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नरेगा के चलते मजदूरों को तरसते किसान

१४ जून २०११

हर चीज के दो पहलू होते हैं. ग्रामीण रोजगार योजना से जहां समाज के कमजोर वर्गों को फायदा हो रहा है, वहीं किसान शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें अब सस्ते में काम करने वाले खेत मजदूर नहीं मिल रहे हैं.

Ein Bauer bestellt sein Feld in der Nähe von Rajarhat im indischen Bundesstaat West Bengal, wo bald neue Siedlungen und Industrien entstehen sollen und die Bauern dort umgesiedelt werden sollen. Schlagworte: Rajarhat, West Bengal Bilder unseres Korrespondenten von DW-Hindi, Prabhakar Mani Tewari in Kolkata, der uns auch di Rechet an den Bildern überlässt.
तस्वीर: DW

कुरुक्षेत्र के गुरदयाल सिंह मलिक परेशान हैं कि उनके 60 एकड़ के फार्म के लिए काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे हैं. उनका कहना है कि साल में 100 दिन के रोजगार की गारंटी का सरकारी कार्यक्रम नरेगा इसके लिए जिम्मेदार है. वे कहते हैं, "हर साल काम की खोज में खेत मजदूर फार्म में आते थे. अब वे अपनी पसंद के मुताबिक काम करते हैं, कह देते हैं, सरदार टाइम नहीं है." चार पांच साल पहले एकड़ में धान की बुवाई में 500 से 800 रुपए तक का खर्च होता था. पिछले साल उन्हें फसल का दसवें हिस्से के साथ 3-4 हजार रुपए भी देने पड़े.

परेशानी सिर्फ बड़े किसानों और फार्म मालिकों की ही नहीं है. वेतन बढ़ने और खेती का खर्च बढ़ने से खाने पीने की चीजों की कीमत में हर साल 8 फीसदी से अधिक वृद्धि हो रही है. रिजर्व बैंक की ओर से मार्च 2010 के बाद से 9 बार ब्याज दर बढ़ाई गई है. इंडिकुस ऐनालिटिक्स के डायरेक्टर लवीश भंडारी का कहना है कि मुद्रास्फीति का मुख्य कारण ढांचे की समस्या है. रिजर्व बैंक इस पर काबू पाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन जल्द कोई असर नहीं पड़ने वाला है. दूसरी ओर, आर्थिक वृद्धि पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा.

तस्वीर: AP

कामगारों के अभाव की वजह से इस साल उपज घट सकती है. बिहार से लेकर तमिलनाडू तक हर कहीं उनका अभाव देखा जा रहा है. पहले खासकर बिहारी मजदूर पंजाब और हरयाणा में काम करने आते थे. अब उनका आना घट गया है. मलिक कहते हैं, "अगर बिहारी मजदूर न आएं, तो खेती का काम बंद कर देना पड़ेगा." भारत में 7.6 करोड़ टन गेहूं और 9 करोड़ टन चावल की खपत है. अगर घरेलू उपज घटती है, तो भारत को विदेश से आयात करना पड़ेगा और विश्व बाजार में अनाज की कीमत बढ़ जाएगी.

बढ़ती कीमतों की वजह से घरेलू आप्रवासी खेत मजदूरों के खर्च भी बढ़ रहे हैं और उनकी बचत घटती जा रही है. ऐसी हालत में अगर बिहार के मजदूरों को अपने घर के पास ही नरेगा के तहत रोजगार मिल जाता है, तो जाहिर है कि वे पंजाब या हरयाणा जाने के बदले बिहार में ही रह जाते हैं. वहां तो कुछ प्रगति हो रही है, लेकिन भारत की हरी क्रांति खतरे में पड़ गई है.

रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ

संपादन: ईशा भाटिया

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