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नागरिकता कानून की संवैधानिकता पर जानकारों का राय

चारु कार्तिकेय
१३ दिसम्बर २०१९

क्या नागरिकता कानून में समुदायों का वर्गीकरण तर्कसंगत और संवैधानिक है? जानकारों की इस प्रश्न पर अलग अलग राय है.

Indien Neu Delhi | Demonstration der Opposition
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup

भारत के कई हिस्सों में हुए भारी विरोध के माहौल के बीच नागरिकता संशोधन विधेयक एक कानून बन गया है. राष्ट्रपति ने इसे अपनी स्वीकृति दे दी और इसे अधिसूचित भी कर दिया गया है. लेकिन कई तबकों इसका विरोध जारी है. दिल्ली, अलीगढ़, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई समेत कई शहरों में नए कानून के विरोध में रैलियां निकाली गईं. सबसे भारी विरोध पूर्वोत्तर के राज्यों में हो रहा है. असम, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश में कानून के विरोध के बाद इतनी अशांति फैल गई कि जगह जगह कर्फ्यू लग गया और सेना तैनात कर दी गई. पुलिस की गोलीबारी में दो प्रदर्शनकारियों की जान भी जा चुकी है.

कोलकाता में कानून के खिलाफ प्रदर्शन. तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay

जाहिर है बड़ी संख्या में जनता में यह धारणा है कि ये कानून ठीक नहीं है. संसद में विधेयक पर बहस के दौरान विपक्ष के सभी सांसदों ने इसे असंवैधानिक बताया था. क्या ये वाकई असंवैधानिक है? यह जानने के लिए डॉयचे वेले ने समीक्षकों और संवैधानिक विशेषज्ञों से बात की.

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी का कहना है कि कानून में कई बड़ी त्रुटियां हैं, जैसे कि ये नागरिकता का अधिकार कुछ विशेष समुदायों को देता है, सिर्फ एक समुदाय - मुसलमानों - को छोड़ कर. भारत में धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जाती है. ये एक पंथ-निरपेक्ष अधिकार है जो उन्हें दिया जाता है जो यहां जन्मे हों या एक कानूनी प्रक्रिया के अनुसार इसके हकदार बन गए हों.

अचारी यह भी कहते हैं कि कानून के उद्देश्य बताने वाली प्रस्तावना में कहा गया है कि इस बिल का उद्देश्य है धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर नागरिकता देना, लेकिन समस्या यह है कि कानून के मूलपाठ में "धार्मिक प्रताड़ना" का कहीं उल्लेख नहीं है. ऐसा न होने का मतलब यह है कि जिन समुदायों का कानून में उल्लेख है उन्हें नागरिकता देने का कोई आधार है ही नहीं.

अचारी आगे बताते हैं कि ये कानून संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है क्योंकि ये धर्म के आधार पर एक समुदाय को बाहर रख रहा है, बिना किसी न्यायसंगत आधार के. वो यह मानते हैं कि अनुच्छेद 14 में "रीजनेबल क्लासिफिकेशन" की इजाजत दी गई है, लेकिन उसका भी कोई आधार तो होना चाहिए. जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अति पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान इसी "रीजनेबल क्लासिफिकेशन" के जरिए दिया गया, लेकिन यह इसलिए संभव हो पाया क्योंकि इसका एक न्यायसंगत आधार है. लेकिन इस कानून में जो समूहीकरण किया गया है उसका कोई आधार नहीं है.

वो आगे कहते हैं कि अगर आप पड़ोसी देशों में प्रताड़ना झेलने वाले समुदायों को आधार बना रहे हैं तो फिर चीन के उइगुर मुसलमानों को, म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को और श्रीलंका के हिन्दू और मुस्लिम तमिलों को क्यों छोड़ दिया है. अचारी यह भी कहते हैं, "और नास्तिकों का क्या? उन्हें भी तो कई देशों में प्रताड़ना झेलनी पड़ती है." अचारी के अनुसार, "लोग इसके खिलाफ अदालत के दरवाजे खटखटाएंगे और मुझे लगता है अदालत इसे निरस्त कर देगी."

कानून किस वजह से लाया जा रहा है इस सवाल पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान के निदेशक अनिर्बान गांगुली और प्रकाश डालते हैं. वो कहते हैं, "जो भी इस कानून की आलोचना कर रहे हैं उन्हें इस देश के विभाजन के इतिहास का कोई अंदाजा नहीं हैं. हम आज जो कर रहे हैं वो विभाजन का बाद का बचा हुआ कदम है. ये विभाजन के उस इतिहास का ही नतीजा है. हम इस कानून को ला रहे हैं विभाजन के दुष्परिणामों को ठीक करने के लिए. जो लोग आलोचना कर रहे हैं वो यह बताएं कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में जो वहां के अल्पसंख्यकों की संख्या कम हुई है, वो लोग कहां गए. और अगर वो भारत में आए तो क्या उन्हें अदृश्य रहने दिया जाए?"

गांगुली, जिनका भाजपा से जुड़ाव भी है, आगे पूछते हैं, "अगर ये असंवैधानिक है तो देश में अल्पसंख्यक संस्थान बनाना कैसे संवैधानिक है?" वो यह भी कहते हैं, "भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद क्यों सिर्फ पश्चिमी मोर्चे पर आबादी की पूर्ण अदला-बदली हुई और पूर्वी मोर्चे पर नहीं हुई? ये इतिहास में दर्ज है कि उन्हें कांग्रेस के नेताओं ने आश्वासन दिया था कि वे उनका ख्याल रखेंगे, उन्हें संरक्षण देंगे और अगर वो प्रताड़ना की वजह से भारत आए तो उन्हें नागरिकता भी देंगे. लोग क्यों ये भूल रहे हैं?"

पूर्वोत्तर में हो रहे विरोधों को लेकर गांगुली का कहना है कि सरकार बार बार कह चुकी है कि भारत सरकार पूरे पूर्वोत्तर के लोगों की सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने के प्रति प्रतिबद्ध है. उनका मानना है, "विरोध सीमित हैं और आयोजित हैं. हमें यह भी मानना होगा कि असम में पहले से ही छह जिलों में अवैध घुसपैठियों की वजह से जनसांख्यिकीय बदलाव आ चुका है".

इस कानून की संवैधानिकता के सवाल पर लोकसभा के एक और पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप की राय अलग है. वो कहते हैं, "संविधान का अनुच्छेद 14 यह कहता है कि कानून के आगे सब बराबर होने चाहिए और सबको कानून का बराबर संरक्षण मिलना चाहिए. सरकार का दावा है कि सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में यह देखा जा चुका है कि "रीजनेबल क्लासिफिकेशन" की इजाजत है. तर्कसंगत क्या है इसका फैसला अलग अलग मामले के अनुसार होता है. सरकार ने फैसला लिया है कि वो घुसपैठियों और शरणार्थियों को अलग अलग श्रेणियों में रखेगी. यह तर्कसंगत है या नहीं अगर इस पर सवाल उठा तो फैसला अदालत करेगी. इसके अलावा यह मुद्दे कानून का कम, राजनीति का ज्यादा है."

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