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दो मीठे बोल, और कुछ नहीं

२६ जुलाई २०१०

मशीन के बढ़ते प्रभाव के बीच मानवीय संबंध लड़खड़ा रहे हैं. सारी दुनिया आत्मीयता के दो बोल की मोहताज होती जा रही है. वेबदुनिया की पुरस्कार विजेता पत्रकार स्मृति जोशी कर रही हैं मीठे बोल के महत्व की विवेचना.

तस्वीर: Beate Wand

'शब्द शब्द है. उसे किसी की नफरत छू जाए तो वह एक गाली बन जाता है. वह आदि बिंदु के कम्पन को छू ले तो कॉस्मिक ध्वनि बन जाता है और वह किसी की आत्मा को छू ले तो वेद की ऋचा बन जाता है, गीता का श्लोक बन जाता है, कुरान की आयत बन जाता है, गुरुग्रंथ साहब की वाणी बन जाता है.
ठीक उसी तरह, जैसे पत्थर पत्थर है- गलत हाथों में आ जाए तो किसी का जख्म बन जाता है, किसी माइकल एंजेलो के हाथों में आ जाए तो हुनर का शाहकार बन जाता है, किसी का चिंतन छू ले तो वह शिलालेख बन जाता है. वह किसी गौतम का स्पर्श पा ले तो वज्रासन बन जाता है और किसी की आत्मा उसके कण-कण को सुन ले तो वह गारे-हिरा बन जाता है.' - अमृता प्रीतम
शब्दों की महत्ता असीम है. आज समूची दुनिया आत्मीयता युक्त दो मीठे बोल की मोहताज है. ईंट-कंक्रीट के इस संसार में मीठे, अपनत्व भरे बोल का अस्तित्व वैसा ही है, जैसे चिलचिलाती तेज धूप में अमलतास खिल आया या जैसे कसमसाती तपिश में हरे-भरे घने वृक्ष का साया. बोल तो बोल हैं. प्यार का स्पर्श पाने पर वे शहद-से मीठे लगने लगते हैं और किसी की क्रोधाग्नि स्पर्श कर लें तो विषाक्त हो जाते हैं. अहंकारी हृदय से निकले बोल पराए हो जाते हैं, चाहे अभिव्यक्त करने वाला कितना ही सगा कहलाता हो.
वहीं निर्मल मन से निकले सरल बोलों से पराए भी अपनों की श्रेणी में आ जाते हैं. ये बोल ही तो हैं, जो एक झटके में रिश्तों के मजबूत धागों को खींचकर तोड़ डालते हैं और ये बोल ही हैं, जो मात्र परिचय को सुनहरी, रेशम डोर से बांधकर प्रगाढ़ संबंधों में बदल देते हैं. इन्हीं बोलों की कृपा है कि नितांत अपरिचित यकायक बेहद अपना-सा लगने लगता है और रात-दिन निकटता का दंभ भरने वाला, वर्षों का गहरा परिचित इन्हीं बोलों से परायों की दूरस्थ पंक्ति में खड़ा हो जाता है. अजनबी को अपना और अपने को अजनबी बनाने में ये बोल बड़ी निर्णायक भूमिका अदा करते हैं.

तस्वीर: AP

आज जीवन के सारे मूल्य खरीदे जा रहे हैं, बेचे जा रहे हैं और उनकी कीमतें लिखे जाने योग्य नहीं है. बोल भी यहां की प्रमुख उपभोक्ता वस्तु है. महंगा बिकता है, इसलिए ज्यादा कोई इस पर खर्च नहीं करता.
क्रय-विक्रय की इस बाजारू दुनिया में बोल का बिकना अफसोसजनक है. स्नेहासिक्त, दो मीठे बोल अनमोल होते हैं, उनका कोई मूल्य निर्धारित कर ही नहीं सकता, किन्तु यह भी उतना ही सच है कि बोलने वालों को अपनी निजी, अपार संपत्ति में से कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता है और न ही ऐसा है कि सुनने वाला कुछ संपत्ति ले जाएगा.
वास्तव में यदि किसी परिचित, अपरिचित, रिश्तेदार, मित्र, पड़ोसी आदि से अपनत्व से मीठे बोल बोल भी लिए जाएं तो नुकसान कभी भी, कहीं पर भी, किसी का भी नहीं होता बल्कि मिलने वाला सदैव परस्पर आदान-प्रदान किए गए बोलों को ही स्मरण रखता है, न कि व्यक्ति विशेष को. या फिर कह लीजिए की बोलों की ही वजह से वह व्यक्ति विशेष को याद रखता है.
अक्सर पद, उम्र और रिश्तों के अनुरूप बोलों के स्वरूप, तरीके और प्रस्तुति सभी बदल जाते हैं. अक्सर पाया जाता है कि विशिष्ट उपलब्धि हासिल किए लोग, शीर्ष पदों पर विराजमान हस्तियां एवम् सुप्रसिद्व, सफल समझे जाने वाले, बड़े लोग- इन सभी में अपेक्षित विनम्रता, आत्मीयता और शिष्टता का अभाव होता है.
अपवाद संभव है किन्तु उन अपवादों को व्यक्ति-विशेष की महानता और बड़प्पन माना जा सकता है अन्यथा यही देखने में आया है कि जहाँ किसी पद, सफलता और उपलब्धि के चलते व्यक्ति में यह भाव आया कि वह औरों से अलग है, उसके बोलों में दर्प अनायास ही झलकने लगता है.

तस्वीर: AP

'बोल
नदी के तट पर
रेत से लिखे शब्द नहीं हैं
जो बह जाएँ
समय की लहरों से
ये तो स्वयं
छलछल-कलकल
नदी है
अपने में
भाव,प्यार, रिश्ते
विचार और व्यवहार की
सीपियाँ समेटे हुए....'

सचमुच- बोलो तो ऐसा कि सुनने वाला आस्था के नन्हे रूमाल में लपेटकर स्नेहिल खूशबू से सरोबार कर उन्हें सहेजकर रखना पसंद करे और उसके सुशांत-एकांत में जब स्मृतियों के झरोखे अपने आप खुल जाएं, तब आपके बोल वर्षों बाद भी अपनी दिव्यता सिद्व करने में सक्षम हों. मृदु वचन औषधि के समान होते हैं. मरणासन्न मरीज चिकित्सक की मधुर वाणी से ही राहत प्राप्त कर लेता है.
बोलों की मिठास ऐसी हो, जो खनकती बयार में तैरने लगे, चमचम करती नदियों के प्रवाह पर चलने लगे, इन्द्रधनुष रंगने लगे और समय आने पर सूर्य-सा प्रकाश आलोकित कर दे- मन के आकाश पर.
मीठे स्नेहमयी बोल सदैव पर्वत से शांत हो, आसमान से विराट हो, कलियों से मुस्कराते हो, भंवरों से गुनगुनाते हो या फिर झरने से चंचल हो, किन्तु कभी भी वज्र से कठोर न हों, तीर से नुकीले न हों, करेले से कड़वे न हों, सर्प से विषैले न हों. बोल न तो मिर्च से तीखे हों, न ही इमली से खट्‍टे, न तो जलते हुए हों, न ही तपते हुए. बोल ऐसे हों, जो सुनने वाले के लिए गुणकारी हों, न कि ऐसे कि सुनने के उपरांत रिश्तों के गुण-धर्म ही बदल दें!

बोल ऐसे हों कि मिलने वाला बार-बार आपसे मिलने के लिए आतुर हो उठे. मिलन-क्षण में शब्दों और आत्मीयता का गरिमामय आलोक निर्मित हो, न कि किसी युद्धस्थली का दृश्य, जहां शब्दों की चिंगारी बरसाते तीर आपस में टकराएं और कभी इधर का तीर भस्म हो, कभी उधर का.
मैं एक वरिष्ठ, वयोवृद्ध लेखक की लेखनी की गहरी प्रशंसक थी, माफ कीजिएगा! लेखनी की प्रशंसक आज भी हूँ. एक बार जयपुर प्रवास के दौरान पता चला कि लेखक महोदय किसी कार्यक्रम में भाग लेने आए हुए हैं. अतएव उनसे प्रत्यक्षतः मिलने का मोह रोक न सकी. मेरी एक सखी भी उनकी प्रशंसक थी. सो हम दोनों किसी तरह कार्यक्रम स्थल तक पहुँची.
वहाँ जाकर देखा, मंच पर लेखक महोदय अकेले बैठे हुए हैं. उनकी कठोर मुख मुद्रा ने मेरी जुबान पर तो ताले ही जड़ दिए. मेरी सखी ने हिम्मत की. परिचय दिया और उनके आलेखों की प्रशंसा की. फिर ऑटोग्राफ के लिए डायरी आगे कर दी. लेखक महोदय अब तक एक शब्द नहीं बोले थे, लेकिन ऑटोग्राफ के उपरांत उन्होंने कड़कती आवाज में कहा - चलिए, उतरिए फौरन नीचे. आने किसने दिया आपको ऊपर? यहाँ कोई व्यवस्था है या नहीं?
मेरी सखी हतप्रभ-सी नीचे उतरी. उससे पहले मैं भी चल पड़ी थी. अपमान, क्रोध और पीड़ा से हमारी आँखें छलछला गईं. त्वरित प्रतिक्रियास्वरूप जी में यही आया कि घर पहुंचते ही सबसे पहले उनके आलेखों को फाड़कर जलाऊंगी. हालांकि ऐसा मैंने किया नहीं, लेकिन रास्ते में यही सोचती रही कि दो मीठे बोल न सही, कड़वे भी उच्चारित न किए होते तो आज उन लेखक के प्रति हमारी श्रद्धा तो कम न होती.
दो मीठे बोलों से करोड़ों दिलों पर राज किया जा सकता है. समूची दुनिया जीती जा सकती है. क्यों इस दुनिया में मीठे बोल इतने महंगे होते जा रहे हैं? क्या सफलता के नशे में आदमी इतना धुत हो जाता है कि उसके बोल और कदम दोनों बहकने लगते हैं. बोलों की पृष्ठभूमि में सदैव निकटता की अनुभूति, व्यवहार की सौम्यता और मधुर अंतर्मन विद्यमान रहें, ताकि इस सीधी-सपाट दुनिया में स्नेह के महासिंधु उमड़ें, उमस के कसमसाते बादल नहीं. कौन समझाए आज के इंसान को कि
'इक दिन बिक जाएगा/माटी के मोल/जग में रह जाएँगे/प्यारे तेरे बोल.'

तस्वीर: illuscope

लेख: स्मृति जोशी, वेबदुनिया

संपादन: महेश झा

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