नौ द्वीपीय देशों ने संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय समुद्री अदालत से गुहार लगाई है कि वह उन देशों को विनाशकारी जलवायु परिवर्तन से बचाए. हैंबर्ग की अदालत में इस मामले पर सुनवाई हो रही है.
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"इंटरनेशनल ट्राइब्यूनल फॉर द लॉ ऑफ द सी" में इन द्वीपीय देशों ने अपील की है कि महासागरों में अवशोषित होने वाले कार्बन डाइऑक्साइ़ड उत्सर्जन को प्रदूषण माना जाए. उनका कहना है कि अगर ऐसा होता है, तो दुनिया के देशों को इस प्रदूषण को रोकना होगा.
जिस ऑक्सीजन में इंसान सांस लेता है, उसका आधा हिस्सा महासागरीय ईकोसिस्टम बनाते हैं. इसके अलावा मानवीय गतिविधियों से पैदा होने वाले कार्बन डाइ ऑक्साइड का एक बड़ा हिस्सा सोख लेते हैं. लगातार बढ़ता उत्सर्जन एक तरफ जहां समुद्र को गरम और अम्लीय बनाएगा, वहीं समुद्री जीवन को भी नुकसान पहुंचाएगा.
इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र की संधि यूएनसीएलओएस की तरफ ध्यान दिलाया है, जो इसमें शामिल देशों के लिए समुद्री प्रदूषण को रोकना बाध्यकारी बनाता है. संयुक्त राष्ट्र की इस संधि के मुताबिक प्रदूषण "वह चीज या उर्जा है, जो समुद्री वातावरण" में इंसानों के जरिए आता है और समुद्री जीवन को प्रभावित करता है. हालांकि यह कार्बन उत्सर्जन को प्रदूषक के रूप में नहीं देखता. ये देश चाहते हैं कि यह उत्सर्जन प्रदूषक माना जाना चाहिए.
अपील करने वाले देशों में तुवालु भी शामिल है. तुवालु के प्रधानमंत्री काउसी नातानो का कहना है, "सारे समुद्री और तटवर्ती ईकोसिस्टम पानी में खत्म हो रहे हैं क्योंकि यह गरम और अम्लीय हो रहा है. विज्ञान अविवादित और स्पष्ट हैः ये असर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तनका है."
नातानों का कहना है कि हम यहां मदद मांगने आए हैं.
छोटे द्वीपों पर दिख रहा गंभीर असर
जलवायु न्याय की कोशिशों को मार्च में बड़ी सफलता मिली, जब संयुक्त राष्ट्र आमसभा ने इससे जुड़ा एक प्रस्ताव पास कर दिया. इसमें अंतरराष्ट्रीय न्याय अदालत से उन देशों के लिए पृथ्वी के जलवायु की रक्षा को बाध्यकारी बनाने और ऐसा नहीं करने पर कानूनी नतीजे भुगतने के लिए नियम बनाने की बात कही गई है. संयुक्त राष्ट्र में इस कदम का नेतृत्व वनुआतु ने किया था, जो 11 सितंबर को जर्मनी के हैंबर्ग में हो रही सुनवाई में भी शामिल है.
वनुआतु जैसे छोटे द्वीप खासतौर से ग्लोबल वार्मिंग के असर को सबसे ज्यादा महसूस कर रहे हैं. समुद्री जलस्तर बढ़ रहा है और यह पूरे देश को ही डुबो सकता है.
पृ्थ्वी का दो तिहाई हिस्सा समुद्र से ढका है. अमेरिका के राष्ट्रीय महासागरीय और जलवायु प्रशासन के मुताबिक, महासागरों के सतह पर मौजूद पानी के 60 फीसदी हिस्से ने 2022 में कम-से-कम एक बार गरम हवाओं का सामना किया. यह पूर्व औद्योगिक स्तर की तुलना में करीब 50 फीसदी ज्यादा है.
अपील करने वाले नौ द्वीपीय देशों में वनुआतु, तुवालु के अलावा बहामस, नीयू, पलाउ, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट लुसिया, सेंट विंसेंट और ग्रेनाडिनेस भी शामिल हैं.
एनआर/एसएम (एएफपी)
इतनी गर्मी कि फोटोसिंथेसिस बिना मर सकते हैं पेड़
फोटोसिंथेसिस, पृथ्वी पर मौजूदा ज्यादातर जीवन के लिए बेहद अहम है. क्या हो अगर पत्तियां ये कर ही ना पाएं? धरती के एक बड़े हिस्से में इतनी गर्मी पड़ रही है कि कुछ पौधों की पत्तियां शायद फोटोसिंथेसिस कर ही नहीं सकेंगी.
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क्या है फोटोसिंथेसिस
सूरज की रोशनी में पौधे, हवा और मिट्टी से सीओटू और पानी लेते हैं. पौधों की कोशिकाओं में जाकर पानी ऑक्सीडाइज होता है और सीओटू कम हो जाता है. इस क्रिया में पानी, ऑक्सीजन में बदल जाता है और सीओटू बदलता है ग्लूकोज में. फिर पौधा ऑक्सीजन वातावरण में छोड़ देता है और ऊर्जा को ग्लूकोज मॉलिक्यूल्स में जमा कर लेता है.
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पौधों को कहां से मिलता है हरा रंग
पौधों की कोशिकाओं में क्लोरोप्लास्ट होता है, जो सूरज की रोशनी से मिलने वाली ऊर्जा जमा करता है. इसके थाइलाक्लॉइड मेंमब्रेन्स में रोशनी को सोखने वाला क्लोरोफिल नाम का एक पिगमेंट होता है. इसी की वजह से पौधों को मिलता है हरा रंग.
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पेड़ों की भी गर्मी सहने की सीमा है
फोटोसिंथेसिस करने की पत्तियों की क्षमता, तापमान के एक सीमा से पार होने पर नाकाम होने लगती है. यानी जब पेड़ बहुत गरम हो जाते हैं, तो पत्तियों में ऊर्जा उत्पादन की मशीनरी तपकर खत्म होने लगती है. ऊष्णकटिबंधीय इलाकों के पेड़ों में तापमान की यह सहनशक्ति तकरीबन 46.7 डिग्री सेल्सियस है.
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क्या कहता है नया शोध
नेचर पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, दक्षिण अमेरिका से लेकर दक्षिणपूर्व एशिया के ऊष्णकटिबंधीय जंगलों में इतनी गर्मी हो रही है कि वहां कई पत्तियां शायद फोटोसिंथेसिस करने की हालत में ना रहें.
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40 डिग्री सेल्सियस के भी पार
वैज्ञानिकों ने पृथ्वी से करीब 400 किलोमीटर ऊपर स्थित अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर लगे थर्मल सैटेलाइट सेंसरों से लिए गए तापमान के आंकड़े इस्तेमाल किए. उन्होंने इसे लीफ-वॉर्मिंग प्रयोगों से जमा किए आंकड़ों से मिलाया. वैज्ञानिकों ने एक्सट्रीम तापमान पर गौर किया. पाया गया कि फॉरेस्ट कैनपी का औसत तापमान, 34 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा. लेकिन कुछ मामलों में यह 40 डिग्री सेल्सियस के पार भी चला गया.
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मर सकते हैं पेड़
रिपोर्ट के मुताबिक, अभी 0.01 फीसदी पत्ते तापमान की सीमा रेखा पार कर रहे हैं. इस सीमा के बाहर फोटोसिंथेसिस करने की उनकी क्षमता दम तोड़ देती है. यानी, पत्ते और पेड़ की मौत हो सकती है.
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ग्लोबल वॉर्मिंग
0.01 फीसदी पत्तों का आंकड़ा अभी कम मालूम होगा. लेकिन तापमान तो लगातार बढ़ रहा है. सबसे गर्म जुलाई! अब तक का सबसे गर्म जून! ऐसे में ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के ऊष्णकटिबंधीय खतरों पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है.
तस्वीर: Juancho Torres/AA/picture alliance
ऊष्णकटिबंधीय जंगलों की अहमियत
पृथ्वी के करीब 12 फीसदी इलाके में ऊष्णकटिबंधीय जंगल हैं. इतने से इलाके में पौधों और जानवरों की तीन करोड़ से ज्यादा प्रजातियां हैं. यानी, पृथ्वी पर मौजूद वन्यजीवन का आधा हिस्सा और पेड़-पौधों की कम-से-कम दो तिहाई विविधता. माना जाता है कि वर्षावनों में तो अब भी सैकड़ों प्रजातियां हैं, जिनका हमें पता नहीं.
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जल चक्र: पानी-भाप-बादल-बारिश
ये जंगल पृथ्वी के पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए अहम हैं. ये हमें ऑक्सीजन देते हैं. सीओटू सोखते हैं. ये पानी का चक्र भी बनाए रखते हैं. ये वाष्पन क्रिया से वातावरण को पानी और नमी मुहैया करते हैं, जिससे बादल बनते हैं, बारिश होती है और इस तरह पानी का एक चक्र घूमता रहता है. ऐसा नहीं कि एक जगह के जंगल से उसी जगह बारिश होती हो. इस बारिश से नदियों, झीलों और सिंचाई व्यवस्थाओं को खुराक मिलती है.