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नाकाफी कानून से उठे सवाल

३ सितम्बर २०१३

हाथ में तराजू और आंखों पर काली पट्टी बांधे कानून की देवी का अर्थ है कि कानून लकीर का फकीर है. हदों से बंधे कानून में व्यवहारिकता की जगह नहीं. विधि शास्त्र की धारणाएं कानून के व्यवहारिक पहलू पर गंभीर सवाल उठा रही हैं.

तस्वीर: Reuters

कानून किताबों में लिखी इबारत का पालन सूत भर भी डिगे बिना करता है. खासकर भारत जैसे देशों में जहां आज भी न्याय का मूल आधार यह माना जाता है कि भले ही 99 अपराधी छूट जाएं लेकिन एक निर्दोष कानूनी शिकंजे में न फंसे. देश दुनिया को झझकोर देने वाले 16 दिसंबर के दिल्ली बलात्कार कांड के मामले में अदालत के पहले फैसले से कानून अपने ही मकसद में हारता दिखा.

सभ्य समाज की ओर जाने के तमाम दावों की धज्जियां उड़ाते इस मामले के सबसे बड़े अपराधी को सबसे कम सजा सुनाए जाने के बाद कानून की लचरता पर गंभीर बहस शुरु हो गई है. बहस के केन्द्र बिंदु में कुछ अहम सवाल हैं. मसलन, क्या कानून, मामले के तथ्य एवं परिस्थितियों से आंख मूंद कर इस हद तक लकीर का फकीर हो सकता है कि एक महिला की अस्मत और अस्तित्व मिटा देने वाले युवक को महज इसलिए न्यूनतम सजा दी जाए क्यों कि वह अपराध के समय वयस्क होने की दहलीज से महज 4 माह दूर था. जिस मामले ने सोई हुई सरकार को भी यौन हिंसा के मामलों में नया कानून बनाने के लिए मजबूर कर दिया हो, क्या उस मामले का फैसला कानून की लाचारी और लचरता का प्रतीक बन कर नहीं उभरा है. कानूनों की भरमार वाले इस मुल्क में विधायिका आखिर 6 दशक से कर क्या रही है जबकि किशोर यानी जुवेनाइल की परिभाषा तक समय की कसौटी पर खरी न उतरती हो. चार दिन पहले आए इस फैसले ने इस तरह के सवालों की झड़ी लगा दी.

नाकामी का आलम

दिल्ली बलात्कार कांड मुकदमे के पहले फैसले में दोषी करार दिए गए आरोपी को 3 साल बाल सुधार गृह में रहने की सजा सुनाई गई है. यह फैसला बाल अदालत का है. इस कांड के बाकी आरोपियों पर फैसला 10 सितंबर को आना है. फैसला आते ही कहावत याद आती है सौ दिन चले अढ़ाई कोस. आठ महीने 15 दिन की सुनवाई में पहले यह तय हुआ कि इस मामले में हैवानियत की हदें पार करने वाले सबसे बर्बर आरोपी को किशोर माना जाए या वयस्क. वारदात के दिन आरोपी की उम्र 17 साल 6 महीने थी. आरोपी की हरकत से वाकिफ होने के बाद भी अदालत ने उसे वयस्क के बजाय किशोर माना और बाल न्याय कानून के तहत मामले की सुनवाई की. इसके साथ ही आठ महीने पहले ही इस फैसले का मजमून तय हो गया था. क्योंकि इस कानून में बलात्कार और हत्या के लिए अधिकतम सजा तीन साल ही है. अदालत और कानून की हद का पालन करने की मजबूरी का खामियाजा उस समाज को भुगतना पड़ा जो एक वारदात के खिलाफ नहीं बल्कि यौन हिंसा के फैलते जहर को रोकने के लिए उठ खड़ा हुआ था.

तस्वीर: Reuters

कानून की कमजोरी का हाल

जिस देश में अनगिनत कानून बन चुके हों, जरा सोचिए उस देश में यौन हिंसा के बर्बरतम मामले में न्याय करने के लिए माकूल कानून ही न हो. सरकार को खुद यह स्वीकार करना पड़ा कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए मौजूदा कानून न्याय कर पाने में सक्षम नहीं है. लिहाजा संसद को सड़कों पर उबलते जनाक्रोश को शांत करने के लिए यौन हिंसा कानून को सख्त करना पड़ा. बहस का यह अलग सवाल है कि बदले हुए कानून की यह सख्ती कितनी माकूल और असरदायी साबित होगी. हालांकि इस मामले के पहले फैसले ने कानून में बदलाव से जुड़ी संसद की कवायद की हकीकत को उजागर कर दिया.

नया संकट, सुप्रीम कोर्ट पर नजर

इस फैसले ने कदम दर कदम कानून की कमी और लचरता का एक और नमूना पेश किया. इस मामले में तात्कालिक सवाल यह था कि यौन हिंसा के अब तक के सबसे विलक्षण मामले को अंजाम देने वाले किशोर के साथ क्या सलूक किया जाए. इसके जवाब में अदालत से अधिकतम सजा मिलने के तुरंत बाद दूसरा सवाल उठा कि यौन हिंसा के क्षेत्र में विलक्षण प्रतिभा के धनी इस अपराधी को सजा भुगतने के लिए कहां रखा जाए. दरअसल बाल न्याय कानून के तहत दोषसिद्ध आरोपी को बाल सुधार गृह में रखने का प्रावधान है. जबकि इसी कानून के मुताबिक किसी किशोर को 18 साल की उम्र होने तक ही बाल सुधार गृह में रखा जा सकता है. सजायाफ्ता किसी दोषी किशोर के वयस्क होने पर क्या किया जाए, इस सवाल पर कानून मौन है.

अब तक इस प्रावधान की गलत व्याख्या करते हुए सजा काट रहे दोषियों को वयस्क होते ही छोड़ दिया जाता था. इस मामले में बाल अदालत से सजा सुनाए जाने तक आरोपी वयस्क हो चुका था. ऐसे में सवाल उठा कि इसे 27 महीने की सजा काटने के लिए बाल सुधार गृह भेजा जाए या जेल. दरअसल बाल अदालत से सुनाई गई सजा बाल सुधार गृह में ही काटी जा सकती है और बाल सुधार गृह में कोई वयस्क रह नहीं सकता. एक बार फिर कानून की कमी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में 17 जुलाई को दिया गया फैसला काम आ गया जिसमें अदालत ने तय किया था कि बाल अपराधी को वयस्क होने के बाद भी सजा काटने के लिए बाल सुधार गृह में ही रखा जाए. इस आधार पर निर्भया कांड के पहले दोषी को बाल सुधार गृह में ही रखा गया है.

भविष्य की चुनौती

यह फैसला कानून की कमजोरी और व्यवहारिक उपयोग न होने का सबूत बनकर उभरा है. सोचने वाली बात यह है कि जिस समाज में 17 साल का किशोर हैवानियत की हद पार रहा हो और साधुभेष धारी 72 साल के आसाराम पुंषत्व परीक्षा में अव्वल दर्जे से पास हो रहे हों उस समाज में यौन हिंसा रोकने वाले कानूनों की कमी से जनित भविष्य का संकट साफ दिखाई देता है. ऐसे में विधायिका से मजबूत कानून बनाने पर नाउम्मीद हो चुकी व्यवस्था को एक बार फिर अदालत से ही उम्मीद जगी है. समय से पहले जवान होते बच्चों की हकीकत और निर्भया मामले में न्याय को अपने मकसद से पराजित होते देख सुप्रीम कोर्ट ने अब तय किया है कि वह किशोर की परिभाषा स्वयं तय करेगा. जिससे यह स्पष्ट किया जा सके कि 16 से 18 साल तक के गंभीर अपराधों के आरोपियों को बाल न्याय कानून के दायरे में रखा जाए या सामान्य अपराध कानून के तहत. दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने भी निजी तौर पर इस फैसले को बेहद निराशाजनक बताते हुए अपराध कानूनों में दुराशय के सिद्धांत को लागू करने की जरुरत पर बल दिया है. इस तरह के बढ़ते अपराधों को रोकने वाले कानूनों को उम्र और हालात की बंदिशों से मुक्त कर दुराशय के आधार पर तय करना अब समय की मांग है. कानून में दुराशय का सिद्धांत कुछ पश्चिमी देशों में पूरी तरह से लागू है. भारत में यह कुछ मामलों में तो है लेकिन पूरी तरह से नहीं. इस सिद्धांत में अपराध के बारे में अपराधी की नीयत को फैसले का आधार बनाया जाता है. समय से पहले जवान होते दिमाग को किशोर या वयस्क की बहस में उलझाने से अदालती फैसले निर्भया मामले जैसे ही आएंगे.

मौजूदा हाल

भारत में आपराधिक मामलों के लिए 150 साल पुराने कानून का इस्तेमाल किया जाता है. हैरत की बात है कि उस जमाने में गढ़ी गई बलात्कार की परिभाषा आज के दौर की सेक्स एंड द सिटी की चाशनी में डूबे समाज की यौन कुंठा का सीमांकन कर रही है. कानून बनाने वाले नेता और इसे कठपुतली की तरह नचाने वाले वकील दंड संहिता के जनक लार्ड मैकाले की परिपक्वता का हवाला देकर इस परिभाषा को पूर्ण मानते हैं. विधायिका और न्यायपाकिा में बैठे कानूनविदों का एक तबका है जो मैकाले रचित भारतीय दंड संहिता का इस हद तक कायल है कि इसमें संशोधन तो छोड़िए इसे छूने तक की इजाजत नहीं देना चाहता है. हेनरी मेन की परंपरा के वाहक कानूनविदों की दलील है कि आईपीसी में वर्णित 511 अपराधों के दायरे से कोई भी अपराध अछूता नहीं है. ऐसे में कानूनों की व्यवहारिकता का तकाजा है कि सर्वोच्च अदालत को ही अब अपराध और दंड के मानक तय करने पड़ रहे हैं.

ब्लॉगः निर्मल यादव, दिल्ली

संपादनः निखिल रंजन

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