दिल्ली दंगों से जुड़े मामलों में तीन छात्र एक्टिविस्टों को जमानत पर रिहा करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने बिना सोचे समझे यूएपीए लगाने के खिलाफ पुलिस को और "असहमति को दबाने की बेताबी" को लेकर सरकार को चेताया है.
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नताशा नारवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा तीनों छात्र एक्टिविस्ट हैं और अलग अलग मंचों के माध्यम से नागरिकता कानून के खिलाफ देश में चल रहे आंदोलन से जुड़े थे. दिल्ली पुलिस ने फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में अपनी जांच के दौरान इन तीनों पर दंगों के पीछे की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया था और उन्हें गिरफ्तार कर लिया था. तीनों के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज की गई थीं और आईपीसी की कई धाराओं के अलावा यूएपीए के तहत भी आरोप लगाए थे. यूएपीए का इस्तेमाल आतंकवादियों के खिलाफ किया जाता है.
तीनों की जमानत की अलग अलग अर्जियों को स्वीकार करते हुए जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और अनूप जयराम भंभाणी की पीठ ने कहा कि तीनों के खिलाफ प्रथम दृष्टि में यूएपीए लगाने का कोई आधार नहीं बनता है. लेकिन पीठ ने सिर्फ इतना ही नहीं कहा, बल्कि पूरे मामले के आधार बना कर विरोध करने के अधिकार, असहमति जताने के अधिकार और लोकतंत्र में पुलिस और शासन की भूमिका से जुड़ी कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं. अदालत ने कहा कि "विरोध करने का अधिकार गैर कानूनी नहीं है और वो यूएपीए के तहत 'आतंकवादी गतिविधि' की परिभाषा के तहत नहीं आता".
अदालत ने कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा दायर की गई चार्जशीट में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह साबित कर सके कि कोई 'आतंकवादी गतिविधि' हुई थी, या किसी आतंकवादी गतिविधि को अंजाम देने के लिए पैसे इकठ्ठा किए गए थे या किसी आतंकवादी गतिविधि की योजना बनाई गई थी. बल्कि अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा लगाए गए आरोप तथ्यात्मक आरोप ना हो कर अभियोजन पक्ष द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं. पीठ ने यह भी कहा कि आतंकवाद तो छोड़िए, चार्जशीट हिंसा के आरोप भी साबित नहीं कर पा रही है.
यूएपीए का इस्तेमाल
पीठ ने विशेष रूप से बिना सोचे समझे यूएपीए जैसे सख्त कानून के इस्तेमाल को लेकर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं. फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि 'आतंकवादी गतिविधि' जैसे शब्दों का इस्तेमाल 'लापरवाही' से नहीं किया जा सकता. अदालत का मानना है कि जब गतिविधियां आईपीसी की धाराओं के तहत आती हों तो ऐसे में यूएपीए लगाने से ऐसा लगता है कि सरकार की एक एजेंसी "भेड़िया आया" चिल्ला रही है. अदालत ने कहा कि यूएपीए जैसे गंभीर प्रावधानों का अगर ऐसी लापरवाही से इस्तेमाल होगा तो ये प्रावधान महत्वहीन हो जाएंगे.
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आसिफ तन्हा के मामले में जब सरकारी वकील ने कहा कि अभी 740 गवाहों का निरीक्षण और सुनवाई का शुरू होना बाकी है, तो अदालत ने पूछा कि क्या सरकार यह चाहती है कि अदालत तब तक इन्तजार करे जब तक तेज सुनवाई के अधिकार का पूरी तरह से हनन ना हो जाए? पीठ ने कहा कि उसे इस बात का एहसास है कि महामारी की वजह से सुनवाई की कार्यवाही रुकी हुई है, इसलिए इस बिनाह पर जमानत की याचिका खारिज नहीं की जा सकती. तनहा लगभग साल भर से जेल में हैं और इस दौरान महामारी की दो घातक लहरें भी आईं लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली और ना ही उनके मामले पर सुनवाई शुरू हुई. यही हाल नताशा और देवांगना का भी है.
"आवाज दबाने की बेचैनी"
बल्कि नताशा के पिता और भाई को कोविड हो गया था. जब उनके पिता की हालत गंभीर हो गई तो उन्होंने उनसे मिलने के लिए जमानत की याचिका डाली लेकिन वो मंजूर नहीं हुई. बाद में उनके पिता के देहांत के बाद अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए उन्हें जमानत पर रिहा किया गया. वो कुछ ही दिनों पहले जेल में वापस लौट आई थीं.
विशेष रूप से उनकी जमानत की याचिका स्वीकार करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने सरकार को "असहमति की आवाजों को दबाने के लिए बेताब" बताया और कहा कि इस बेचैनी में "सरकार के जहन में विरोध के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा धुंधली हो गई है." पीठ ने अंत में कहा कि अगर इस "मानसिकता को औरों ने भी अपना लिया तो वो लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा."
दिल्ली दंगे: तब और अब
दिल्ली दंगों के एक साल बाद दंगा ग्रस्त इलाकों में लगता है कि पीड़ित परिवार आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन क्या इस तरह की हिंसा का दर्द भुलाना आसान है? तब और अब के बीच के फर्क की पड़ताल करती डीडब्ल्यू की कुछ तस्वीरें.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
दहशत का एक साल
दिल्ली दंगों के एक साल बाद, क्या हालात हैं दंगा ग्रस्त इलाकों में.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
चेहरे पर कहानी
एक दंगा पीड़ित महिला जिनसे 2020 में पीड़ितों के लिए बनाए गए एक शिविर में डीडब्ल्यू ने मुलाकात की थी. अपनों को खो देने का दर्द उनकी आंखों में छलक आया था.
तस्वीर: DW/S. Ghosh
एक साल बाद
यह महिला भी उसी शिविर में थी और कुछ महीने बाद अपने घर वापस लौटी. अब वो और उनका परिवार अपने घर की मरम्मत करा उसकी दीवारों पर नए रंग चढ़ा रहा है, लेकिन उनकी आंखों में अब भी दर्द है.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
आगजनी
दंगों में हत्याओं के अलावा भारी आगजनी भी हुई थी. शिव विहार तिराहे पर स्थित इस गैराज और उसमें खड़ी गाड़ियों को भी आग के हवाले कर दिया गया था.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
एक साल बाद गैराज किसी और को किराए पर दिया जा चुका है. स्थानीय लोगों का दावा है बीते बरस नुकसान झेलने वालों में से किसी को भी अभी तक हर्जाना नहीं मिला है.
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दहशत
गैराज पर हमला इतना अचानक हुआ था कि उसकी देख-रेख करने वाले को बर्तनों में पका हुआ खाना छोड़ कर भागना पड़ा था. दंगाइयों ने पूरे घर को जला दिया था.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
कमरे की मरम्मत कर उसे दोबारा रंग दिया गया है. देख-रेख के लिए नया व्यक्ति आ चुका है. फर्नीचर नया है, जगह वही है.
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बर्बादी
दंगों में इस घर को पूरी तरह से जला दिया गया था. तस्वीरें लेने के समय भी जगह जगह से धुआं निकल रहा था.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
साल भर बाद भी यह घर उसी हाल में है. यहां कोई आया नहीं है. मलबा वैसे का वैसा पड़ा हुआ है. दीवारों पर कालिख भी नजर आती है.
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सब लुट गया
दंगाइयों ने यहां से सारा सामान लूट लिया था और लकड़ी के ठेले को आग लगा दी थी. जाने से पहले दंगाइयों ने वहां के घरों को भी आग के हवाले कर दिया था.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
जिंदगी अब धीरे धीरे पटरी पर लौट रही है. नया ठेला आ चुका है और उसे दरवाजे के बगल में खड़ा कर दिया गया है. अंदर एक कारीगर काम कर रहा है.
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सड़क पर ईंटों की चादर
दंगों के दौरान जाफराबाद की यह सड़क किसी जंग के मैदान जैसी दिख रही थी. दो दिशाओं से लोगों ने एक दूसरे पर जो ईंटों के टुकड़े और पत्थर फेंके थे वो सब यहां आ गिरे थे.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
आज यह कंक्रीट की सड़क बन चुकी है. जन-जीवन सामान्य हो चुका है. आगे तिराहे पर भव्य मंदिर बन रहा है.
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दुकान के बाद दुकान लूटी गई
मुस्तफाबाद में एक के बाद एक कर सभी दुकानें लूट ली गई थीं. हर जगह सिर्फ खाली कमरे और टूटे हुए शटर थे.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
आज उस इलाके में दुकानें फिर से खुल गई हैं. लोग आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन मुश्किल से गुजर-बसर हो रही है.
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बंजारे भी नहीं बच पाए
इस दीवार के सहारे झुग्गी बना कर और वहां चाय बेचकर यह बंजारन अपना जीविका चला रही थी. दंगाइयों ने इसकी चाय की छोटी सी दुकान को भी नहीं छोड़ा था.
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एक साल बाद
उसी लाल दीवार के सहारे बंजारों ने नए घर बना तो लिए हैं, लेकिन वो आज भी इस डर में जीते हैं कि रात के अंधेरे में कहीं कोई फिर से आग ना लगा दे.
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टायर बाजार
गोकुलपुरी का टायर बाजार दंगों में सबसे बुरी तरह से प्रभावित जगहों में था. लाखों रुपयों का सामान जला दिया गया था.
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एक साल बाद
टायर बाजार फिर से खुल चुका है. वहां फिर से चहलकदमी लौट आई है लेकिन दुकानदार अभी तक दंगों में हुए नुक्सान से उभर नहीं पाए हैं.
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जंग का मैदान
जाफराबाद, मुस्तफाबाद, शिव विहार समेत सभी इलाकों की शक्ल किसी जंग के मैदान से कम नहीं लगती थी. जहां तक नजर जाती थी, सड़क पर सिर्फ ईंट, पत्थर और मलबा था.
तस्वीर: Syamantak Ghosh/DW
एक साल बाद
साल भर बाद यह सड़क किसी भी आम सड़क की तरह लगती है, जैसे यहां कुछ हुआ ही ना हो. लेकिन लोगों के दिलों के अंदर दंगों का दर्द और मायूसी आज भी जिंदा है. (श्यामंतक घोष)