केंद्र सरकार पहले से अनुमति प्राप्त फिल्मों को भी सेंसर करने का प्रावधान लाने की योजना बना रही है. फिल्म उद्योग इसका विरोध कर रहा है. ऐसी चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं कि इससे अभिव्यक्ति की आजादी का और नुकसान होगा.
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केंद्र सरकार ने मौजूदा चलचित्र अधिनियम, 1952 में कुछ बदलाव प्रस्तावित किए हैं जिनमें से एक महत्वपूर्ण बदलाव का विरोध किया जा रहा है. संशोधन अधिनियम के मसौदे में सरकार को उन फिल्मों पर भी फिर से विचार करने की शक्ति देने का प्रस्ताव दिया गया है जिन्हें केंद्रीय सेंसर बोर्ड पास कर चुका है. यह प्रस्ताव काफी समस्यात्मक है क्योंकि भारत में फिल्मों का अवलोकन कर उन्हें दिखाए जाने की अनुमति देने की शक्ति सिर्फ सेंसर बोर्ड को प्राप्त है. फिल्म उद्योग को डर है कि बोर्ड से पास की हुई फिल्मों को सेंसर करने की शक्ति अगर सरकार को मिल जाएगी तो इससे फिल्मों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला होगा.
सेंसर बोर्ड सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत एक वैधानिक संस्था है. इसके अध्यक्ष और सदस्यों को वैसे भी केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है. ऐसे में स्पष्ट है कि बोर्ड द्वारा पास की गई फिल्मों पर फिर से विचार करने का आदेश देने की शक्ति पाने की कोशिश कर सरकार फिल्म सर्टिफिकेशन प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण बढ़ाना चाह रही है. दरअसल, मूल कानून के मुताबिक यह शक्ति पहले से सरकार के पास थी, लेकिन 2020 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक मामले पर सुनवाई करते हुए आदेश दिया था कि केंद्र इस शक्ति का इस्तेमाल उन फिल्मों पर नहीं कर सकता जिन्हें बोर्ड पास कर प्रमाण पत्र दे चुका है.
सरकारी अंकुश
नए संशोधन से सरकार चाह रही है कि उसे ऐसी शक्ति मिल जाए कि जरूरत पड़ने पर वो सेंसर बोर्ड के फैसलों को भी पलट सके. फिल्म उद्योग के कई सदस्य इस प्रस्ताव से नाराज हैं और इसके खिलाफ सरकार को संदेश भेज रहे हैं. कुछ ही दिन पहले अभिनेताओं और फिल्म निर्देशकों के एक समूह ने इस संशोधन का विरोध करते हुए मंत्रालय ने नाम एक खुला पत्र लिखा. अनुराग कश्यप, हंसल मेहता, नंदिता दास, शबाना आजमी, फरहान अख्तर, जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी जैसी हस्तियों के अलावा करीब 1400 लोगों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं.
पत्र में लिखा गया है कि इस कदम से "अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक असहमति खतरे में पड़ जाएंगी." अभिनेता-निर्देशक से राजनेता बन चुके कमल हसन ने भी इस संशोधन के प्रस्ताव का विरोध किया और दूसरों से भी इसका विरोध करने की अपील की. उन्होंने ट्विट्टर पर लिखा कि सिनेमा, मीडिया और साहित्य की दुनिया से जुड़े लोगों को भारत के मशहूर "तीन बंदर" बनाने की कोशिश की जा रही है.
इस संशोधन का प्रस्ताव लाने से पहले सरकार के एक और कदम की आलोचना हो रही थी. अप्रैल में केंद्र सरकार ने फिल्म सर्टिफिकेशन एपेलेट ट्रिब्यूनल को भंग कर दिया था. ट्रिब्यूनल का उद्देश्य था उन लोगों को अपील का एक मंच देना जो प्रमाणन को लेकर सेंसर बोर्ड के फैसले से संतुष्ट ना हों. खुद सेंसर बोर्ड पर भी कई बार अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने के आरोप लगे हैं. ऐसे में ट्रिब्यूनल बोर्ड के फैसले से असंतुष्ट लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच था, लेकिन अब उसे भंग कर दिए जाने की वजह से वो विकल्प भी छीन लिया गया है.
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फिल्मों पर राजनीति
फिल्म विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में फिल्मों को देखना-दिखाना वैसे भी अक्सर राजनीति से प्रेरित रहता है. ऐसे में अगर सरकार के पास सेंसर बोर्ड के फैसले भी पलटने की ताकत हो, तो फिल्मों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाएगा. कोई भी राजनैतिक समूह सरकार पर प्रभाव डाल कर फिल्मों को या तो बैन करवा देगा या उनमें बदलाव करवा देगा. भारत में दशकों से कई किताबों और फिल्मों का विरोध होता आया है. कभी फिल्म के नाम पर, कभी किसी फिल्म के किसी दृश्य पर तो कभी किसी गाने के बोलों पर अक्सर कोई ना कोई समूह नाराज हो जाता है और उसके खिलाफ सड़कों पर उतर आता है.
जैसे 2018 में कई राजपूत समूहों ने 'पद्मावती' फिल्म के खिलाफ विरोध किया था. उनके आक्रामक प्रदर्शनों को देखते हुए कुछ राज्य सरकारों ने फिल्म पर बैन भी लगा दिया था. अंत में फिल्म को सिनेमाघरों में जारी करने के लिए फिल्म के निर्माताओं को प्रदर्शनकारियों की मांगें मान कर फिल्म का नाम बदल कर 'पद्मावत' रखना पड़ा.
मलेशिया में प्रतिबंधित फिल्मों में पद्मावत भी
अगर आप अपने सेंसर बोर्ड से परेशान हैं तो मलेशिया के सेंसर बोर्ड की बानगी देखिए. उसने बॉलीवुड फिल्म पद्मावत पर यह कहकर रोक लगा दी कि वह इस्लाम को बुरी रोशनी में दिखाती है. सेंसर की भेंट चढ़ने वाली ये अकेली फिल्म नहीं है.
अपने सख्त रुख को उचित ठहराते हुए मलेशिया के राष्ट्रीय सेंसर बोर्ड ने कहा है कि फिल्म सुल्तान की भूमिका के जरिए इस्लाम की बुरी छवि पेश करती है. गृह मंत्रालय ने कहा है, "उसे ऐसे सुल्तान के रूप में पेश किया गया है जो मगरूर, बेरहम, अमानवीय, कुटिल, बेईमान और इस्लामी शिक्षा को पूरी तरह न मानने वाला है."
लोकप्रिय हैं जहां 3.2 करोड़ आबादी वाले देश में 7 फीसदी भारतीय मूल के लोग हैं. सरकार के इस फैसले के बाद बहुत से लोग पद्मावत नहीं देख पाएंगे, लेकिन सेंसर के हत्थे चढ़ने वाली पद्मावत अकेली या पहली फिल्म नहीं है. अधिकारी अक्सर धार्मिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के नाम पर विदेशी फिल्मों पर कैंची चलाते रहे है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Rapid Eye Movies
शिंडलर्स लिस्ट (1993)
मलेशिया के सेंसर बोर्ड की कैंची के शिकार या प्रतिबंधित फिल्मों में शिंडलर्स लिस्ट भी है जिसे एक खास रेस के विशेषाधिकार और खूबियां दिखाने के कारण सजा दी गई. बाद में प्रतिबंध हटा लिया गया लेकिन हिंसा और नग्नता दिखाने वाले सीनों को काटने के बाद उसका डीवीडी संस्करण रिलीज किया गया. डायरेक्टर स्टीवन स्पीलबर्ग को ये कतई रास नहीं आया.
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बेब (1995)
शुरू में फिल्म पर इसलिए रोक लगाई गई कि उसका सूअर जैसा दिखने वाला हीरो मुस्लिम बहुमत वाले मलेशिया के लोगों की संवेदनाओं को आदत करता था जिनके लिए सूअर वर्जित हैं. इतना ही नहीं बेब शब्द मलेशिया में सूअर के लिए प्रयुक्त शब्द बाबी के बहुत ही करीब है. बाद में इसे भी डीवीडी संस्करण के लिए मंजूरी मिली.
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डेयरडेविल (2003)
सरकारी सेंसर बोर्ड के अधिकारियों को इस फिल्म को अत्यंत हिंसक बताने के अलावा यह कहते हुए भी बताया गया कि यह फिल्म युवा लोगों को दानव जैसे नाम वाले किसी वीर पूजा के लिए प्रोत्साहित कर सकती है.
तस्वीर: Imago
जूलैंडर (2001)
इस फिल्म में मलेशिया को गरीब और शोषण की जगह बताए जाने के कारण निश्चित तौर पर सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट न पाने का हकदार माना जा रहा था. बोर्ड को फिल्म का प्लॉट भी पसंद नहीं आया जिसमें बेन स्टिलर के चरित्र जूलैंडर को मलेशिया के प्रधानमंत्री की हत्या के लिए मनाया जाता दिखाया गया है.
तस्वीर: picture-alliance/United Archiv
ब्रूस ऑलमाइटी (2003)
फिल्म में एक इंसान को भगवान के रूप में दिखाए जाने के भारी विरोध के बाद उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. बाद में इसे डीवीडी संस्करण के लिए पास कर दिया गया. फिल्म के अगले भाग इवान ऑलमाइटी भी विवादों में रही क्योंकि उसमें बाइबिल की कहानी के बाढ़ और प्रोफेट नोआह पर कटाक्ष किए गए थे.
तस्वीर: picture-alliance/United Archives
पैशन ऑफ द क्राइस्ट (2004)
इस फिल्म पर पहले धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के कारण प्रतिबंध लगाया गया. बाद में यह भी कहा गया कि फिल्म में उन पैगम्बरों को भी पर्दे पर दिखाया गया है जिनका नाम कुरान में है. बाद में डीवीडी रिलीज की अनुमति दी गई लेकिन सिर्फ ईसाई दर्शकों के लिए और प्राइवेट व्यूइंग के लिए.
तस्वीर: AP
द वोल्फ ऑफ वाल स्ट्रीट (2013)
सेक्स, ड्रग और 504 बार अभद्र शब्द का इस्तेमाल वाले इस फिल्म पर प्रतिबंध से ज्यादा हैरानी नहीं होती. इस फिल्म के लिए रेड ग्रेनाइट पिक्चर्स ने पैसा दिया था, जिसके संस्थापकों में मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक के सौतेले बेटे रिजा अजीज भी थे. इस कंपनी के खिलाफ अब 1एमडीबी कांड के सिलसिले में जांच चल रही है.
तस्वीर: picture alliance / ZUMA Press
नोआह (2014)
पैगम्बर के चरित्र को पर्दे पर पेश करना हर किसी के लिए गैर इस्लामी है. यदि पैगम्बर की तस्वीर बनाना गलत है तो फिर फिल्म इससे अलग कैसे है? मलेशिया के सेंसर बोर्ड के प्रमुख ने कहा बताते हैं कि यह इस्लाम में प्रतिबंधित है. 1998 में प्रिंस ऑफ इजिप्ट पर रोक लगाने के लिए भी ऐसी ही दलीलें दी गई थीं.
तस्वीर: Niko Tavernise/MMXIII Paramount Pictures Corporation and Regency Entertainment
द डेनिश गर्ल (2015)
मलेशिया में इस फिल्म पर रोक लगाने का कोई कारण नहीं बताया गया, जिसमें लिंग परिवर्तन दिखाया गया है, लेकिन फैसला कतर, ओमान, बहरीन, जॉर्डन, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे दूसरे मुस्लिम बहुल देशों जैसा ही था. फिल्म की कहानी में कामुकता का बड़ा विरोध हुआ.
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