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कानून और न्याय

बढ़ सकती है फिल्मों में सेंसरशिप

३० जून २०२१

केंद्र सरकार पहले से अनुमति प्राप्त फिल्मों को भी सेंसर करने का प्रावधान लाने की योजना बना रही है. फिल्म उद्योग इसका विरोध कर रहा है. ऐसी चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं कि इससे अभिव्यक्ति की आजादी का और नुकसान होगा.

तस्वीर: MICHAEL FIELD/AFP/Getty Images

केंद्र सरकार ने मौजूदा चलचित्र अधिनियम, 1952 में कुछ बदलाव प्रस्तावित किए हैं जिनमें से एक महत्वपूर्ण बदलाव का विरोध किया जा रहा है. संशोधन अधिनियम के मसौदे में सरकार को उन फिल्मों पर भी फिर से विचार करने की शक्ति देने का प्रस्ताव दिया गया है जिन्हें केंद्रीय सेंसर बोर्ड पास कर चुका है. यह प्रस्ताव काफी समस्यात्मक है क्योंकि भारत में फिल्मों का अवलोकन कर उन्हें दिखाए जाने की अनुमति देने की शक्ति सिर्फ सेंसर बोर्ड को प्राप्त है. फिल्म उद्योग को डर है कि बोर्ड से पास की हुई फिल्मों को सेंसर करने की शक्ति अगर सरकार को मिल जाएगी तो इससे फिल्मों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला होगा.

सेंसर बोर्ड सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत एक वैधानिक संस्था है. इसके अध्यक्ष और सदस्यों को वैसे भी केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है. ऐसे में स्पष्ट है कि बोर्ड द्वारा पास की गई फिल्मों पर फिर से विचार करने का आदेश देने की शक्ति पाने की कोशिश कर सरकार फिल्म सर्टिफिकेशन प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण बढ़ाना चाह रही है. दरअसल, मूल कानून के मुताबिक यह शक्ति पहले से सरकार के पास थी, लेकिन 2020 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक मामले पर सुनवाई करते हुए आदेश दिया था कि केंद्र इस शक्ति का इस्तेमाल उन फिल्मों पर नहीं कर सकता जिन्हें बोर्ड पास कर प्रमाण पत्र दे चुका है.

सरकारी अंकुश

नए संशोधन से सरकार चाह रही है कि उसे ऐसी शक्ति मिल जाए कि जरूरत पड़ने पर वो सेंसर बोर्ड के फैसलों को भी पलट सके. फिल्म उद्योग के कई सदस्य इस प्रस्ताव से नाराज हैं और इसके खिलाफ सरकार को संदेश भेज रहे हैं. कुछ ही दिन पहले अभिनेताओं और फिल्म निर्देशकों के एक समूह ने इस संशोधन का विरोध करते हुए मंत्रालय ने नाम एक खुला पत्र लिखा. अनुराग कश्यप, हंसल मेहता, नंदिता दास, शबाना आजमी, फरहान अख्तर, जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी जैसी हस्तियों के अलावा करीब 1400 लोगों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं.

फिल्म पद्मावती के खिलाफ प्रदर्शनों के चलते निर्माताओं को फिल्म का नाम बदलना पड़ा थातस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

पत्र में लिखा गया है कि इस कदम से "अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक असहमति खतरे में पड़ जाएंगी." अभिनेता-निर्देशक से राजनेता बन चुके कमल हसन ने भी इस संशोधन के प्रस्ताव का विरोध किया और दूसरों से भी इसका विरोध करने की अपील की. उन्होंने ट्विट्टर पर लिखा कि सिनेमा, मीडिया और साहित्य की दुनिया से जुड़े लोगों को भारत के मशहूर "तीन बंदर" बनाने की कोशिश की जा रही है.

इस संशोधन का प्रस्ताव लाने से पहले सरकार के एक और कदम की आलोचना हो रही थी. अप्रैल में केंद्र सरकार ने फिल्म सर्टिफिकेशन एपेलेट ट्रिब्यूनल को भंग कर दिया था. ट्रिब्यूनल का उद्देश्य था उन लोगों को अपील का एक मंच देना जो प्रमाणन को लेकर सेंसर बोर्ड के फैसले से संतुष्ट ना हों. खुद सेंसर बोर्ड पर भी कई बार अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने के आरोप लगे हैं. ऐसे में ट्रिब्यूनल बोर्ड के फैसले से असंतुष्ट लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच था, लेकिन अब उसे भंग कर दिए जाने की वजह से वो विकल्प भी छीन लिया गया है.

फिल्मों पर राजनीति

फिल्म विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में फिल्मों को देखना-दिखाना वैसे भी अक्सर राजनीति से प्रेरित रहता है. ऐसे में अगर सरकार के पास सेंसर बोर्ड के फैसले भी पलटने की ताकत हो, तो फिल्मों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाएगा. कोई भी राजनैतिक समूह सरकार पर प्रभाव डाल कर फिल्मों को या तो बैन करवा देगा या उनमें बदलाव करवा देगा. भारत में दशकों से कई किताबों और फिल्मों का विरोध होता आया है. कभी फिल्म के नाम पर, कभी किसी फिल्म के किसी दृश्य पर तो कभी किसी गाने के बोलों पर अक्सर कोई ना कोई समूह नाराज हो जाता है और उसके खिलाफ सड़कों पर उतर आता है.

जैसे 2018 में कई राजपूत समूहों ने 'पद्मावती' फिल्म के खिलाफ विरोध किया था. उनके आक्रामक प्रदर्शनों को देखते हुए कुछ राज्य सरकारों ने फिल्म पर बैन भी लगा दिया था. अंत में फिल्म को सिनेमाघरों में जारी करने के लिए फिल्म के निर्माताओं को प्रदर्शनकारियों की मांगें मान कर फिल्म का नाम बदल कर 'पद्मावत' रखना पड़ा.

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