उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिले में नक्सलियों को मुख्यधारा से जोड़ने का जिम्मा अब ग्रीन ब्रिगेड की महिलाओं ने लिया हैं. ग्रीन ब्रिगेड, वाराणसी के छात्रों के संगठन होप वेलफेयर ट्रस्ट का अंग है.
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बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों ने सितंबर 2015 में ग्रीन ब्रिगेड बनाया था. बाद में इसके साथ जेएनयू जैसे अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र भी जुड़ गए. अपनी पॉकेट मनी से ये छात्र ग्रामीण इलाके में महिलाओ को साथ ले कर घरेलू हिंसा, नशाखोरी और अन्य सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए काम करते हैं. इन महिलाओं को ये छात्र ट्रेन करते हैं. वे एक खास हरे रंग की साड़ी पहनती हैं. आज पूरे वाराणसी और आसपास के क्षेत्र में ये महिलाएं ग्रीन ब्रिगेड के नाम से मशहूर हैं.
मिर्जापुर वाराणसी से लगा हुआ जिला हैं. ये नक्सल प्रभावित है और भारत सरकार के नोटिफाइड लाल गलियारे का हिस्सा हैं. यह नक्सलवादियों का एक गढ़ माना जाता हैं. पुलिस और प्रशासन के लिए गांव के अंदर नक्सलियों की टोह लेना टेढ़ी खीर साबित हो रहा हैं. ऐसे में, ग्रीन ब्रिगेड को यह जिम्मा सौंपा गया है. मिर्जापुर के दस नक्सल प्रभावित गांवों में ये ब्रिगेड काम करेगी. ग्रीन ब्रिगेड के लिए हर गाँव से कम से कम दस महिलाओं का चयन किया गया हैं. इस तरह लगभग डेढ़ सौ महिलाओं को ग्रीन ब्रिगेड का सदस्य बनाया गया हैं.
संस्था के सचिव दिव्यांशु उपाध्याय बताते हैं, "जब हम गाँव में गए तो हालात बहुत बुरे थे. गरीबी बहुत ज्यादा, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी. प्राथमिक स्कूल भी जैसे तैसे चल रहे हैं. पहले तो महिलाओं ने हम लोगों से बात ही नहीं की. फिर धीरे धीरे उन्हें विश्वास हुआ." दिव्यांशु के अनुसार नक्सल शब्द वहां इस्तेमाल भी नहीं कर सकते, वरना कोई बात नहीं करता.
दिव्यांशु कहते हैं कि इन गांवों में बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं और हर कोई किसी न किसी चीज के लिए परेशान हैं. महिलाओं को समझाया गया कि अगर वे संगठित हों, अपना हक मांगें और सबको मुख्यधारा में लाएं, तो उनकी बात सुनी जाएगी. इस मामले में मिर्जापुर के पुलिस अधीक्षक आशीष तिवारी ने भी सहयोग दिया.
ग्रीन ब्रिगेड को अब जिम्मेदारी दी गई है कि वह नक्सल प्रभावित लोगों से बात करे, उन्हें समझाए और वापस मुख्यधारा में लाए. आशीष तिवारी कहते हैं कि ग्रीन ब्रिगेड की महिलाओं का काम बहुत अच्छा रहा है. उनके मुताबिक, "अपने क्षेत्रों में इन्होंने जुआ, घरेलू हिंसा और नशाबंदी के खिलाफ बहुत सार्थक काम किया है. हमने सोचा कि यहां भी ग्रीन ब्रिगेड रहेगी. ये जब गांव वालों को जागरूक करेंगी, तो लोगों का भटकाव कम होगा. हम इन्हें पुलिस मित्र का कार्ड भी देंगे. ये हमें समय समय पर सटीक सूचना भी देते रहेंगी."
दिव्यांशु कहते हैं, "नक्सली भी गांव वालों के बीच के ही लोग होते हैं और अगर महिलाएं उन्हें समझाएंगी, हम ये दिखाएंगे कि विकास हो रहा हैं, बच्चे स्कूल जा रहे हैं, अस्पताल बन रहा है और रोजगार मिल रहा है, तो फिर कोई क्यों इस राह पर जाएगा." ग्रीन ब्रिगेड की सदस्य मुन्नी देवी, निर्मला पटेल, उषा और जग्वंती भी खुश हैं. सबका मानना है कि जब गांव खुशहाल होगा तो कोई समस्या नहीं होगी इसीलिए आपसी सहयोग करेंगे. सरकार ने भी ग्रीन ब्रिगेड की इस पहल को सराहा हैं.
यहां जेल की सलाखों के पीछे होती है सौंदर्य प्रतियोगिता
जेल में कैदियों को एक बेहतर इंसान बनाने की तमाम कोशिशें की जाती हैं. लेकिन ब्राजील में एक जेल ऐसी भी है जहां महिला कैदियों के लिए सौंदर्य प्रतियोगिता होती है. साथ ही विजेताओं को बतौर इनाम ब्यूटी गिफ्ट भी दिये जाते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/S. Izquierdo
सजती महिलाएं
तस्वीर में नजर आ रही यह महिला कैदी ब्राजील के शहर रियो डी जिनेरियो की जेल में होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिता के लिए तैयार हो रही है. महिला कैदी रैंप पर जलवे बिखेरने के लिए बाहर से आये इन वॉलिंटयर्स की मदद लेती हैं जो इनकी स्टाइलिंग और मेकअप का खास ख्याल रखते हैं.
तस्वीर: Reuters/P. Olivares
यूनिफॉर्म नहीं गाउन
प्रतियोगिता के पहले ऐसा ही आलम रहता है. यहां कैदी कोई यूनीफॉर्म नहीं बल्कि खूबसूरत गाउन में नजर आते हैं. कुल 440 प्रतिभागियों में से 10 ही अंतिम राउंड में जा सकी हैं. खास बात यह है कि विजेता का चुनाव महज उसके आकर्षक व्यक्तित्व से नहीं बल्कि उसके अच्छे व्यवहार और आचरण से भी होगा.
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गर्व का अहसास
इस जेल में रह रही अधिकतर महिलाएं ड्रग्स से जुड़े अपराधों में सजा काट रही हैं. ब्राजील के न्याय मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, जेल में रह रही महिलाओं की संख्या साल 2000 से 2014 के बीच तकरीबन 600 फीसदी तक बढ़ी है. ऐसे में हर साल होने वाली यह प्रतियोगिता इन कैदियों को रोजमर्रा की जिदंगी से ब्रेक भी देती है.
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होते है कई राउंड
विजेता घोषित करने से पहले जूरी की निगाहें "गाउन" और "बीच फैशन" का लुक लेकर आयी इन प्रतिभागियों पर बनी रहती हैं. इनका रंग-रूप, चालढाल, व्यक्तित्व, आचरण सब पर जूरी विचार करती है. जीतने वाले को पंखा, दूसरे स्थान पर आने वाले को हेयर ड्रायर और तीसरे स्थान वाले को स्टाइलिंग आयरन दिया जाता है.
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समाज की ओर कदम
जेल के अधिकारियों का तर्क है कि इस तरह से रेड कार्पेट पर अपने अन्य साथियों के सामने चलना इनमें आत्मविश्वास तो भरता ही है, साथ ही इन्हें आत्मसम्मान का अहसास भी होता है. ये आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भाव जेल के बाहर जिंदगी गुजारते वक्त इनके काम आयेगा.
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माय सोल इज फ्री
इस साल की प्रतियोगिता जीती है तस्वीर में दाई ओर नजर आ रही मयाना अल्वीस ने. यहां भी विजेता की ताजपोशी पिछली प्रतियोगिता की विजेता ही करती है. पिछली विजेता मिशेल रेंगल ने कहा, "इस पल मुझे अहसास ही नहीं हो रहा है कि मैं जेल में हूं. माय सोल इज फ्री"
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सुखद अहसास
इस साल की विजेता मयाना अल्वीस अपने शरीर पर बने इन टैटू की तरफ खास इशारा करती हैं. उन्होंने कहा, "हां मैं आजादी को ही तवज्जो दूंगी लेकिन जाते वक्त मैं अपने साथ इस इनाम को लेना जाना चाहूंगी." अल्वीस इसलिए भी खुश है क्योंकि इस कार्यक्रम में उनकी मां भी मौजूद थी.
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हर कोई विजेता
जाहिर तौर पर पहला इनाम पाने वाले विजेता को एक अलग ही रुतबा महसूस होता है लेकिन इसका लाभ सभी प्रतिभागियों को होता है. प्रतियोगिता का सबसे अच्छा पल इनके लिए वहीं होता है जब इस पूरे इवेंट के बाद ये अपने परिवार से मिलते हैं. तस्वीर में नजर आ रही महिला कैदी का अपने बच्चों से यहां मिलना संभव हो पाया. (निकोलस मार्टिन)