भारत में समलैंगिकता को कानूनी रूप से अपराध माने जाने से एलजीबीटी समुदाय डर के साए में जी रहा है. उन्हें अक्सर ब्लैकमेलिंग, वसूली और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है.
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हर शाम लखनऊ के चंद्रशेखर आजाद पार्क में कुछ युवा जुटते हैं और पेड़ों की छांव के पीछे खड़े होकर किसी का इंतजार करते हैं. इंतजार अपने गे पार्टनर का होता है. यह पार्क गे पार्टनर्स को ढूंढने के लिए मशहूर हो चुका है, लेकिन यहां हमेशा डर का साया बना रहता है कि कहीं पुलिस अरेस्ट न कर ले.
36 वर्षीय राहुल (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ''इस पार्क में आकर हम अपनी इच्छाओं को पूरा करते हैं.'' वह अपनी 12 साल की बेटी को ट्यूशन के लिए छोड़कर आने के बाद यहां आते हैं. राहुल जैसे कई पुरुष हैं जो पिता और पति हैं, और गे भी हैं. वे अपनी सच्चाई बता नहीं सकते क्योंकि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा. कई बार देखा गया है कि परिवार बदनामी के डर से जबरन शादी करा देता है. ऐसे में ये लोग घुटन में रहने और दोहरी जिंदगी जीने को मजबूर होते हैं.
30 लाख की आबादी वाले लखनऊ में एलजीबीटी समुदाय की आवाज सुनने वाला कोई नहीं है. समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले एक्टिविस्ट आरिफ जाफर कहते हैं, "एलजीबीटी लोगों की जिंदगी नर्क से कम नहीं होती. हमारी रिसर्च से मालूम चला है कि 40 फीसदी आत्महत्या के मामलों में कारण समलैंगिकता को अपराध मानना है. उन्हें पुलिस का और समाज से निकाले जाने का डर सताता रहता है."
आखिर क्या है धारा 377
भारत में समलैंगिकों के अधिकारों पर होने वाली बहस में अकसर धारा 377 का जिक्र आता है. क्या है ये धारा और क्यों बार-बार इसके खिलाफ आवाज उठती है, चलिए जानते हैं...
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ब्रिटिश राज का कानून
साल 1861 से धारा 377 भारतीय दंड संहिता का हिस्सा है जिसमें समलैंगिक सेक्स को अपराध माना गया है. समलैंगिकों और उनके लिए आवाज उठाने वालों की मांग है कि इसे खत्म किया जाए.
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42 देशों में 377
सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के 42 पूर्व उपनिवेशों में धारा 377 मौजूद है, लेकिन सबसे पहले इसे भारत में लागू किया गया था.
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अपराध
इस धारा के तहत प्राकृतिक यौन संबंधों यानी महिला और पुरूष के बीच सेक्स के अलावा अन्य यौन गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में रखा गया है.
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उम्रकैद का प्रावधान
धारा 377 में उम्र कैद की सजा तक का प्रावधान है. हालांकि ऐसे कम ही मामले सामने आते हैं जब इस धारा के तहत किसी के खिलाफ मुकदमा चलता हो.
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अहम फैसला
जुलाई 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक अहम फैसला देते हुए कहा कि दो समलैंगिकों के बीच अगर सहमति से सेक्स होता है तो उसे अपराध नहीं माना जाएगा.
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समलैंगिकों की जीत
समलैंगिकों ने दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले को अपने संघर्ष की जीत बताया. लेकिन कई संस्थाओं ने नैतिकता का हवाला देते हुए इस फैसले पर सवाल उठाया.
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फैसला पलटा
दिसंबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया और कहा कि 377 को रखने या हटाने का फैसला, संसद कर सकती है, न्यायपालिका नहीं.
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समलैंगिकों को झटका
अदालत के इस फैसले से समलैंगिकों और उनके अधिकारों के लिए काम करने वालों को झटका लगा. उन्होंने फिर से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया.
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समीक्षा याचिकाएं
6 फरवरी 2016 को चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा कि इस बारे में दाखिल की गईं 8 समीक्षा याचिकाओं पर पांच सदस्यों वाली संवैधानिक बेंच नए सिरे विचार करेगी.
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मूल अधिकार
अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समानता का अधिकार मूल अधिकारों में शामिल है और इसीलिए समलैंगिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए.
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गुपचुप गुपचुप
पुरुष समलैंगिकों के बीच यौन संबंध जैसे विषयों पर भारत में कभी खुल कर बात नहीं होती, खास कर गांवों में जहां भारत की 70 फीसदी आबादी रहती है.
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'पश्चिमी संस्कृति का असर'
बहुत से लोग अब भी समलैंगिकता को एक मानसिक बीमारी समझते हैं. कई कट्टरपंथी संगठन इसे पश्चिमी संस्कृति का असर बताकर खारिज करते हैं.
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मुकदमे
2016 में धारा 377 के तहत कुल 2,187 मामले दर्ज किए गए. इनमें से सात लोगों को दोषी करार दिया गया जबकि 16 को बरी कर दिया गया.
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कहां कहां अपराध
अंतरराष्ट्रीय लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांस और इंटरसेक्स एसोसिएशन का कहना है कि कुल 72 देशों में समलैंगिकों के यौन संबंधों को अपराध माना जाता है.
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विशाल (बदला हुआ नाम) पेशे से सेक्स वर्कर हैं. वह बताते हैं, ''कुछ साल पहले मैं एक होटल में गया जहां कमरे में दो पुलिसवाले और एक अन्य आदमी मौजूद थे. उन्होंने मेरे साथ रेप किया, भद्दी गालियां दी और मेरा फोन व पैसा लेकर भाग गए. उन्होंने धमकी दी कि वह मुझे गिरफ्तार कर जेल में डाल देंगे और परिवार वालों को बता देंगे कि मैं गे हूं.''
एलजीबीटी के अधिकारों की आवाज उठाने वाले संगठनों की माने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में लाए जाने से इन लोगों का शोषण हुआ है. मसलन, अगर वे ब्लैकमेल या यौन हिंसा का शिकार हुए, तो पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने से डरते हैं कि कहीं उन्हें ही जेल में न डाल दिया जाए.
जाफर के मुताबिक, "पुलिस खुद गे लोगों को पकड़कर उन्हें प्रताड़ित करती है. ऐसे में कानून से न्याय की उम्मीद करना बेकार है.'' 2001 में हुए एक वाकये का जिक्र कर जाफर बताते हैं, ''मैं गे और ट्रांसजेंडर लोगों को एचआईवी के प्रति जागरूक करने के लिए कार्यक्रम कर रहा था. पुलिस आई और मुझे व मेरे अन्य साथियों को धारा 377 के तहत जेल में डाल दिया. हम पर कुकर्म करने के आरोप लगे.''
भारतीय समाज में समलैंगिकता कलंक माना जाता है और कानून में इसे अपराध माने जाने से संकट और बढ़ जाता है. मार्केटिंग में मास्टर्स करने के बाद प्राइवेट कंपनी में उच्च पद पर काम कर रहे 29 वर्षीय राज (बदला हुआ नाम) को अपने ऑफिस में दिक्कतों का सामना करना पड़ा और उन्होंने नौकरी छोड़ दी. वह कहते हैं, ''मैंने महसूस किया कि पढ़े-लिखे लोग भी मजाक उड़ाते हैं. मेरे साथ लंच करना उन्हें पसंद नहीं आता था. अब मैं समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई से जुड़े लोगों के साथ काम करता हूं''
रोजाना की प्रताड़ना और लोगों की हिकारत भरी नजरों का सामना करने वाले समलैंगिकों की आस अब सुप्रीम कोर्ट से है. समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर लाने की याचिका डालने वालों में से एक जाफर को उम्मीद है कि समुदाय को न्याय मिलेगा. वह कहते हैं, ''समलैंगिकों को अपराध माने जाने से हमारे मूल अधिकार का हनन होता है. हमारा घर के बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है.''
राहुल समेत लखनऊ के अन्य समलैंगिक युवाओं का मानना है कि अगर कानून बदलेगा तो कोई पुलिसवाला उन्हें ब्लैकमैल नहीं कर पाएगा, "लोग अगर हमारा मजाक उड़ाएंगे तो हम पलटकर जवाब दे पाएंगे. पूरे समाज की सोच बदलने में वक्त लगेगा, लेकिन कम से कम पहले के मुकाबले हमारा डर कम हो जाएगा."
सोनिया फलनिकर/वीसी
कब कहां मिला समलैंगिकों का शादी का अधिकार
कब कहां मिला समलैंगिकों का शादी का अधिकार
ऑस्ट्रेलिया की संसद ने समलैंगिक शादी को कानूनी मान्यता देने वाला बिल पास कर दिया है. दुनिया के कई और देशों ने पहले ही इस तरह की शादियों को कानूनी रूप से वैध शादी का दर्जा दे रखा है.