकिन अब उठाया गया कदम हिंसा को नहीं रोकेगा, वह सिर्फ विभाजन को पुख्ता बनाएगा. एक एकीकृत कश्मीर की संभावना, जो कभी शांति में स्वायत्त शासन वाली होगी, और दूर हो गई है.”

तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Murat

जर्मनी का ओसनाब्रुक शहर 16वीं सदी में तीस साल के युद्ध के बाद शांति के लिए हुए चार साल के प्रयासों में कूटनीति का अड्डा था. चार साल की सौदेबाजी के बाद यहां वेस्टफेलियाई शांति संधि हुई. इस लिहाज से शहर का नैतिक महत्व भी है. इलाकाई अखबार नोए ओसनाब्रुकर साइटुंग ने कश्मीर विवाद पर टिप्पणी करते हुए लिखा है,

"यदि किसी और सबूत की जरूरत थी कि भारत की कश्मीर विवाद के कूटनैतिक समाधान में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो ये सबूत हिंदू राष्ट्रवादी सरकार ने कश्मीर के भारतीय हिस्से के विशेष अधिकार हटाकर दिया है. क्या नई दिल्ली अब फैसला चाहता है? ये घातक होगा.आखिरकार पाकिस्तान और भारत के साथ दो परमाणु सत्ताएं आमने सामने हैं.इसलिए और समझ में नहीं आता कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इस सुप्त विवाद को लंबे समय से नजरअंदाज किया है,और बर्लिन की कूटनैतिक पहल कहां है? जर्मनी इस साल के शुरू से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य है और भारत का करीब कारोबारी सहयोगी भी है.लेकिन वैसे भी चीन, रूस और अमेरिका की मध्यस्थता या दबाव के बिना कुछ नहीं होगा. कम से कम कश्मीर विवाद के परमाणु विवाद में भड़कने की चिंता से उन्हें एकमत होना चाहिए.”

तस्वीर: AFP/R. Bakshi

ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना से प्रकाशित दैनिक डेय स्टान्डार्ड कश्मीर विवाद में नए विकास पर टिप्पणी करते हुए लिखता है, "पाकिस्तान में, जो भारत से कश्मीर की वजह से दो युद्ध लड़ चुका है और जो अपने को भारतीय मुसलमानों का संरक्षक समझता है, लोग संकेत सुन रहे हैं. इस्लामाबाद ने कहा है कि सभी विकल्पों को खुला रखा जा रहा है. इस साल वसंत में दोनों परमाणु संपन्न राष्ट्र एक युद्ध की संभावना से बचकर निकले हैं. कुछ ही हफ्तों बाद हुए संसदीय चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी के हिंदू राष्ट्रवादियों ने तनावपूर्ण माहौल का फायदा उठाया और अनुमान से भी ज्यादा बढ़त से जीते. अब दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले लोकतंत्र के दबंग नेता आग में नया घी डाल रहे हैं. सभी दूसरे राष्ट्रवादियों की तरह स्थिति का भड़कना मोदी का भी तुरुप का पत्ता है.”

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