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दिल्ली रेप कांड में सजा का इंतजार

१३ सितम्बर २०१३

सामूहिक बलात्कार कांड में दिल्ली की एक अदालत शुक्रवार को सजा का एलान करने वाली है. दोषियों को मौत की सजा मिल सकती है, जिसका मानवाधिकार कार्यकर्ता विरोध करते आए हैं. भारत में कैसी है फांसी की परंपरा.

अदालत करेगी सजा की घोषणातस्वीर: PRAKASH SINGH/AFP/Getty Images

दिल्ली गैंग रेप कांड में भी सरकारी वकील ने जज योगेश खन्ना से अभियुक्तों को मौत की सजा देने की मांग की है. हालांकि दोषियों के वकीलों का कहना है कि वे गरीब हैं और उनके परिवार को उनकी जरूरत है. भारत में सिर्फ दुर्लभों में दुर्लभ मामले में ही फांसी दी जा सकती है.

क्या है दुर्लभों में दुर्लभ

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने 1983 के फैसले में साफ कर दिया था कि सिर्फ "दुर्लभों में दुर्लभ" मामले में ही फांसी हो सकती है. लेकिन "दुर्लभों में दुर्लभ" क्या है और क्या वक्त के साथ इसकी परिभाषा बदलती है. वरिष्ठ वकील संजीव दुबे के मुताबिक हां, "यह हमेशा वक्त के साथ देखा जाता है. मिसाल के तौर पर अभी बलात्कार के मामले में. लेकिन इसके साथ ही दोषी की मानसिक स्थिति और उसकी पृष्ठभूमि भी देखी जाती है कि क्या वह ऐसी जगह पहुंच गया है, जहां कोई भी सजा उसे एक सभ्य नागरिक नहीं बना सकती."

भारत की जटिल कानूनी व्यवस्था और इंसाफ में होने वाली देरी के साथ "दुर्लभों में दुर्लभ" का मामला हमेशा व्यापक रहता है. हालांकि दुबे मानते हैं कि निचली अदालत, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के तीन स्तर पर जांचे जाने के बाद सवाल की गुंजाइश नहीं होती. लेकिन पहली बार सजा सुनाने वाली निचली अदालतें अक्सर जन भावनाओं और "तथ्यों और परिस्थितिजन्य सबूतों" के आधार पर फैसला सुनाती हैं.

पिछले साल यानी 2012 में मुंबई हमलों के दोषी आमिर अजमल कसाब को फांसी दी गई और इस साल अफजल गुरु को. इससे पहले भारत में 2004 में ही फांसी हुई, जब एक नाबालिग के बलात्कार और हत्या के दोषी धनंजय चटर्जी को फांसी की सजा दी गई. इस बीच दुनिया के कई देशों ने फांसी की सजा खत्म कर दी है और भारत से भी ऐसा करने की मांग की जा रही है. पिछली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने प्रावधान होने के बाद भी किसी को फांसी नहीं दी.

बलात्कार के विरोध में रैलीतस्वीर: UNI

कहां बनती है रस्सी

भारत में मौत की सजा के बाद दोषी को मजबूत रस्सी पर तब तक लटकाया जाता है, जब तक उसकी जान न निकल जाए. ये खास रस्सी भी बिहार की जेल में बंद कैदी ही तैयार करते हैं.

हालांकि सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि फांसी कोई हल नहीं. एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स के प्रमुख सुहास चकमा का कहना है कि अब कानून में ऐसा उपाय निकल गया है कि खतरनाक से खतरनाक कैदी को समाज से दूर रखा जा सके, "सुप्रीम कोर्ट ने इसका विकल्प तलाश लिया है. अगर किसी को जिंदगी भर जेल हो यानी 14 साल या 20 साल या 30 साल बाद भी वह जेल से बाहर न आ सके, तो उसकी जिंदगी जेल में ही खत्म होगी और इस तरह बड़े से बड़ा अपराधी भी समाज के लिए खतरा नहीं बन सकता."

दुनिया के 140 देशों ने मृत्युदंड खत्म कर दिया है. सुरक्षा जानकारों का कहना है कि यूरोप और अमेरिका के विकसित देश ऐसा कर सकते हैं, जहां लोगों के बीच साक्षरता और जागरूकता बहुत ज्यादा है, लेकिन ये नियम भारत पर भी नहीं लागू किए जा सकते. पर चकमा का दावा है, "नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में भी भारत जैसी ही स्थिति है, जिन्होंने मौत की सजा खत्म कर दी है. इस काम के लिए आपको पश्चिम की तरफ देखने की जरूरत नहीं, बल्कि आप अपने दक्षिण और उत्तर में ही देख लें."

रिपोर्टः अनवर जे अशरफ

संपादनः महेश झा

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