नई जर्मन संसद बनी, मैर्केल कार्यवाहक
२२ अक्टूबर २०१३संसद के सदस्य देश की जनता के प्रतिनिधि होते हैं. उन्हें हर तबके से, हर पेशे से होना चाहिए, लेकिन बुंडेसटाग के ज्यादातर सदस्य पेशे से शिक्षक या वकील हैं. मसलन जमिले यूसुफ. वे कोई सामान्य राजनीतिज्ञ नहीं हैं. सिर्फ इसलिए नहीं कि वे मुस्लिम होते हुए भी क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक पार्टी में सक्रिय हैं, इसलिए भी नहीं कि वे राजनीतिशास्त्र में ग्रेजुएट हैं, संसद के सामाजिक विश्लेषण से पता चलता है कि वे दो कारणों से औसत सांसद नहीं हैं. 35 साल की उम्र में वे युवा हैं और साथ ही महिला हैं. हालांकि दूसरी नजर से देखें तो वे पूरी तरह औसत सांसद हैं, पेशे के मामले में.
जर्मनी की नई 18वीं संसद में पुरुष सदस्यों की संख्या महिला सदस्यों से करीब दोगुनी ज्यादा है. उनमें से बहुत से 50 साल की उम्र के हैं और सांसद बनने से पहले "प्रशासनिक जिम्मेदारी के पद" पर थे, जैसा कि संघीय चुनाव अधिकारी के औपचारिक आंकड़े में कहा गया है. संसद के 631 सदस्यों में आधे से ज्यादा पेशे से प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक या वकील हैं और सीडीयू की सांसद जमिले यूसुफ भी उनमें शामिल हैं. वे नॉर्थराइन वेस्टफेलिया प्रांत के एक मंत्रालय में अधिकारी हैं. पुरानी संसद की संरचना भी ऐसी ही थी. बहुत थोड़े सदस्य मजदूर या स्वतंत्र रूप से काम करने वाले व्यवसायी थे.
पुराने काम पर लौटने की गारंटी
बुंडेसटाग के पुराने आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि 1957 से संसद सदस्यों में सरकारी अधिकारियों का अनुपात बढ़ता गया है. सरकारी कर्मचारी संघ डीबीबी के क्लाउस डाउडरश्टेट कहते हैं, "आत्मनिर्भर व्यवसायी चार साल के लिए यूं ही अपना उद्यम छोड़ नहीं सकता." इसके विपरीत सरकारी अधिकारियों को चार साल की सदस्यता के बाद नौकरी जाने का खतरा नहीं होता. संसद सदस्यता कानून इसकी गारंटी देता है कि वे सदस्यता खत्म होने पर अपनी पुरानी नौकरी पर वापस जा सकते हैं. डाउडरश्टेट इसे उचित भी मानते हैं, "हम सरकार के दूसरे पहलू हैं." उनका कहना है कि राजनीतिक फैसले में उनकी भागीदारी उचित ही है.
भविष्य की चिंता एकमात्र वजह नहीं हो सकती कि राजनीति में आर्थिक जगत के इतने कम प्रतिनिधि सक्रिय क्यों हैं. ड्रेसडेन के राजनीतिशास्त्री वैर्नर पात्सेल्ट कहते हैं, "संसद की सदस्यता स्वतंत्र रूप से काम करने वालों के लिए बहुत कम आकर्षक रह गई है." जर्मनी के दूसरे उच्च पदों की तुलना में सांसदों का वेतन कतई ऊंचा नहीं है, और सचमुच की ताकत कुछ ही सांसदों के हाथों में होती है. तो क्या वेतन बढ़ाने से और ज्यादा व्यवसायी संसद की सदस्यता के प्रति आकर्षित हो सकते हैं?
बाहर के लोगों के लिए मौका नहीं
एक समस्या यह भी है कि जर्मन राजनीति में कुछ बनने के लिए बहुत जल्द शुरुआत करनी पड़ती है, किसी न किसी पार्टी में सक्रिय होना पड़ता है. वैर्नर पात्सेल्ट कहते हैं, "हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में युवावस्था में ही राजनीतिक तौर पर सक्रिय होना जरूरी है." इसकी वजह से संसद के अधिकारियों का संसद होने का आभास मिलता है. सचमुच स्वतंत्र रूप से काम करने वाली उद्यमी महिला के लिए संसद का सदस्य बनना आसान नहीं है. राजनीतिज्ञ का करियर भी रणनीतिक योजना के तहत बनता है. पहले पार्टी के युवा संगठन की सदस्यता, फिर एक पद से दूसरे पद की जिम्मेदारी और अंत में संसद की उम्मीदवारी. स्थापित पार्टियों के बिना यह संसद के स्तर पर संभव ही नहीं और किसी कद्दावर नेता का समर्थन न हो तो कतई नहीं.
और वे अपने ही आसपास युवा प्रतिभाओं की तलाश करते हैं. यही वजह है कि अधिकारियों जैसे कुछ तबकों का संसद में औसत से ज्यादा प्रतिनिधित्व है. इसके विपरीत महिलाओं, आप्रवासी मूल के नागरिकों और उच्च शिक्षा से वंचित लोगों का प्रतिनिधित्व आबादी के औसत से बहुत कम है. सिर्फ 37 सांसद आप्रवासी परिवारों से हैं. उनमें से एक भारतीय मूल के सांसद सेबाश्टियान एडाथी भी हैं. राजनीतिशास्त्री पात्सेल्ट की शिकायत है, "बहुत से लोगों को राजनीतिक पेशे से दूर रखा जाता है."
संतुलन के लिए बदलाव
वैर्नर पात्सेल्ट का कहना है कि संसद को सामाजिक रूप से संतुलित बनाने के लिए चुनाव व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है. उनका सुझाव है, सभी निर्वाचित पदों के लिए खुला पूर्व चुनाव यानि उम्मीदवारी के लिए भी चुनाव. आइडिया यह है कि संभावित उम्मीदवारों को भी चुनाव से पहले जनता सीधे चुनेगी. इसमें पार्टी के तंत्र की कोई भूमिका नहीं होगी.
तो क्या यह प्रक्रिया मतदाताओं की इच्छा और सामाजिक हकीकत के करीब होगी? पात्सेल्ट का मानना है, "फिर ऐसे लोग आएंगे जिन्होंने दुनिया को अपनी राजनीतिक पार्टी के अंदरूनी तंत्र के मुकाबले ज्यादा देखा है." मसलन गैर सरकारी अधिकारियों और जमिले यूसुफ जैसी राजनीतिज्ञों को राजनीति में आसानी से प्रवेश मिल सकेगा. फिर वे सामान्य सांसद होंगे, कम से कम आंकड़ों के हिसाब से.
रिपोर्ट: वेरा कैर्न/एमजे
संपादन: निखिल रंजन