दो गज जमीं भी न रही मुंबई शहर में
१४ अगस्त २०११मुंबई के बांद्रा में खड़ी सेंट एंड्रयूज चर्च भले ही रोमन कैथलिकों का पूजा स्थल हो, लेकिन यह शहर के उस इतिहास का दस्तावेज भी है जिसमें पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों, स्पेनियों और जाने कितने विदेशी मूल के लोगों के पन्ने दर्ज हैं. चर्च के विशाल आंगन में मार्बल से बनी कब्रों के नीचे वे लोग आखिरी नींद में सो रहे हैं, जिन्हें मुंबई शहर की मोहब्बत ने अपने यहां ही जमींदोज होने के लिए रोक लिया. सफाई वाला जब झाड़ू से कब्रों पर जमीं धूल झाड़ता है तो पत्थरों पर लिखे डिसूजा, पिंटो, पेरियार, फुर्तादोस और फोंसेका जैसे नाम बताते हैं कि मुंबई ने किस किस को दो गज जमीं बख्शी है.
लेकिन इस चर्च के पीछे का मंजर कुछ अलग है. वहां नई और छोटी छोटी सी कब्रें नजर आती हैं. कब्रों के पत्थर एक के ऊपर एक इस तरह रखे हैं जैसे बक्से रखे गए हों. हर पत्थर किसी अलग इंसान का है. ये इंसान हाल ही में मरे हैं. पिछले दो तीन साल में. लेकिन इनमें से किसी को भी दो गज जमीं नसीब नहीं हुई. क्योंकि हर कब्र में कइयों का हिस्सा है. हर नए मरने वाले के लिए किसी पुराने की हड्डियों को हटाया जाता है. क्योंकि सबको दो गज जमीन मिल सके, इतनी जगह ही नहीं है. मुंबई की गोद छोटी पड़ रही है.
1.2 करोड़ लोगों के इस शहर में मुर्दों को दफनाने के लिए जगह एक बड़ी समस्या बन चुकी है. कब्र के लिए कीमतें बढ़ती जा रही हैं. इसलिए सदियों पुरानी परंपराएं टूट रही हैं. और लोग ज्यादा व्यवहारिक हल के बारे में सोचने लगे हैं. सेंट एंड्रयूज चर्च के पादरी माइकल गोविएस कहते हैं, "यह तो सभी चर्चों के लिए समस्या है. हम अब स्थायी कब्रों की इजाजत नहीं देते. अब स्थायी कब्र उन्हीं को मिलती है जिनके पास कब्रिस्तान में पुश्तैनी जमीन है. बाकियों को छोटी छोटी जगहें मिलती हैं."
भारत के तेजी से बढ़ते सभी बड़े शहरों में कब्रगाहें ईसाइयों और मुसलमानों के लिए समस्या बन चुकी हैं. वैसे यह समस्या तो दुनिया के बाकी बड़े शहरों में भी है. लेकिन भारत में मुंबई इसका सबसे बड़ा शिकार लगता है. स्थानीय अधिकारियों का अनुमान है कि मुंबई में हर व्यक्ति के लिए 1.3 वर्गफुट खुली हरीभरी जगह उपलब्ध है. यह आंकड़ा बताता है कि मुंबई दुनिया के सबसे ज्यादा भीड़भाड़ वाले शहरों में शामिल हो चुका है.
इसलिए कब्रिस्तानों और श्मशानों के लिए नए नए हल तलाशे जा रहे हैं. मसलन अमेरिका की टॉल बिल्डिंग्स एंड अर्बन हैबिटेट के पास पिछले साल एक हल भेजा गया. इसमें एक टावर बनाने का सुझाव दिया गया जिसमें हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों के अंतिम संस्कार के लिए जगह बनाने की बात कही गई. सुझाव में इस बात पर जोर दिया गया कि अब अंतिम संस्कार के पारंपरिक तरीकों के लिए जगह नहीं बची है.
जगह की इस किल्लत का एक नतीजा तो यह सामने आ रहा है कि अब ज्यादा से ज्यादा कैथलिक ईसाई दफनाने की जगह जलाए जाने का विकल्प चुन रहे हैं. एक वक्त था जब चर्च ने जलाए जाने को पाप बताया था. लेकिन नई दुनिया में पाप और पुण्य के मायने बदल रहे हैं. फादर माइकल कहते हैं, "पहले आप जलाए जाने के लिए इजाजत लेते थे. अब तो यह आम होने लगा है. बात ये है कि जलाए जाने के बाद भी कुछ नहीं बचता. यानी जलाएं या दबाएं, बात तो एक ही है."
लेकिन जो लोग अब भी पारंपरिक व्यवस्था यानी, दफनाया जाना ही पसंद करते हैं, उन्हें चर्च प्लाईवुड के बने कोफीन या लाइनेन के कफन अपनाने की सलाह देती हैं ताकि शरीर जल्द से जल्द मिट्टी में मिल जाएं. बॉम्बे कैथलिक सभा की डोल्फी डिसूजा बताते हैं, "आबादी बढ़ रही है और जगह कम हो रही है. लिहाजा अब 18 महीने में ही शव को बाहर निकालने की कोशिश रहती है.
यानी अब कब्र पर यह नहीं लिखा जाएगा कि यहां फलाना शांति से सो रहा है, क्योंकि वह जल्दी ही वहां से जा चुका होगा.
रिपोर्टः एजेंसियां/वी कुमार
संपादनः एन रंजन