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धारावी की बस्ती ब्रिटेन के लिए मॉडल

१० अक्टूबर २०१०

ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स ने एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी को इंग्लैंड के शहरों के लिए मॉडल माना है. हाल ही में कॉमनवेल्थ खेलों के लिए भारत आए चार्ल्से ने यह विचार अपनी नई किताब में लिखे हैं.

तस्वीर: AP

प्रिंस चार्ल्स की यह किताब हारमोनी बिक्री के लिए अगले हफ्ते जारी होगी. चार्ल्स ने लिखा है कि ब्रिटेन को धारावी के लोगों से जीने के तरीके सीखने चाहिए.चार्ल्स के मुताबिक पश्चिमी देशों के कई शहरों के मुकाबले धारावी ज्यादा व्यवस्थित है और यहां रहने वाले लोगों का जीवन के प्रति नजरिया बेहतर और सीखने के काबिल है. चार्ल्स चाहते हैं कि दुनिया भर के लोग इसे सीखें.

एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावीतस्वीर: DW

लंदन के एक अखबार ने आशंका जताई है कि प्रिंस चार्ल्स को उनके इस नजरिए के लिए आलोचनाओं का शिकार होना पड़ सकता है क्योंकि धारावी की तारीफ करते करते उन्होंने झुग्गी बस्तियों के बने रहने की वकालत की है.

चार्ल्स ने अपनी किताब में लिखा है, "दूर से प्लास्टिक और कूड़े का बड़ा सा ढेर नजर आती धारावी पास आने पर कई गलियों में बंटी एक कालोनी बन जाती है जिसमें छोटी छोटी दुकानें, घर और वर्कशॉप हैं जिन्हें वहां मौजूद सामानों से ही बनाया गया है. कोई चीज बाहर से नहीं आई." चार्ल्स ने लिखा है कि पश्चिम के देशों में दूर दूर और अकेले बने घरों में धारावी के तालमेल को भी शामिल किया जाना चाहिए. कालोनियों का आपसी तालमेल उनके लिए कितने काम की साबित हो सकती है, ये हमें धारावी से सीखना चाहिए."

रिसाइकिल के काम में जुटी महिलाएंतस्वीर: DW / Priya Palsule-Desa

चार्ल्स यह भी लिखते हैं कि धारावी का सारा कचरा बिना किसी सरकारी इंतजाम के अपने आप इकट्ठा हो जाता है और छांट लिया जाता है. हां, इतना जरूर है कि यह सब किसी स्वस्थ माहौल में नहीं होता, लेकिन फिर भी उसे रिसाइकिल कर लिया जाता है. चार्ल्स का कहना है, "सबसे बड़ी बात है कि धारावी के लोगों के बीच सामुदायिक भावना, जो उन्हें आपस में जोड़े रखती है. इस झुग्गी बस्ती ने अपना अर्थतंत्र भी खड़ा कर लिया है. इनके अपने बैंक हैं जो लोगों की बचत को जरुरतमंद लोगों में बांट कर विकास के लिए संसाधन जुटा रहे हैं."

चार्ल्स मानते हैं कि लोगों के आपसी संबंधों का मजबूत होना और एक दूसरे की मदद के लिए आगे आना, इन बस्तियों की सबसे बड़ी ताकत है जो दूसरे लोगों को भी सीखना चाहिए.

61 साल के प्रिंस अपनी इस किताब को 'क्रांति की पुकार' मानते हैं और आलोचनाओं की परवाह नहीं करना चाहते. वह कहते हैं, "जब एक पारंपरिक सोच के खिलाफ कोई नई बात मजबूती से कही जाती है, तो उसका विरोध होना स्वाभाविक ही है."

रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन

संपादनः ए कुमार

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