नसंबदी का खामियाजा भुगतती महिलाएं
१५ नवम्बर २०१४दिल्ली के अस्पताल में नसंबदी का इंतजार कर रही जमनतारा टोकस मानती है कि 13 महिलाओं की मौत के बाद उसे भी ऑपरेशन से पहले डर सता रहा है. लेकिन वह कहती है कि जो राशि उसे मिलेगी उसे ठुकराना आसान नहीं है. चार बच्चों की मां 26 वर्षीय टोकस कहती है कि वह 1400 रुपये की राशि मिलने के विश्वास के साथ इस काम के लिए राजी हुई, "मैंने नसबंदी के बाद मौतों के बारे में सुना है और मैं बहुत डरी हुई हूं. लेकिन मेरे पति ने कहा कि सबकुछ ठीक होगा साथ ही जो पैसे मिलेगा वह अच्छा है."
डॉक्टर और महिला अधिकार कार्यकर्ता ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि वह छत्तीसगढ़ में हुई मौतों को लेकर हैरान नहीं हैं, जहां एक ही सर्जन ने पांच घंटे के भीतर 83 महिलाओं का ऑपरेशन किया. ये सभी ऑपरेशन ऐसे सरकारी अस्पताल में किए गए जहां इतनी संख्या में महिलाओं को रखने और देखभाल का इंतजाम नहीं था.
पचास लाख महिलाओं की नसबंदी
भारत में हर साल पचास लाख महिलाओं की नसबंदी होती है, ज्यादातर महिलाओं का ऑपरेशन ग्रामीण इलाकों में कैंप लगाकर होता है. हर एक महिला को इसके बदले सरकार की तरफ से 1400 रुपये दिए जाते हैं. अधिकांश ऑपरेशन नवंबर और अप्रैल के महीने में होते हैं, जिसे नसबंदी का मौसम भी कहा जाता है. इस दौरान वित्तीय वर्ष के खत्म होने के पहले कोटा को भरने की कोशिश होती है.
गैर लाभ परिवार नियोजन संघ के डॉक्टर सुधीर नायर कहते हैं, "जो छत्तीसगढ़ में हुआ वह भयानक है लेकिन पूरी तरह हैरान करने वाला नहीं. जल्दबाजी में महिलाओं का ऑपरेशन किया जाता है और वह भी सबसे भयानक स्थितियों में और उसके बाद उन्हें घर भेज दिया जाता है सिर्फ कुछ दर्द निवारक दवा के साथ. मरीजों का शून्य के बराबर फॉलो अप होता है."
कई महिलाओं का कहना है कि उन्हें मजबूरन इस प्रक्रिरिया में शामिल होना पड़ता है क्योंकि उनके रिश्तेदारों की नजर उस राशि पर होती है जो ऑपरेशन के बाद मिलती है. कई बार सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर भी अनौपचारिक लक्ष्य को पूरा करने का दबाव होता है. वहीं अभियान चलाने वालों का कहना है कि कई बार उपकरणों का इस्तेमाल बिना उन्हें संक्रमण मुक्त किए होता है और ऑपरेशन अस्थायी ग्रामीण क्लीनिकों में किया जाता है.
तीन साल में 336 मौतें
सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2010 और 2013 के बीच महिला नसंबदी के दौरान 336 मौतें हुईं. भारत ने बढ़ती संख्या को काबू करने के लिए 1970 में पुरुषों के लिए अनिवार्य नसंबदी कार्यक्रम की शुरूआत की थी लेकिन बड़े पैमाने पर क्रोध के बाद उसे यह बंद करना पड़ा. 1996 में सरकार ने नसबंदी के लिए सरकारी लक्ष्य को रोक दिया, लेकिन अधिकार कार्यकर्ता का कहना है कि यह अभ्यास स्थानीय स्तरों पर बना रहता है. नसंबदी करने वाले डॉक्टर और स्वास्थ्य कार्यकर्ता को भी नकद राशि मिलती है.
2012 की ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं को गर्भनिरोधक के वैकल्पिक तरीकों के बारे में जानकारी देने से नियमित रूप से वंचित किया जाता है, क्योंकि स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को नसबंदी के अनौपचारिक लक्ष्य पूरे करने होते हैं.
अधिकार समूह ने मुख्य रूप से महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए सरकार की आलोचना की थी, महिलाओं के अनुपात में पुरुषों की नसंबदी बहुत कम होती है, तब भी जब प्रक्रिया बहुत ही सरल है. दिल्ली स्थित पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की सोना शर्मा कहती है, "गरीब, अधिकारहीन और अशिक्षित महिलाएं इसका खामियाजा भर रही हैं. जरूरी नहीं कि महिलाओं ने खुद ही नसंबदी कराने का फैसला किया हो."
एए/आईबी (एएफपी)