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नसीरुद्दीन, उस्ताद शुजात खान और फैज की जुगलबंदी

१५ जनवरी २०१२

जाने-माने पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज और फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के बीच वैसे तो कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन नसीरुद्दीन को खालिस उर्दू में फैज की कविताएं पढ़ते देखना अपने-आप में एक दुर्लभ मौका है.

तस्वीर: DW

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के साहित्य प्रेमियों को ऐसा दुर्लभ मौका दिया तीसरे एपीजे कोलकाता साहित्य उत्सव ने. सिर्फ इतना ही नहीं उस्ताद विलायत खान के पुत्र उस्ताद शुजात खान भी उसी मंच पर सितार बजाया और फैज की नज्मों को गाया. 11 से 15 जनवरी तक महानगर में आयोजित इस उत्सव में जन्मशताब्दी के मौके पर फैज बड़ी शिद्दत से याद किए गए. फैज के अलावा इस उत्सव के जरिए डेढ सौवीं जयंती पर कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर को भी श्रद्धांजलि दी गई.

उत्सव के दूसरे दिन फैज की याद में आयोजित ‘लब आजाद हैं' कार्यक्रम में नसीरुद्दीन शाह ने जब फैज की कविताओं का पाठ शुरू किया तो पूरे हाल में सिर्फ वाह-वाह की आवाजें और तालियों की गूंज ही सुनाई दे रही थी. फैज ने अपनी कविताओं और शायरी में आम आदमी की आजादी के गीत गाए थे. फैज के जीवन का एक लंबा हिस्सा जेलों में गुजरा था. नसीर के कविता पाठ के बाद उस्ताद शुजात खान ने जब सितार संभाल कर फैज की गजल नसीब आजमाने का दिन आ गया है---चलो फैज कहीं दिल लगाएं, ठिकाने मिल गए हैं. से शुरूआत की तो पूरे हाल में सन्नाटा छा गया. यह सन्नाटा गीत के खत्म होने के बाद गूंजने वाली तालियों के शोर से ही टूटा. उसके बाद कलम छिन गई तो क्या हो गया है, खून में अंगुलियां डुबो दीं मैंने और इस जैसे तमाम गीतों का सिलसिला शुरू हुआ तो दो घंटे का वक्त लगा कर कैसे उड़ गया, पता ही नहीं चला.

तस्वीर: DW

फैज की कविताओं का पाठ कर नसीर भी अभिभूत थे. उन्होंने कहा, "यहां आकर मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं. मैं कविता के बारे में तो ज्यादा नहीं जानता. लेकिन गालिब और फैज मुझे बेहद पसंद है."

इस उत्सव में आईं फैज की बेटी सलीमा हाशमी, जो खुद भी पाकिस्तान की एक मशहूर चित्रकार और लेखिका हैं, अपने पिता के लेखन के दिनों को याद करते हुए अतीत में डूब जाती हैं. वह कहती हैं, "गीतों के बोल बेहद आसानी से उनकी जुबां पर आ जाते थे. वह उनको पूरे परिवार को सुनाते थे." सलीमा बताती हैं कि वह बेहद आशावादी थे. अक्सर जेलों से गीत लिख कर मेरी मां को भेजते थे.

तस्वीर: DW

साहित्य उत्सव के सहायक निदेशक अंजुम कात्याल बताते हैं, "हमने पहले ही इस उत्सव को फैज और रवींद्रनाथ टैगोर पर केंद्रित रखने का फैसला किया था. फैज की यह जन्मशताब्दी है और गुरुदेव की डेढ़ सौवीं जयंती." कात्याल कहते हैं कि उर्दू के इस कवि का इस भाषा यानी उर्दू के आधुनिकीकरण में अहम योगदान है.

पहली बार दिखाई गई पाक फिल्म

इन दोनों हस्तियों को याद करने के साथ ही फैज की लिखी पहली फिल्म जागो हुआ सबेरा का भारत में पहली बार प्रदर्शन भी इसी उत्सव के दौरान किया गया. फैज ने फिल्म के संवाद और पटकथा लिखी थी.यूं तो पाकितान में यह फिल्म 1958 में ही रिलीज हुई थी. लेकिन भारत में इसका प्रदर्शन नहीं हो सका था. फैज की पुत्री सलीमा ने दर्शकों को इस फिल्म के बारे में जानकारी दी. 87 मिनट की यह फिल्म पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के मछुआरों के जीवन पर आधारित है. फिल्म में दिखाया गया है कि एक नाव बनाने के लिए मछुआरे लाल मियां को कितना संघर्ष करना पड़ा. लोगों के संघर्ष के जरिए इस फिल्म में तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का बेहद सटीक और यथार्थ चित्रण किया गया है. यह फिल्म बांग्ला लेखर मानिक बंद्योपाध्याय की कहानी पद्मा नदीर माझी (पद्मा नदी का नाविक) पर आधारित है और इसमें अपने जमाने की मशहूर बांग्ला अभिनेत्री तृप्ति मित्रा ने भी अभिनय किया है.

सलीमा बताती हैं कि पहले माना जा रहा था कि इस फिल्म के प्रिंट खो गए हैं. लेकिन निर्माता के बेटे ने इसे लंदन में ढूंढ़ निकाला. अब डिजिटल तरीके से इसके नए प्रिंट तैयार किए जा रहे हैं. फिल्म देखने के बाद नसीरुद्दीन शाह का कहना था कि वे हतप्रभ हैं. पांच दशक से भी पहले के उस दौर में सिनेमा में ऐसी भाषा का इस्तेमाल से साबित होता है कि फैज बेहतरीन शायर के साथ एक महान विचारक भी थे.

रवींद्रनाथ टैगोर पर किताब

तस्वीर: DW

उत्सव के पहले ही दिन रवींद्र नाथ टैगोर की पेंटिंग पर आधारित पुस्तक ‘द लास्ट हार्वेस्ट' का लोकार्पण किया गया. इस पुस्तक में गुरुदेव की बनाई गई करीब 200 विशिष्ट पेंटिंग का संग्रह है. उत्सव के दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की बनाई गई तस्वीरों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी.

पांच दिनों तक चले इस उत्सव की खासियत यह रही कि इसे किसी एक स्थान की बजाय महानगर के अलग अलग जगहों स्थानों पर आयोजित किया गया. उद्घाटन कहीं और हुआ तो फैज की कविताओं का पाठ कहीं और. इसी तरह रवींद्रनाथ के चित्रों की प्रदर्शनी दूसरी जगह लगाई गई थी. लेकिन कहीं भी दर्शकों की कोई कमी टोटा नहीं. जिस दिन टाउनहाल में नसीरुद्दीन शाह फैज की कविताएं पढ़ रहे थे उस दिन सबसे ज्यादा भीड़ थी. लोग घंटों सीढ़ियों पर खड़े होकर पूरी तन्मयता से सुनते रहे.

अहम है उत्सवों की भूमिका

अभिनेता नसीर कहते हैं कि नई पीढ़ी में साहित्य और किताबों के प्रति जागरुकता पैदा करने में ऐसे साहित्य उत्सवों की भूमिका अहम है. अपनी युवावस्था के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि हम लोग तो झोले में किताबें लेकर घूमते थे. लेकिन आज की युवा पीढ़ी के बैग में डीवीडी और लैपटॉप ही होता है.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः एन रंजन

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