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नक्शों के जरिए प्रोपेगंडा फैला रहे हैं एशिया के देश

५ मार्च २०२०

एक ही जगह के कितने नक्शे हो सकते हैं? कश्मीर का नक्शा भारत में अलग दिखता है, पाकिस्तान में अलग और चीन में और भी अलग. लेकिन क्यों? क्या नक्शों के जरिए सरकारें अपने नागरिकों को बहका रही हैं?

USA alte Seidenstraße im Getty Center, LA
तस्वीर: Getty Images/AFP/F. J. Brown

दुनिया में कहीं भी जब बच्चों को भूगोल शास्त्र पढ़ाया जाता है तो नक्शे बना कर वे शहरों, राज्यों, नदियों और सीमाओं के बारे में सीखते हैं. भारत में स्कूली बच्चे गंगा को नीले रंग से नक्शे पर दिखाते हैं, राजधानी दिल्ली अकसर काले रंग के मोटे से बिंदु से दर्शाई जाती है.  जब बात कश्मीर की आती है तो पूरा का पूरा कश्मीर भारत में ही दिखाया जाता है. वह हिस्सा भी जिस पर पाकिस्तान अपना हक जताता है और वह भी जिस पर चीन दावा करता है.

भारत में ज्यादातर लोगों को वयस्क होने के बाद ही नक्शों पर बहस के बारे में पता चलता है जब वे विदेशी प्रकाशन वाली किताबें पढ़ते हैं या फिर दूसरे देशों में छपे भारत के नक्शे देखते हैं. भारत में ऐसा नक्शा प्रकाशित करने पर मनाही है जो सरकार के आधिकारिक ब्यौरे से अलग हो. ऐसा करने पर आपराधिक मुकदमा चल सकता है और यह एक दंडनीय अपराध है.

पाकिस्तान में भी कश्मीर का मुद्दा उतना ही नाजुक है. आधिकारिक नक्शों में जम्मू और कश्मीर को पाकिस्तान में जुड़ा हुआ दिखाया जाता है. हालांकि भारतीय और पाकिस्तानी नक्शों में इतना फर्क जरूर है कि पाकिस्तानी नक्शों में सीमावर्ती इलाकों पर "विवादित क्षेत्र" और "अपरिभाषित सीमा" छपा दिखता है.

भारत और पाकिस्तान अकेले ऐसे देश नहीं है जो प्रोपेगंडा के लिए नक्शों का इस्तेमाल करते हैं. एशिया में ऐसे कई देश हैं जिनके नक्शे सटीक नहीं है. इसे समझने के लिए डॉयचे वेले ने टिम ट्रेनर से बात की जो इंटरनेशनल कार्टोग्राफिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं और संयुक्त राष्ट्र की कमिटी ऑफ एक्सपर्ट्स ऑन ग्लोबल जियोस्पेशियल इंफॉर्मेशन मैनेजमेंट के सदस्य भी हैं.

ट्रेनर का कहना है कि नक्शे दुनिया को ले कर लोगों की सोच को प्रभावित कर सकते हैं, "नक्शे बहुत असरदार होते हैं और जब कोई नक्शे को देखता है तो वह यही मानता है कि उसमें दी गई जानकारी सही होगी." जर्मन लेखिका ऊटे श्नाइडर ने अपनी किताब "द पावर ऑफ मैप्स" में लिखा है कि कोई भी नक्शा निष्पक्ष नहीं होता क्योंकि "नक्शे सत्ता का जरिया" होते हैं. 

नक्शे देशों के बीच विवाद का कारण भी बन सकते हैं. मिसाल के तौर पर दक्षिणपूर्वी एशिया के कई देशों ने 2019 में आई फिल्म एबोमिनेबल के एक दृश्य की आलोचना की जिसमें दक्षिणी चीन सागर को चीन के नजरिए से पेश किया गया था. उस नक्शे में "नाइन डैश लाइन" जिसमें ताइवान और पूरा दक्षिणी चीन सागर शामिल है, उसे चीन के आधिकारिक क्षेत्र के रूप में दिखाया गया था. चीन इस पर अपनी ऐतिहासिक संप्रभुता का दावा करता है, जबकि ताइवान और पड़ोसी देश चीन के दावों को खारिज करते हैं. 2016 में एक अंतरराष्ट्रीय अदालत ने फैसला सुनाया था कि अंतरराष्ट्रीय समुद्रतटीय कानून के तहत चीन का दक्षिणी चीन सागर पर अधिकार गैरकानूनी है.

दुनिया भर में ऐसे कई नक्शे इस्तेमाल हो रहे हैं जो गलत हैं, जिनमें एकतरफा जानकारी है या फिर जिनमें जानबूझ कर गलत या अधूरी जानकारी डाली गई है. उत्तरी और दक्षिणी कोरिया दोनों ही पूरे कोरियाई प्रायद्वीप पर अपना पूरा अधिकार बताते हैं. सालों तक थाईलैंड और कंबोडिया के बीच प्रेआह विहेआर टेंपल के आसपास के सीमावर्ती इलाके को ले कर विवाद रहा. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान कुरिल द्वीप का एक हिस्सा सोवियत संघ के हाथों हार गया लेकिन आज भी जापान उसे नक्शे में अपने ही क्षेत्र के तौर पर दिखाता है. सही तब होता अगर कुरिल द्वीप को या तो मौजूदा रूस का हिस्सा दिखाया जाता या फिर उसे विवादित क्षेत्र कहा जाता. लेकिन इसे "जापान का सबसे उत्तरी कोना" कहना भ्रामक है.

टिम ट्रेनर का कहना है कि इससे बचने के लिए जरूरी है कि नक्शा बनाते हुए पूरा ध्यान दिया जाए और यह काम जिम्मेदारी से किया जाए. सबसे पहली बात तो लोगों को यह समझनी होगी कि कार्टोग्राफर यानी नक्शा बनाने वाला व्यक्ति सीमाएं तय नहीं करता है. यह काम सरकारों का है जो आपस में समझौते कर सीमाएं निर्धारित करती हैं. ट्रेनर कहते हैं, "पूरी दुनिया की सीमाओं के लिए कोई एक प्राधिकरण नहीं है." उनका कहना है कि कोई भी नक्शा देखते वक्त लोगों को इस बारे में भी सोचना चाहिए कि यह नक्शा किसने बनाया और उसका मकसद क्या था.

एक अच्छा नक्शा उसे माना जाएगा जो सीमाओं के स्रोत की जानकारी भी देगा और उससे जुड़ी अहम तारीखें भी बताएगा. अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे के नक्शों को इसीलिए विश्वसनीय माना जाता है. उनमें नीचे यह सारी जानकारी दी जाती है कि नक्शा कहां छपा है और नक्शे में किन जगहों, रास्तों या सीमाओं के नाम इस्तेमाल किए गए हैं.

तस्वीर: Geospatial Information Authority of Japan

संयुक्त राष्ट्र नक्शों की संवेदनशीलता को समझता है. नक्शों के लिए जिम्मेदार संयुक्त राष्ट्र का विभाग "द यूएन जियोस्पेशियल इंफर्मेशन सेक्शन" नक्शों को एक डिस्क्लेमर के साथ छापता है. इस पर लिखा होता है, "यहां प्रकाशित सीमाएं और नाम यह नहीं दिखाते कि संयुक्त राष्ट्र इन्हें स्वीकारता है या फिर आधिकारिक रूप से इनका समर्थन करता है."

नक्शों के मामले में बीते कुछ सालों से जिस एक टूल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हुआ है, वह है गूगल मैप्स. ना केवल इसका निजी स्तर पर इस्तेमाल होता है, बल्कि रिसर्च के लिए भी. लेकिन ऑनलाइन नक्शे भी तो राजनीति से प्रेरित होते हैं. 2014 में "द नाइट मोजिला ओपन न्यूज" प्रोजेक्ट ने साबित किया था कि गूगल यूजर की लोकेशन के अनुसार नक्शे को बदलता है. इसका मतलब यह हुआ कि भारत में रहने वाले यूजर की तुलना में चीन या पाकिस्तान वाले को दुनिया अलग दिखाई देगी.

तस्वीर: Public Domain

डॉयचे वेले ने जब गूगल से इस बारे में जानना चाहा तो कंपनी ने कहा कि वह अपने नक्शों में जहां तक मुमकिन हो सके विवादों को दिखाती है. डीडब्ल्यू को दिए अपने बयान में गूगल ने कहा, "अगर हमारे पास नक्शों का स्थानीय संस्करण होता है, तो हम सीमाओं और नामों को ले कर स्थानीय नियमों का पालन करते हैं. हम नक्शों के मानक तय नहीं करते, हम सिर्फ सच्चाई दिखाते हैं. हम ना ही सीमाएं बनाते हैं, ना उनमें कोई बदलाव करते हैं, बल्कि हम अपने डाटा प्रोवाइडर के साथ मिल कर सीमाओं की सबसे सटीक परिभाषा समझने की कोशिश करते हैं कि कोई भी सीमा कहां दिखनी चाहिए." लेकिन ये डाटा प्रोवाइडर आखिर हैं कौन और आखिरी निर्णय किसका होता है, गूगल ने इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया.

तस्वीर: Knight-Mozilla-MIT “The Open Internet” Hack Day/opennews.kzhu.io

जनवरी 2020 में पूर्व गूगल मैनेजर रॉस लायूनेस ने कहा था कि चीन में कंपनी के लिए स्थानीय नियमों का पालन करना अनिवार्य था. एक ब्लॉगिंग साइट पर उन्होंने लिखा, "चीन में सरकार ना केवल कंपनी के यूजर डाटा और इंफ्रास्ट्रक्चर का पूरा एक्सेस चाहती है, बल्कि वह यह भी चाहती है कि कंपनियां सरकार का पूरा साथ दें ताकि चीन के यूजर वही देख सकें जो सरकार चाहती है."

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