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दिल अपना और देश पराया

२९ दिसम्बर २०११

जर्मन में दो देशों से जुड़े परिवारों के संगठन 'एसोसिएशन ऑफ बाइनेशनल फैमिलीज एंड पार्टनरशिप' के 40 साल पूरे हो गए हैं. इतने सालों में जर्मनी में विदेशियों के साथ पक्षपात कम तो हुआ है, लेकिन पूरी तरह मिटा नहीं है.

तस्वीर: BilderBox

सत्तर के दशक में रेनाटे मिखाऊ रुष्टाइन ने हैती के एक व्यक्ति से शादी की. उसके बाद से उन्होंने कई बार अपने साथ अपने ही देश में पक्षपात होते देखा. रेनाटे का कहना है कि शांत रहना ही उनका मंत्र है. उन्हें लोगों की बातों का बुरा तो लगता है लेकिन वह उन्हें अपना गुस्सा नहीं दिखातीं.

रेनाटे बताती हैं कि जब उन्होंने शादी की तब आम लोग उनके पति से बात करना पसंद नहीं करते थे. दफ्तर में भी पीठ पीछे लोग उनके बारे में बातें किया करते थे. वह मुस्कुराते हुए बताती हैं कि उनके बेटे की मेडिकल फाइल में डॉक्टर ने उसे "हाफ-ब्रीड" कहा.

रेनाटे ने इन बातों का खुद पर असर तो नहीं होने दिया, लेकिन वह चुप भी नहीं रहीं. तब वह 'एसोसिएशन ऑफ बाइनेशनल फैमिलीज एंड पार्टनरशिप' पहुंचीं. उस जमाने में यह संस्था उन जर्मन महिलाओं के लिए काम करती थी, जिन्होंने विदेशियों से शादी की हो. रेनाटे बताती हैं, "तब जानकारी हासिल करना बेहद मुश्किल हुआ करता था. वहां ऐसी महिलाओं से मिल कर अच्छा लगा जो मुझ जैसे हालात से गुजर रही थीं."

तस्वीर: picture-alliance/dpa

सत्तर के दशक में जिन बच्चों के पिता जर्मन हों उन्हें ही जर्मनी की नागरिकता मिलती थी. लेकिन जिनके पिता विदेशी हों उन्हें नागरिकता का हक नहीं था. इस संस्था ने नागरिकता के कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन किए और संसद से इन्हें बदलने की मांग भी की. आज पूरे जर्मनी में इस संस्था की 22 शाखाएं हैं और दो हजार से अधिक सदस्य. जरूरत पड़ने पर इन लोगों को संस्था की ओर से कानूनी मदद भी मिलती है. साथ ही कई तरह के सेमिनार और वर्कशॉप भी आयोजित कराए जाते हैं.

40 साल बाद जर्मनी में कानून बदलने के कारण समाज में भी बदलाव आए हैं. जर्मनी को एक बहुसांस्कृतिक समाज कहा जा सकता है. यहां रहने वाला हर पांचवां शख्स मूल रूप से किसी और देश से जुड़ा है और हर 15 में से एक शादी विदेशी के साथ होती है.

इसके बावजूद जगह जगह पर पक्षपात होता दिख ही जाता है. इस संस्था के लिए काम करने वाली नताशा फरोएलिष का कहना है कि जर्मनी अभी भी बहुसांस्कृतिक समाज के रूप में ढल नहीं सका है. लोग बार बार उनकी नागरिकता पर सवाल उठाते हैं, "क्या मैं ईरान की हूं? क्या मैं जर्मनी की हूं? अगर मैं अपनी नागरिकता के बारे में नहीं सोचना चाहूं, तो भी मुझे लगता है कि लोग मुझे उसके बारे में सोचने पर मजबूर कर देते हैं."

नताशा का कहना है कि जर्मनी में अश्वेत लोग बड़े पद तक नहीं पहुंच पाते और उन्हें जर्मन-अफ्रीकी मूल के बच्चों को उनकी पहचान के बारे में समझाते हुए काफी दिक्कत होती है, "आप एक अश्वेत डॉक्टर या पुलिसवाला ढूंढने की कोशिश कीजिए." रेनाटे भी इस बात से इत्तिफाक रखती हैं. संस्था के काम के बाद भी उन्हें इस बात का दुख है कि "जर्मनी के लोगों की सोच अभी तक बदली नहीं है."

रिपोर्ट: डेनिस स्टूट/ईशा भाटिया

संपादन: ए जमाल

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