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नए शीत युद्ध की आहट: क्यों टला ईयू-चीन समिट

५ जून २०२०

जिस शिखर सम्मेलन का यूरोपीय संघ और चीन को बेसब्री से इंतजार था, वो टल गया है. कोविड-19 को इसकी वजह बताया जा रहा है. लेकिन क्या महामारी ही इसकी असली वजह है?

मैर्केल और शी जिनपिंग
जर्मनी और चीन के बीच हाल के सालों में सहयोग बढ़ा है लेकिन कुछ दरारें साफ दिखती हैंतस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

जर्मनी को यूरोपीय संघ की अध्यक्षता मिलने के साथ ही चीन के राष्ट्रपति के साथ यूरोपीय संघ के सभी 27 राष्ट्र प्रमुखों की बैठक होनी थी. यह पहला मौका होता जब यूरोपीय संघ और चीन के बीच इस तरह का सम्मेलन होता. सितंबर में होने वाले इस सम्मेलन की मेजबानी खुद जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल को करनी थी. इसे भूराजनीतिक घटनाक्रम की हाइलाइट कहा जा रहा था.

लक्ष्य था, नए दशक के लिए ईयू-चीन संबंधों को नया आकार देना. एजेंडे में चीन में निवेश करने वाली यूरोपीय कंपनियों के लिए बेहतर समझौते और जलवायु परिवर्तन पर करीबी सहयोग भी शामिल था.

लेकिन अब सम्मेलन टल चुका है.

गुरुवार देर शाम मैर्केल के प्रवक्ता ने एक छोटे से बयान में घोषणा करते हुए कहा, सभी पक्ष इस बात पर सहमत है कि "महामारी से पैदा हुए हालात को देखते हुए मीटिंग तयशुदा तारीखों में नहीं हो सकती है, लेकिन इसे रिशेड्यूल करना चाहिए.” रिशेड्यूल कब, इसकी कोई नई तारीख नहीं बताई गई.

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इस घोषणा के बाद से ही अफवाहें उड़ रही हैं कि ऐसा बहुत कुछ है जो नजर नहीं आ रहा है.

इस वक्त यूरोपीय संघ के ज्यादातर देश धीरे धीरे कोविड-19 संबंधी पाबंदियों में ढील दे रहे हैं. मौतें और संक्रमण के मामले कम हो रहे हैं और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का दबाव बहुत ज्यादा है. यूरोपीय संघ के कई हिस्सों को तो गर्मियों में सैलानियों के लिए खोला भी जा रहा है. ऐसे में तीन महीने पहले, वो भी जर्मनी जैसे देश में इस शिखर सम्मेलन को सुरक्षित ढंग के कराने की तैयारी आराम से हो सकती थी. उस देश में जो तुलनात्मक रूप से महामारी आसानी से झेल गया.

लेकिन इस मौके पर चीन और पश्चिम के बीच भूराजनीतिक तनाव परवान चढ़ रहा है.

एक हफ्ते पहले ही चीन ने पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश हांगकांग पर अपना नियंत्रण कड़ा कर दिया. चीन के नए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को हांगकांग की आजादी को खत्म करने वाला बताया जा रहा है. यूरोपीय संघ के उच्च राजयनिक इसे "गंभीर चिंता” कहते हैं. राजयनिक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि यूरोप को बीजिंग के साथ ज्यादा ‘दृढ़ता' से पेश आना चाहिए. ठोस कदम उठाने की मांग की जा रही है. चीन मामलों में यूरोपीय संसदीय प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख राइनहार्ड ब्यूटीकोफर ने डीडब्ल्यू से कहा, "ब्रिटेन की तरह हमें भी अपनी सुरक्षा हांगकांग के उन लोकतंत्र समर्थकों को देनी चाहिए, जिन्हें इसकी जरूरत है.”

चीन के कदमों ने बीजिंग और वॉशिंगटन के रिश्तों में भी संकट को बढ़ा दिया है. कोरोना वायरस के फैलाव को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और चीनी राजनयिकों के बीच तीखे आरोप प्रत्यारोपों में भी यह दिखाई पड़ता है. कुछ पर्यावेक्षकों के मुताबिक दोनों पक्ष एक नए शीत युद्ध के मुहाने पर हैं.

लेट लतीफी की रणनीति

इस पूरे घटनाक्रम के बीच ईयू और चीन का शिखर सम्मेलन मुश्किल लग रहा था. इसके बावजूद यूरोपीय संघ के प्रमुख दूत जर्मनी ने यह कहते हुए इसे टाल दिया कि ये "सिर्फ कोविड” के कारण हुआ.

राइनहार्ड ब्यूटीकोफर कहते हैं कि यह पूरी कहानी नहीं है, "निवेश और जलवायु जैसे मुख्य मुद्दों पर सितंबर तक कोई प्रगति होने की उम्मीद नहीं है. ठोस कारणों के बिना होने वाली शिखर वार्ता आसानी से शर्मिंदगी में बदल सकती है.”

कहा जा रहा है कि दोनों पक्षों के बीच वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जारी है और प्रगति की कोशिशें की जा रही हैं.

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ट्रंप-बाइडेन फैक्टर

लेट लतीफी के अपने फायदे भी हैं. खासकर तब जब, 2020 के कैलेंडर में एक बड़ी राजनीतिक तारीख छुपी हो. और वह तारीख है, नवंबर में अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव. कई यूरोपीय नेता मन ही मन जो बाइडेन की जीत की दुआ कर रहे हैं. बाइडेन ट्रंप के मुकाबले ज्यादा अटलांटिक के पार के रिश्तों की अहमियत समझने वाले नेता हैं.

ट्रंप तो खुलकर यूरोपीय संघ की आलोचना कर चुके हैं. अमेरिकी चुनाव से कुछ हफ्ते पहले ईयू-चीन शिखर सम्मलेन करके ट्रंप को एक राजनीतिक मुद्दा मिल जाएगा. वह यूरोप पर धुर प्रतिद्वंद्वी चीन को पुचकारने का आरोप लगा सकते हैं. मैर्केल जुलाई में वॉशिंगटन में होने वाले जी-7 सम्मेलन का न्योता ठुकरा चुकी हैं. न्योता खुद ट्रंप ने भेजा था.

अमेरिका में जिसकी भी जीत होगी उसका बड़ा असर यूरोपीय संघ और बीजिंग के संबंधों पर जरूर पड़ेगा. जर्मन मार्शल फंड के नोआह बार्किन कहते हैं, "अगर ट्रंप दोबारा जीतते हैं, तो मुझे लगता है कि यूरोप में ऐसी इच्छाएं प्रबल होंगी कि खुद का बचाव किया जाए और चीन को करीब रखा जाए.”

क्या यूरोप एकमत होगा?

व्हाइट हाउस में कोई भी आए, यूरोपीय संघ को चीन के साथ समझौतों में चुनौतिया झेलनी होंगी. बीजिंग खुद भी यूरोप में अपनी जड़ें गहरी कर रहा है.

चीन इटली और दूसरे छोटे यूरोपीय देशों को लुभाने में लगा हैतस्वीर: Reuters/T. Fabi

शी जिनपिंग सात साल से चीन में सत्ता में हैं. चीन की लालसा अब वैश्विक हो चुकी है, जिसका असर यूरोप पर लगातार बढ़ता जा रहा है. यूरोपीय संघ का तीसरा बड़ा सदस्य देश इटली, चीन के विशाल "बेल्ट एंड रोड”  प्रोजेक्ट में दस्तखत कर चुका है. इटली को लगता है कि उसकी खस्ताहाल अर्थव्यवस्था में इससे अरबों डॉलर का निवेश होगा. दूसरे छोटे देश भी चीन के साथ फायदे के चक्कर में समझौते कर रहे हैं. फिर भले ही वह बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट हो या मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ 17+1 का ग्रुप.

फ्रांसीसी रक्षा मंत्रालय की दिग्गज हस्तियों में शुमार रह चुकीं नादे रोलां कहती हैं, "इस तरीके से चीन यह सुनिश्चित कर रहा है कि यूरोप विभाजित हो जाए.” रोलां अब अमेरिका स्थित नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्चर में पॉलिटिकल एंड सिक्योरिटी अफेयर्स की सीनियर फेलो हैं.

वह कहती हैं, "चीन मेज पर जो आर्थिक मौके परोसता है वे बड़े अहम हो सकते हैं. इस तरह उन देशों के फैसलों में चीन खूब लाभ उठा पाने की स्थिति में आ जाता है.”

इस तरह चीन के साथ अगर यूरोपीय संघ दृढ़ता से पेश करने की तैयारी भी करे तो ये बाधाएं आ जाती हैं. सिर्फ नकदी की कमी झेल रहे देश ही रोड़ा नहीं बनते. ग्रीन पार्टी के नेता ब्यूटीकोफर कहते हैं, "बर्लिन भले ही स्वीकार न करे, लेकिन जर्मनी बहुत ही समस्या पैदा करने वाला एक साझेदार है. हमारे बाकी पड़ोसियों के मुकाबले जर्मनी निर्यात के लिए चीन पर कहीं ज्यादा निर्भर है.”

पुचकारने से कुछ नहीं मिलेगा

ये वो चुनौतियां हैं, जिनका सामना यूरोपीय संघ कर रहा है. वह मुश्किल अमेरिका और अतिक्रमणवादी चीन के बीच संभावित नए शीत युद्ध में फंस गया है. इसके साथ ही यूरोपीय संघ अपने भीतरी विभाजन से जूझ रहा है. वो भी एक वैश्विक महामारी के दौर में.

इन परिस्थितियों के बीच सम्मेलन को टालना बिल्कुन नहीं चौंकाता है.

नोआह कहते हैं, "हमें इनमें से कुछ हालातों के पार जाना होगा. मुझे लगता है कि अगले साल यूरोपीय संघ को साथ मिलकर बैठना होगा और गंभीरता से सोचना होगा कि चीन के प्रति उसकी रणनीति कैसी होगी.”

राइनहार्ड ब्यूटीकोफर कहते हैं कि जब समय आएगा तो जर्मनी को जिम्मेदारी लेते हुए अपने आर्थिक हितों के पार जाना होगा, "वे हमारे साझा मूल्यों की कीमत पर नहीं आ सकते. पुचकारने से कुछ नहीं मिलता.”

रिपोर्ट: रिचर्ड वॉकर/ओएसजे

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