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दुख बढ़ा तो दवा भी बढ़ी

२३ नवम्बर २०१३

अमीर देशों में अवसाद से निपटने के लिए दवा लेने वालों की संख्या बढ़ रही है. आर्थिक विकास सहयोग संगठन ओईसीडी के मुताबिक पिछले दस सालों में मानसिक परेशानी को कम करने वाली दवाओं की खपत दोगुनी हो गई है.

तस्वीर: Fotolia/PRILL Mediendesign

नाराजगी, सिर दर्द और पेट खराब होना, अवसाद से बचने के लिए जब लोग दवा लेना बंद करते हैं तब उन्हें ऐसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

दुख के मारे मरीज

जर्मनी में इस विषय के जानकारों की टीम में शामिल माथियास साइब्ट ऐसे लोगों में से हैं जो एंटीडेप्रेसेंट के खिलाफ हैं. उन्हें खास परेशानी इस बात से भी है कि डॉक्टर दवाओं को भारी मात्रा में मानसिक रोगियों को देते हैं. ओईसीडी की ताजी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 10 सालों में अवसाद के खिलाफ दवा लेने वाले लोगों की तादाद दोगुनी हो गई है. जर्मनी में 10 साल में 2.15 गुना लोग दुख से मुक्ति दिलाने का वादा करने वाली गोलियां खाते हैं. आइसलैंड, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में लगभग 10 प्रतिशत लोग अपने मूड को अच्छा करने वाली दवा लेते हैं. साल 2000 में केवल सात प्रतिशत लोग अवसाद के शिकार थे. अनुमान के मुताबिक इस बीच दुनिया में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग डिप्रेशन के मरीज हैं.

तस्वीर: Fotolia/'S.Birkelbach

जर्मन मनोवैज्ञानिक संघ की क्रिस्टा रोथ साकेनहाइम कहती हैं कि मरीजों को ऐसी दवा देने की उनके पास ठोस वजह है, "आजकल इलाज की जरूरत वाले डिप्रेशन का हम आसानी से पता लगा पा रहे हैं." मिसाल के तौर पर अगर कोई मरीज लगातार दर्द की शिकायत कर रहा है तो इस दर्द की वजह को बारीकी से देखा जाता है. हो सकता है इसकी वजह मरीज का मानसिक तनाव हो.

दक्षिण यूरोप में बढ़ती आर्थिक असुरक्षा भी लोगों की खुशी पर साया डाल रही है. ओईसीडी की रिपोर्ट में लिखा है कि स्पेन और पुर्तगाल जैसे देशों में अवसाद की दवा लेने वाले लोगों की संख्या 20 प्रतिशत है. एक और वजह यह है कि पहले एंटिडिप्रेसेंट केवल डिप्रेशन के लिए दिए जाते थे. अब इसे लंबे वक्त से हो रहे दर्द और बेचैनी के लिए भी दिया जा रहा है.

तस्वीर: Fotolia/coldwaterman

असर पर विवाद

लेकिन अवसाद से निपटने वाली प्रोजैक और सैनैक्स जैसी दवाओं का असर कैसा होता है, इस बारे में विवाद जारी है. पहले हुए शोधों से पता चला कि छोटी मोटी बीमारियों में इन दवाओं का असर न के बराबर था. अमेरिका के न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन का कहना है कि एंटिडिप्रेसेंट को लेकर हुए एक तिहाई शोध तो प्रकाशित ही नहीं किए गए. इसी वजह से इन दवाओं के असर और खतरों के बारे में उपयोगी जानकारी को छिपाया जा सका है.

मनोवैज्ञानिक रोथ साकेनहाइम कहती हैं कि कई मरीजों को दवा के असर को लेकर भी तनाव होता है, "अब तक हमारे पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं है जो पहले से बता दे कि मरीज पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी." अवसाद मिटाने वाली दवाओं के पीछे यह सिद्धांत होता है कि मरीज अपने दुख भूल कर अपने मूल व्यक्तित्व के करीब आए और मानसिक बीमारी से बचे. वह रोजमर्रा की जिंदगी में हिस्सा ले सकता है. "लेकिन शीत्सोफ्रेनिया के मरीजों की भी छवि ऐसी है कि वह दवाएं लेते हैं और पागलों की तरह इधर उधर घूमते हैं." मनोवैज्ञानिक रोथ साकेहाइम मरीजों के दिल से यह डर निकालने की कोशिश करती हैं, "अगर किसी मरीज को अवसाद है तो वह इससे बाहर निकलने के लिए कुछ भी करेगा."

रिपोर्टः स्टेफैनी होपनर/एमजी

संपादनः ए जमाल

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